सुबह की लाली / खंड 2 / भाग 4 / जीतेन्द्र वर्मा

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मुस्लिम युवकों की टोली इमलिया चौक पर जमी है। यहाँ चारों तरफ मुस्लिम आबादी है। कर्फ्यू हटे दो सप्ताह से अधिक हो गया पर अभी यहाँ के लोग शहर में ग्रुप बना कर दिन में ही जाते हैं।

मुस्लिम युवकों को बताया गया है कि हिंदू संस्था के एक नेता ने अपनी बेटी की शादी एक मुस्लिम युवक से इसलिए कर दी कि मुसलमानों की आबादी कम हो। एकराम को लौन्डिया ने हिंदू बना लिया है।

“हिंदू तो अपने नपुंसक होते हैं। बच्चा पैदा करने का तो हुब है नहीं।”

“और हमसे जलते हैं कि मुसलमानों की आबादी बढ़ रही है।”

“उनसे बच्चा पैदा नहीं होता तो हम भी नहीं करें।”

“कहते हैं कि कंडोम लगाते हैं।”

“कंडोम लगाने से मजा नहीं आता यार!”

“अरे शादी के पहले ही इतना अनुभवी हो गया है तू।”

हँसी का फव्वारा फूट पड़ा।

“चोप्प! हरदम मजाक अच्छा नहीं लगता। हिंदू हमें बढ़ने से रोकने के लिए साजिश रच रहे हैं।”

“अब देखो हमारे भाई को ही बहका लिया। सीधे-सीधे काम नही बना तो बेटी को ही भेज दिया।”

“इसमें कौन नई बात है! जब हमारा शासन था तो ये जागीर के लिए अपनी बेटी-बहन भेजा करते थे।”

“हारने पर विष-कन्या भेजने का इनके यहाँ पुराना रिवाज है।”

“पर सुना है कि दोनों में बहुत दिनों से लपझप चल रहा था।”

-एक ने दबे स्वर में कहा।

“चुप्प! शादी किया तो ठीक किया पर हिंदू क्यों बना।”

“पर सुना है कि हिंदू नहीं बना है।”

“अरे शादी इस्लामी तौर-तरीके से नहीं की तो क्या हुआ! हिंदू ही न हुआ!

“ये विष कन्याएँ इस्लाम को लूट लेगी।”

“मुसलमानो का यही हाल रहा तो इस्लाम मिट जाएगा।”