शशांक / खंड 3 / भाग-7 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल

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यशोधावल की प्रतिहिंसा

बन्धुगुप्त का कहीं पता न लगा। महादण्डनायक रविगुप्त के सामने महास्थविर बुध्दघोष का विचार हुआ। महास्थविर को राजद्रोह के अपराध में प्राणदण्ड की आज्ञा हुई। विचार के समय बुध्दघोष ने स्पष्ट कह दिया कि जो बौध्दधार्मावलम्बी नहीं उसे बौद्धलोग कभी राजा नहीं मान सकते। उसे सिंहासन से उतारने में, उसकी हत्या करने में कोई पाप नहीं है, महापुण्य है। बौध्दों के निकट प्रभाकरवर्ध्दन ही देश के राजा हैं, प्रजापालक हैं, अत: राजद्रोह का अपराध मुझपर नहीं लग सकता। गंगाद्वार के सामने बुध्दघोष का कटा सिर सफेद बालू पर जा पड़ा। उत्तारापथ के बौध्दसंघ का कोई नेता न रह गया।

भागते गीदड़ के समान बन्धुगुप्त मगध के एक स्थान से दूसरे स्थान में छिपता हुआ अन्त में फिर पाटलिपुत्र लौट आया। राजपुरुष उसकी खोज बाहर बाहर कर रहे थे इससे वह समझा कि राजधानी में चलकर कुछ दिन शान्ति से रहूँगा। वह पाटलिपुत्र पहुँचकर उस पुराने मन्दिर के गर्भगृह में रहने लगा। दिन भर तो वह उसी ऍंधोरी कोठरी में पड़ा रहता, रात को खाने पीने की खोज में निकलता। यशोधावलदेव की छाया उसे सदा पीछे लगी जान पड़ती थी।

जिस पुराने मन्दिर के सामने तरला और जिनानन्द (वसुमित्र) की भेंट हुई थी एक दिन सन्धया के समय उसके पास दो अश्वारोही घूम रहे थे। दोनों अश्वारोही धीरे धीरे पुराने मन्दिर की ओर बढ़ रहे थे और धीरे धीरे बातचीत करते जाते थे। मन्दिर की ओर से एक पथिक उनकी ओर चला आ रहा था। वह उन दोनों को देखते ही जंगल में छिप गया। एक अश्वारोही बोला “आर्य! बन्धुगुप्त का कोई पता न लगा”। दूसरा बोला “पुत्र! कीर्तिधावल की हत्या का बदला लिए बिना मैं मरूँगा नहीं। जहाँ होगा, जिस प्रकार से होगा उसे पकड़िएगा अवश्य”।

इतने में पथ के किनारे का एक वृक्ष हिल उठा। उसे देख सम्राट बोल उठे। “कौन?” कोई उत्तर न मिला। सम्राट और यशोधावल झाड़ों में घुस पड़े। थोड़ी दूर बढ़कर उन्होंने देखा कि एक मनुष्य साँस छोड़कर जीर्ण मन्दिर की ओर भागा जा रहा है। पल भर में सम्राट ने उसके पास पहुँच उसकी पगड़ी खींची। वह पगड़ी छोड़कर भागने लगा। सम्राट ने चकित होकर देखा कि उसका सिर मुँड़ा हुआ है।

पीछे से यशोधावलदेव बोल उठे “शशांक! अवश्य यह कोई बौद्धभिक्खु है। देखना, जाने न पाए”। वह मनुष्य जी छोड़कर मन्दिर की ओर भागा जाता था। मन्दिर के द्वार के पास पहुँचते पहुँचते यशोधावलदेव ने उसका वस्त्र जा पकड़ा। वह अपने को सँभाल न सका, भूमि पर गिर पड़ा और कहने लगा “यशोधावल! मुझे मारना मत, प्राणदान दो, क्षमा करो”। वृद्धमहानायक चकपकाकर उसकी ओर ताकने लगे। थोड़ी देर में उन्होंने पूछा “तू कौन है? तूने मुझे कैसे पहचाना?” उसने कोई उत्तर न दिया।

