शालभंजिका / सुनो बकुल / सुशोभित
सुशोभित
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शालभंजिका शब्द का अर्थ तो होता है शाल वृक्ष की टहनी तोड़ने का यत्न करती कुमारिका। किंतु वास्तव में शालभंजिकाओं पर अनेक कोणों से विचार किया जा सकता है।
सबसे पहले तो यही कि हम शाल वृक्ष की महिमा बांचें।
बृहत्काया वाले इस छतनार वृक्ष को संस्कृत में अग्निवल्लभा, अश्वकर्ण या अश्वकर्णिका कहा गया है। वनवासियों के लिए तो यह कल्पवृक्ष है, क्योंकि शाल के पत्तों से दोने बनाकर वे जीवनयापन करते हैं। चैत के महीने में शाल फूलता है और इस अवसर पर वनवासी सरहुल का पर्व मनाते हैं।
भारतीय काव्य परम्परा शालवृक्ष के वर्णनों से भरी पड़ी है। लेकिन इसे सर्वाधिक महत्व बौद्ध साहित्य में दिया गया है। कारण, बुद्ध के जन्म से पूर्व उनकी मां मायादेवी ने स्वप्न में सात योजन छाया वाले एक महान शालवृक्ष को देखा था। संतान को जन्म देने के लिए मायके जाते समय लुम्बिनी में शालवन की शोभा देखकर वे ठहर गई थीं। तभी प्रसव पीड़ा हुई और उसी स्थान पर शाल वृक्ष की टहनी पकड़े उन्होंने उस अद्वितीय बालक को जन्म दिया, जो आगे चलकर तथागत बुद्ध कहलाए। इतना ही नहीं, तथागत बुद्ध का महापरिनिर्वाण भी कुशीनारा में उपवर्त्तन नामक स्थान पर शालवन में हुआ था। यमकशाल यानी दो शाल वृक्षों के मध्य।
अगर आप कभी सांची गए हों और उसके पूर्वी तोरण पर आपको शालभंजिका का शिल्प देखकर कौतूहल हुआ हो तो उसका समाधान यह है कि बौद्ध परम्परा तथागत की माता मायादेवी को बहुधा एक शालभंजिका के रूप में ही देखती है, जिन्होंने शालवृक्ष की टहनी पहने तथागत को जन्म दिया था।
यक्षिणी शालभंजिका का वैसा ही एक शिल्प आपको भरहुत स्तूप के प्रदक्षिणा पथ में भी मिलेगा। दक्षिण में होयसल सम्राटों ने शालभंजिकाओं की बहुत प्रतिमाएं बनवाईं और ये बेलूर, हेलेबिड़ और सोमनाथपुरा के मंदिरों में यत्र-तत्र-सर्वत्र मिल जाएंगी। एलोरा और भुवनेश्वर की शालभंजिकाएं भी विख्यात हैं। खजुराहो में मैथुन-युगलों के साथ ही शालभंजिकाओं को तो ख़ैर होना ही था। रणकपुर में शालभंजिकाएं स्नाताकर्पूरमंजरी या शुचिस्मित सुदर्पणा के रूप में चित्रित हैं। स्नाताकर्पूरमंजरी क्यों? उत्तर बहुत सरल है। काव्यमीमांसा के रचनाकार राजशेखर ने चार अंकों में विद्वशालभंजिका नामक नाटक रचा है ना और प्राकृत भाषा में रचित कर्पूरमंजरी की ख्याति तो दूर-दिगंत तक प्रसारित है ही। कर्पूरमंजरी को शालभंजिका की तरह चित्रित करना रणकपुर के शिल्पियों का राजशेखर को आदरांजलि अर्पित करने का एक काव्यात्मक यत्न रहा होगा।
शालभंजिका को बहुधा वनदेवी के रूप में देखा जाता है। ठीक वैसे ही, जैसे यूनानी मिथकों में ड्रायड है, जिसे ट्री निम्फ़ कहते हैं। ट्री निम्फ़ बहुधा बलूत के पेड़ों पर पाई जाती हैं। इसी कारण शालभंजिका को वृक्षका भी कहा जाता है और शिलाबालिका भी। उसका एक अन्य नाम है मदनिका और आप समझ सकते हैं क्यों।
भारतीय शिल्पकला में शालभंजिका का वही महत्व है, जो आधुनिक छायांकन की कला में थ्री-क्वार्टर प्रोफ़ाइल का है। यानी वह छवि, जो ऑब्जेक्ट के तीन-चौथाई स्वरूप को वर्णित करे। जिस तरह से आधुनिक फ़ोटोग्राफ़रों के लिए थ्री-क्वार्टर एक स्टैंडर्ड प्रोफ़ाइल है, उसी तरह प्राचीन और अर्वाचीन शिल्पकारों के लिए शालभंजिका है। ग्रीवा और कटि पर त्रिभंग छवि। पुष्ट स्तन और नितंब। अतिरंजित और शैलीकृत स्वर्णाभूषण। वक्षों के बीच झूलती मणिमाला। एक मदनिका अभिसारिका की इससे यौनाकर्षक कोई छवि शिल्पकला में नहीं हो सकती।
वर्ष 1985 में प्रदीप कृष्ण ने जब अपनी चर्चित फ़िल्म मेसी साहब बनाई थी तो उसमें कुल जमा 24 साल की अरूंधती रॉय ने एक आदिवासी युवती की भूमिका निभाई थी। बाद में प्रदीप कृष्ण और अरूंधती रॉय ने विवाह कर लिया था। फ़िल्म में एक दृश्य है, जिसे प्रदीप कृष्ण ने तिमिरछवि यानी सिलुएट में एक लॉन्ग-शॉट के रूप में फ़िल्माया है। अरूंधती अपने पति फ्रांसिस मेसी के साथ नंगे पैर चली जा रही हैं। सिर पर गठरी है। तभी उनके पैरों में कांटा चुभ जाता है। वे सिर पर गठरी उठाए उसी मुद्रा में घूमकर पैर से कांटा निकालने का यत्न करती हैं। पृष्ठभूमि में एक बड़ा-सा दरख़्त है, सम्भवतया शालवृक्ष ही होगा।
प्रदीप कृष्ण उस फ्रेम को एक पल थामे रहते हैं। मानो प्रेक्षकों को यह अवसर प्रदान कर रहे हों कि उस बिम्ब की शालभंजिका के शिल्प से साम्य को परिलक्षित कर सकें।
सम्भव ही नहीं कि शालभंजिका के रूप-सौंदर्य वाली अरूंधती की वैसी छवि उसके बाद किसी अन्य छायाकार ने प्रस्तुत की हो।