शशांक / खंड 3 / भाग-8 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

विग्रह और विद्रोह


सिंहासनच्युत होकर महाकुमार माधवगुप्त कहाँ चले गए पाटलिपुत्र में कोई नहीं जानता। कुछ लोग कहते थे कि हंसवेग के साथ थानेश्वर चले गए। शशांक ने अपने छोटे भाई को ढूँढ़ने के लिए चारों ओर दूत भेजे, पर उनका कहीं पता न लगा।

बन्धुगुप्त के मारे जाने के पीछे यशोधावलदेव दिन दिन अशक्त होते गए, यहाँ तक कि वे उठकर चल फिर भी नहीं सकते थे। अपना अन्तकाल समीप जान वृद्धमहानायक ने सेठ की कन्या यूथिका और अनन्त की बहिन गंगादेवी का विवाह कर देने का अनुरोधा सम्राट से किया। शुभ मर्ुहूत्ता में वसुमित्र के साथ यूथिका का, माधववर्म्मा के साथ गंगा का और वीरेन्द्रसिंह के साथ तरला का विवाह हो गया। शशांक ने लतिका के विवाह के विषय में भी पूछा, पर वृद्धमहाशय ने कोई उत्तर न दिया।

विवाहोत्सव हो जाने पर एक दिन सम्राट गंगाद्वार के घाट पर बैठे थे। कुछ दूर पर द्वार के पास महाप्रतीहार विनयसेन और महानायक अनन्तवर्म्मा खड्ग लिए खड़े थे। ये लोग सदा सम्राट के पास रहते थे। भागीरथी के शान्त जलसमूह के ऊपर चाँदनी की शुभ्रधारा पड़ रही थी। सम्राट एकटक उसी ओर ताक रहे थे। वे मन ही मन सोच रहे थे कि इसी जलसमूह के नीचे बालुका कणों के बीच कहीं चित्रा छिपी होगी। एक बार भी उसे यदि देख पाते! उसकी श्वेत ठठरी कहीं सेवार से ढकी हुई नदीगर्भ में पड़ी होगी और मैं रत्नजड़ित सोने के सिंहासन पर बहुमूल्य वस्त्र आभूषण पहने बैठा हूँ। वही चित्रा, फूल चुनते समय जिसकी कोमल उँगलियों में एक छोटा सा काँटा चुभ जाने से कितनी पीड़ा होती थी, वह कितना व्याकुल होती थी! जिस समय मैं जल में कूदा था उस समय मुझे कितनी वेदना हुई थी! उसके हाथ दारुण मानसिक वेदना से शिथिल होकर जिस समय तैरने में अशक्त हो गए होंगे उस समय मृत्यु का आलिंगन करने में उसे कितनी यन्त्राणा हुई होगी! रुके हुए नाले के समान ऑंसुओं की धारा छूट पड़ी। शशांक की ऑंखों में धुन्ध सा छा गया। चाँदनी में डूबा हुआ जगत् सामने से हट गया।

इसी बीच एक दण्डधार दौड़ा दौड़ा आया और सम्राट का अभिवादन करके बोला “देव! उत्तर मालव से महाराज देवगुप्त ने एक दूत भेजा है। वह इसी समय महाराजाधिराज का दर्शन चाहता है”। सम्राट कुछ अनमने से होकर बोले “उसे यहीं ले आओ”। दंडधार प्रणाम करके चला गया।

दंडधार थोड़ी ही देर में एक वर्म्मधारी पुरुष को साथ लिए लौट आया। वहसम्राट को अभिवादन करके बोला “महाराजाधिराज ! मालव से महाराज देवगुप्त ने मुझे भेजा है। मैं दिन रात घोड़े की पीठ पर ही चल कर आज दो महीने में यहाँ पहुँचा हूँ”।

“क्या संवाद लाए हो?”

“संवाद बहुत गोपनीय है”।

“तुम बेधाड़क कहो। यहाँ पर इस समय जितने लोग हैं सब साम्राज्य के विश्वस्त कर्म्मचारी हैं”।

“महाराज देवगुप्त ने महाराजाधिराज के पास यह कहला भेजा है कि दो महीने हुए कि थानेश्वर में विषमज्वर से महाराज प्रभाकरवर्ध्दन की मृत्यु हो गई”।

अनन्त- क्या कहा?

दूत-विषमज्वर से महाराज प्रभाकरवर्ध्दन की मृत्यु हो गई।

शशांक-इसके लिए देवगुप्त ने क्यों दूत भेजा है? स्थाण्वीश्वर से यथासमय संवाद आ ही जाता।

दूत-महाराजाधिराज ! और संवाद भी है। महाराज प्रभाकरवर्ध्दन की मृत्यु के समय महाकुमार राज्यवर्ध्दन वहाँ नहीं पहुँच सके। वे हूण देश की चढ़ाई पर गए हैं। वे नगरहार और पुरुषपुर से आगे गान्धार देश की घाटियों में जा पहुँचे। अब तक वे लौट कर नहीं आए हैं।

शशांक-तो क्या हर्ष ने अपने जेठे भाई के सिंहासन पर अधिकार कर लियाहै?

