संशय / प्रतिभा सक्सेना / पृष्ठ 2

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उस दिन काम से लौटा तो बड़ा खुश था। सीटी बजाता घर में घुसा। गुनगुनाता रहा।

चलो ठीक हो गये रमा ने सोचा। सुदीप ने ही चुप्पी तोड़ी -

‘रमा, तुमने उसे कभी अपने घर में देखा था? वही जो तुम्हें नमस्ते करता है।'

अब यह कैसी बात?

‘पिता जी के पास कॉलेज के इतने लड़के आते हैं। मैं किसे-किसे देखती फिरूँ?'

‘हूँ। ठीक है।'

‘देखो, मैंने एक बार कह दिया कि मैं उसे नहीं जानती। अब तुम नई-नई बातें मत निकालो।'

‘हाँ हाँ, तुम कैसे जानोगी उसे?'

‘यह कैसी टेढी बात? क्या मतलब है सुदीप?'

रमा को बड़ा अजीब लग रहा था।

सुदीप कहने लगा, ’तुम्हारे पिता जी का स्टूडेंट रहा है वह। दो-एक बार तुम्हारे घर गया तभी देखा था उसने तुम्हें।'

‘अच्छा !'

‘आज पता चल गया।'

‘क्या?'

‘कि वह कौन है।'

‘कैसे पता चला?'

‘मुझे मिल गया था। तुम्हारे भाई के साथ था। उसने परिचय कराया। बात-चीत होने लगी। मैने कहा बस में कई बार आपको देखा है। कौन सी बस में यह भी बताया।

उसने कहा उस बस से तो वह अक्सर जाता है।

‘मैंने कहा उस बस में मैं भी होता हूँ कभी-कभी अपनी पत्नी के साथ। पर आपको कभी मेरी ओर देखने की फ़ुर्सत कहाँ होती है?’

’पर आप कब मिले मुझे?’

फिर मैने याद दिलाई। बस की बात भी, अपनी सीट दे देने की बात।

‘फिर बताया -वही है मेरी पत्नी रमा !

‘तो आप उनके पति हैं।‘

‘पता होता रमा बहन के पति हैं तब तो ..ध्यान जाता। आपको तो आज जाना है।‘

‘अब समय आ गया है मिलने का। उसने एकदम कहा -हाँ मैं तो आनेवाला था दीदी को निमंत्रण देने।‘

‘मैंने पूछा औऱ मैं? मुझे निमंत्रण भी नहीं? ‘

फिर उसी ने बताया मुझे-

‘हाँ रमा, अगले हफ़्ते उसकी शादी है। बहन का रोल तुम्हें ही निभाना है।'

रमा बल्कुल चुप रही।

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