संशय / प्रतिभा सक्सेना / पृष्ठ 3

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रमा बड़ी चुप-सी है। सुदीप बार-बार बात निकालता है।

‘मैने तो सोच लिया था किसी तरह पता करना है कि ये है कौन। फिर मौका भी खूब लग गया। असल में कैंटीन में तुम्हारा भाई मिला था। और यह उसके साथ था।'

‘तो तुमने सबसे पहले उससे क्या पूछा?'

‘मैंने कहा मैंने कई बार आपको बस में देखा है। पहले सोचा कह दूँ मेरी बीवी से परचित हो मुझसे नहीं, पर कहा नहीं। और अच्छा हुआ जो नहीं कहा। नहीं तो वह क्या सोचता!'

‘हाँ, वह क्या सोचता उसकी इतनी चिन्ता है, और मैं क्या सोचती हूँ सका कुछ नहीं लगता तुम्हें? नहीं तो क्या मुझसे इतना कहते रहते? कभी सोचा मैं क्या समझूँगी तुम्हें?'

‘अरे, तुम्हारे समझने से क्या फ़रक पड़ता है? अब तुम्हारे साथ भी सोच-विचार कर बोलूँ? सही-गलत कुछ भी कह लूँ। पत्नी हो मेरी ! पर सुनो तो ..जब विकास ने परिचय कराया ...।'

‘तो तुमने क्या कहा?'

मैंने पूछा था, ’आप मेरी मिसेज़ को जानते है? ‘

वह बोला, ‘आपको? आप कौन हैं मैं तो यह भी नहीं जानता उन्हें कैसे जानूँगा? ‘

‘फिर मैने जब याद दिलाया - कहा मैं भी वहीं खड़ा था।

और जानती हो उसने क्या पूछा? पूछने लगा -आप रमा बहिन को जानते हैं?

कैसे नहीं जानूँगा, मुझे हँसी आ गई, मैंने कहा, अच्छी तरह जानता हूँ। पर आप कैसे? ‘

‘विकास ने बताया, ’हाँ क्यों नहीं जानेगा ! मेरे साथ प्रोफ़ेसर सा.. के यहाँ कई बार गया है।

वह बोला था -रमा बहन को जानता ही नहीं मानता भी हूँ। मुझे उनमें अपनी बहन दिखाई देती है।

‘वो भी आपको जानती होंगी? ‘

‘एकाध बार उनके घर गया था। कभी परिचय या बात की नौबत नहीं आई। वे जाने चाहे न जाने, मेरे गुरु की पुत्री हैं मेरे दोस्त की बहिन, इतना काफ़ी नहीं है क्या मेरे लिये? समय आने पर वह भी जान लेंगी।‘

‘मुझे हँसी आई, मैंने पूछ वह कैसे? आप तो बस में ही मिलते हैं? मैंने विकास से भी कहा था। किसी दिन हमारे घर पर आओ।. इनको लेकर ।'

‘अगर ये सफ़ाई तुम उससे नहीं माँगते तो क्या हो जाता?’ रमा की आवाज़ जाने कैसी हो गई थी।

'अरे, तो क्या फ़र्क पड़ गया ?'

‘फ़र्क तुम्हें नहीं पड़ता, मुझे तो पड़ता है।'

‘मैं सफ़ाई काहे को माँगता। वो तो बात पे बात निकलती गई। उसकी बहन दो साल हुये एक्साडेन्ट में मर गई। उसे लगता है वह तुम्हारे जैसी थी।'

‘तो तुम्हारा समाधान हो गया? अब तो तुम खुश हो?'

‘अरे, निश्चिंत हो गया मैं तो ! .खुशी- नाराज़गी की बात ही क्या ! जब पता नहीं हो तो मन में कितनी तरह की बातें आती है - यह तो आदमी का दिमाग़ है।'

‘हाँ, आदमी का दिमाग़ ! शक करना बहुत आसान है। प्रमाण पा कर विश्वास किया तो क्या किया?'

‘तुम तो बात का बतंगड़ बनाती हो। पता लगाने में क्या हर्ज?'

‘तुमने मुझमें कोई दुर्बलता या उसमें कोई कुत्सा देखी जो तुम्हारे मन में तमाम बातें....? ‘

‘अब ये तो मन है। दस तरह की बातें होती हैं दुनिया में। सोचने में तो आती हैं ....?'

‘तुम्हारे मन में अविश्वास था। उस पर तो था ही जिसे जानते तक नहीं, लेकिन मुझ पर भी .?'

‘अब तो सब साफ़ हो गया।'

‘जासूसी पूरी कर ली, जब कोई कारण नहीं मिला तो मजबूर हो कर ..।'

‘तो क्या हुआ? मेरा मन बहुत हल्का हो गया।'

‘पर वह बोझ मेरे मन पर आ गया। अगर मैं कहती वह मेरा प्रेमी है तो तुम मान लेते? विश्वास कर लेते कि वह मेरा यार है।'

‘यह मैं कब कह रहा हूँ। पर पिछली कई बार से जो देखता रहा चुभा करता था मुझे।'

रमा चुप है।

‘अब जब सब ठीक हो गया तो तुम बेकार तमाशा कर रही हो !'

'मैं तुमसे तो कुछ कह नहीं रही।'

‘तुम्हारे मन में गुस्सा है, कहती नहीं तो क्या हुआ।'

फिर वह रमा को समझाने लगा -

‘अरे, क्या फ़र्क पड़ता है वह तो वैसे भी अपने घर आता। उसकी शादी होनेवाली है, बहिन रही नहीं तुम्हें ही तो बुलायेगा उसने कहा है?'

सुदीप हँसने लगा, ‘उसने क्या कहा पता है -हम तो आपके बुलाने से पहले ही निमंत्रण-पत्र ले कर आनेवाले थे।'

‘सब कुछ जानने के बाद बुलाया था तुमने न?'

‘हाँ, तभी तो। पहले बुलाने की कौन सी तुक थी?'

‘संशय तुम्हें व्याकुल किये था अब तुम्हे चैन पड़ गया लेकिन मैं ....? '

‘लेकिन -वेकिन क्या? मैं खुश हूँ तो तुम भी खुश रहो। फ़ालतू बातों से क्या फ़ायदा?'

रमा बिलकुल चुप है।

समाप्त