दूत-नहीं महाराजाधिराज! महादेवी यशोमती ने चितारोहण किया। राज्यवर्ध्दन अब तक लौटकर नहीं आए हैं। हर्ष, शोक के मारे अधामरे से हो रहे हैं। महाराज ने निवेदन किया है कि आर्य समुद्रगुप्त के विनष्ट साम्राज्य के उध्दार का यही समय है। वे कान्यकुब्ज पर आक्रमण करके थानेश्वर की ओर बढ़ रहे हैं। उन्होंने निवेदन किया है कि महाराजाधिराज इधर से प्रतिष्ठान दुर्ग पर चटपट अधिकार करें।

शशांक-दूत! मालवराज बावले तो नहीं हुए हैं? वे क्या नहीं जानते कि स्वर्गीय प्रभाकरवर्ध्दन सम्राट दामोदरगुप्त के दोहित्रा थे। उनसे कहना कि साम्राज्य के साथी स्थाण्वीश्वर राज्य का कोई विवाद नहीं है। दूसरी बात यह कि विपत्तिा में पड़े हुए पुराने बैरी पर भी आक्रमण करना क्षात्राधार्म्म के विरुद्धहै। हर्ष मेरे फुफेरे भाई हैं। तुम चटपट लौटो और मालवराज से मेरा नाम लेकर कहो कि वे मालवा लौट जायँ। अन्याय से समुद्रगुप्त के विनष्ट साम्राज्य का उध्दार नहीं हो सकता।

दूत-महाराजाधिराज ! थानेश्वर के राजा साम्राज्य के पुराने शत्रु हैं। महाराज देवगुप्त ने यज्ञवर्म्मा की हत्या, अवन्तिवर्म्मा के विद्रोह और पाटलिपुत्र में थानेश्वर की सेना के उध्दत व्यवहार की बात का स्मरण करने के लिए कहा है।

शशांक-उनसे कहना कि मुझे सब बातों का स्मरण है, फिर भी मैं अन्याय और अधार्म में प्रवृत्ता नहीं हो सकता।

दूत-महाराजाधिराज !

शशांक-क्या कहना चाहते हो? बेधड़क कहो।

दूत-महाराजाधिराज महासेनगुप्त के पुत्र हैं; समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त और कुमारगुप्त के वंशधार हैं। गुप्तवंश के पूर्व गौरव का धयान श्रीमान् के चित में सदा बना रहना चाहिए। साम्राज्य की असहाय अवस्था में विश्वासघातकों ने किस प्रकार एक नया राज्य खड़ा कर लिया यह बात किसी से छिपी नहीं है।

इतने में महाबलाधयक्ष हरिगुप्त दौड़े हुए गंगाद्वार से निकलकर आए और दण्डधार से पूछने लगे “सम्राट कहाँ हैं?” उसने उँगली उठाकर दिखाया। मालव के राजदूत, अनन्तवर्म्मा और शशांक चकपकाकर उनकी ओर ताकने लगे। उनके मुँह से कोई बात निकलने के पहले ही सम्राट ने पूछा-

“महानायक! क्या है?”

हरि -महाराजाधिराज ! भारी आपत्ति है।

शशांक-क्या हुआ?

हरि -चरणाद्रि दुर्ग की सारी सेना विद्रोही हो गई है।

शशांक-क्या अवन्तिवर्म्मा फिर आ गया?

दूत-महाराजाधिराज ! मौखरिराज अवन्तिवर्म्मा तो प्रतिष्ठान दुर्ग में हैं।

शशांक-दूत! मौखरिराज तो अनन्तवर्म्मा हैं जो हमारे पास खड़े हैं। अवन्तिवर्म्मा तो विद्रोही हैं।

हरि.-महाराजाधिराज! दूत का अपराध क्षमा हो। इस समय वाराणसीभुक्ति की सारी सेना विद्रोही होकर चरणाद्रि की सेना के साथ मिल गई है और नरसिंह नाम के एक व्यक्ति को सेनापति बनाकर उसने प्रतिष्ठान पर आक्रमण कर दियाहै।

शशांक-नरसिंह! नरसिंह कौन है?

हरि -यह तो मैं नहीं कह सकता। पर वह महानायक नरसिंहदत्ता नहीं हो सकता। तक्षदत्ता का पुत्र कभी विद्रोही नहीं हो सकता।

शशांक-संवाद लेकर कौन आया है?