इतने में सम्राट भी वहाँ आ पहुँचे। महानायक ने उनसे कहा “पुत्र! देखो तो यह कौन है। मैं तो इसे नहीं पहचानता, पर यह मुझे पहचानता है। इसने अभी मेरा नाम लिया था”। सम्राट उसके पास गए और उसे देखते ही चौंक पड़े। उन्हें चट धयान आया कि मेघनादनद में इसी व्यक्ति ने मुझ पर ताक कर बरछा छोड़ा था। अस्त्रा॓ की झनकार और योध्दाओं की कलकल के बीच उसका गम्भीर कर्कश स्वर सुनाई पड़ा था कि “यही शशांक है, मारो मारो” सम्राट ने पहचाना कि यही बौध्दसंघ के बोधिसत्वपाद संघस्थविर बन्धुगुप्त हैं। सम्राट ने अस्फुट स्वर से कहा “भट्टारक! य-य-यही व्यक्ति बन्धुगुप्त है।” सुनते ही वृद्धमहानायक की आकृति बदल गई। पल भर में अस्सी वर्ष के बुङ्ढे के शरीर में जवानों का सा बल आ गया। हिंसावृत्ति ने प्रबल पड़कर बुढ़ापे को दूर कर दिया। वृद्धमहानायक का झुका हुआ शरीर तन गया। वे बोले “पुत्र! अब इस बार...”। शशांक पत्थर की मूर्ति बने चुपचाप खड़े रहे। उन्हें देख बन्धुगुप्त बोल उठे “सम्राट-शशांक-क्षमा-मुझे क्षमा करो-मारो मत-यदि मारना ही हो तो मुझे यशोधावल के हाथ से छुड़ाओ-बुध्दघोष के समान घातकों के हाथ में दे दो-पशु के समान खेला खेलाकर न मारो”।

यशोधावलदेव उन्मत्ता के समान ठठाकर हँसे और कहने लगे “बन्धुगुप्त! तूने जिस समय कीर्तिधावल की हत्या की थी उस समय कितनी दया दिखाई थी?” बन्धुगुप्त काँपकर बोला “यशोधावल! तो तुम जानते हो...”।

यशो -मैं सब जानता हूँ। बन्धुगुप्त! जिस समय मेरा पुत्र घायल होकर अचेत पड़ा था उस समय तूने उस पर कितनी दया दिखाई थी?

बन्धु -महानायक! उस समय मेरे ऊपर भूत चढ़ा था-मैं-मैं-

यशो -जिस समय रक्त बहने के कारण प्यास से तलफकर उसने जल माँगा था उस समय तूने क्या किया था, कुछ स्मरण है?”

बन्धु -है क्यों नहीं, यशोधावल! उस समय मैं उनका गरम गरम रक्त शरीर में पोत कर प्रेत के समान नाच रहा था। पर तुम अब क्षमा करो, धावलवंश में धाब्बा मत लगाओ।

यशो -वह तो बाण लगने से घायल हुआ था, तुझे इतना रक्त कहाँ से मिला?

बन्धु -महानायक! मैंने उनके हाथ पैर की नसें काट दी थीं। उनके रक्त से देवी के मन्दिर का ऑंगन लाल हो गया था। वह अब तक मेरी ऑंखों के सामने नाच रहा है। महानायक! क्षमा करो।

यशो -उसी हत्या का बदला चुकाने के लिए तो यशोधावल अब तक जी रहे हैं। तेरे रक्त से भूमि को रँगे बिना उसकी प्रेतात्मा कभी तृप्त न होगी। पितर प्यासे हैं, वे मुझे शाप देंगे। बन्धुगुप्त! जिस प्रकार तूने बालक कीर्तिधावल की हत्या की थी उसी प्रकार आज तुझे भी मरना होगा।

इसी बीच शशांक काँपते हुए महानायक की ओर बढ़े और घुटने टेक हाथ जोड़कर बोले “पिता...”। सारे वन को कँपाते हुए वृद्धमहानायक ने अकड़कर कहा “पुत्र! इस समय यहाँ से चले जाओ। यशोधावल इस समय पिशाच हो गया है। पुत्रहन्ता की रक्तपिपासा ने उसे उन्मत्ता कर दिया है। महासेनगुप्त के पुत्र का वचन व्यर्थ होगा। चले जाओ”। अपने को किसी प्रकार सँभालकर शशांक फिर बोले “भट्टारक! थोड़ा धर्ौय्य...”। उनकी बात पूरी भी न हो पाई थी कि यशोधावल ने बाएँ हाथ से उन्हें दूर हटा दिया और दाहिने हाथ से तलवार खींची। सम्राट दोनों हाथों से ऑंख मूँदकर वहाँ से हट गए।

घड़ी भर में सम्राट की आज्ञा से वसुमित्र और हरिगुप्त ने उस पुराने मन्दिर में जाकर देखा कि मन्दिर का ऑंगन रक्त में डूब गया है। वज्रासन बुध्ददेव की मूर्ति के सामने संघस्थविर बन्धुगुप्त का मृत शरीर पड़ा हुआ है। और रक्त लपेटे भीषण मूर्ति धारण किए महानायक उन्मत्ता॓ के समान ऑंगन में नाच रहे हैं। देखते ही दो के दोनों काँप उठे। बड़ी कठिनता से यशोधावलदेव को किसी प्रकार रथ पर बिठा कर वे प्रासाद की ओर ले गए।