हरि -विद्रोही सेना ने एक अश्वारोही को दूत बनाकर महाराजाधिराज के पास भेजा है।

शशांक-महानायक! उसे यहाँ बुलवाइए। वृद्धमहानायक कहाँ हैं?

हरि -यशोधावलदेव तो इस समय पाटलिपुत्र में नहीं हैं। पर महाराजाधिराज ! यहाँ गंगाद्वार पर मन्त्राणा होना ठीक है?

शशांक-क्या हानि है? पिताजी के समय में गंगाद्वार पर कई बार मन्त्राणा हुई थी।

हरिगुप्त दण्डधार को दूत को बुलाने के लिए भेज आप सीढ़ी पर बैठ गए। सम्राट ने अनन्तवर्म्मा से पूछा “अनन्त! यह नरसिंह कौन है?”

“कुछ समझ में नहीं आता”।

“और भी कभी यह नाम सुना था?”

“महाराजाधिराज ! चित्रा के भाई नरसिंह को छोड़ मैं और किसी नरसिंह को तो नहीं जानता”।

इतने में माधववर्म्मा, वीरेन्द्रसिंह, दण्डधार और वर्म्मधाारी सैनिक गंगाद्वार से निकलकर आए। सैनिक सम्राट और नायकों का यथारीति अभिवादन करके बोला “महाराजाधिराज , महाबलाधयक्ष ने अभी हम लोगों को विद्रोही कहा है। पर हम लोग विद्रोही नहीं हैं। जिन्होंने शंकरनद और मेघनाद के किनारे श्रीमान् की अधीनता में युद्धकिया है वे कभी विद्रोही नहीं हो सकते। वाराणसीभुक्ति की सारी सेना समतट, बंग और कामरूप की लड़ाई में महानायक यशोधावलदेव और सम्राट के अधीन अपना रक्त बहा चुकी है। वह महानायक नरसिंहदत्ता को नहीं भूली है। उन्हीं की आज्ञा से उसने विश्वासघातक सेनानायकों को बन्दी करके चरणाद्रिगढ़ को शत्रुओं के हाथ में पड़ने से बचाया है।

अनन्त -क्या कहा?

दूत-हम लोगों ने महानायक नरसिंहदत्ता की आज्ञा से महाकुमार माधवगुप्त और मौखरिकुमार अवन्तिवर्म्मा से धान पानेवाले विश्वासघाती नायकों को बन्दी करके चरणाद्रिगढ़ पर अधिकार कर लिया है। देव! उन्हीं के आदेश से बीस सह अश्वारोही प्रतिष्ठानदुर्ग की ओर दौड़े हैं। महाराजाधिराज को स्मरण हो या न हो, एक दिन बन्धुगुप्त की तलवार महाराज के सामने ही मेरे सिर पर पड़ी थी। उसका चिद्द अब तक है।

सैनिक ने घाव का चिद्द दिखाया। अनन्तवर्म्मा तुरन्त आलिंगन करके बोले “मैं पहचान गया, तुम वही गौड़ीय नाविक हो”। नाविक ने तलवार मस्तक से लगाकर कहा “महाराजाधिराज ! हम लोग पुराने विश्वस्त सेवक हैं। विद्रोही नहीं हैं, तक्षदत्ता के पुत्र की अधीनता में हम लोग बहुत युद्धकर चुके हैं, उन्हें हम लोग जानते हैं। उन्होंने कहला भेजा है कि सम्राट यदि सेना सहित बढ़ेंगे तो मैं थानेश्वर की ओर प्रस्थान करूँगा नहीं तो...

अनन्त -नहीं तो...

सैनिक-नहीं तो जब तक एक भी गौड़ सैनिक जीता बचेगा तब तक नरसिंहदत्ता, हर्ष और राज्यवर्ध्दन के साथ युद्धकरते रहेंगे।

शशांक-अच्छी बात है, तुम लोग बढ़ो, मैं आता हूँ। मालव राजदूत! तुम तात देवगुप्त से कहना कि सम्राट नरसिंहदत्ता की रक्षा के लिए जा रहे हैं, अन्याय युद्धकरने नहीं। नरसिंहदत्ता कह गए थे कि जब कोई भारी संकट उपस्थित होगा तभी फिर मैं दिखाई पड़ईँगा। इससे समझ लेना चाहिए कि साम्राज्य पर भारी संकट है, यदि ऐसा न होता तो नरसिंहदत्ता कभी प्रकट न होते। मैं आज ही पाटलिपुत्र की सेना लेकर आगे बढ़ता हूँ। वसुमित्र, अनन्तवर्म्मा और माधव हमारे साथ चलेंगे। वीरेन्द्र! महानायक से कहना वे चटपट अंग, बंग और गौड़ की सेना लेकर प्रतिष्ठानपुर आएँ। अनन्त! मैं कल सबेरे ही यात्रा करूँगा। नगर की सारी अश्वारोही सेना मेरे साथ चलेगी।