सूखते चिनार / घर / भाग 1 / मधु कांकरिया

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घर जैसा घर। माँ लिपट गयी सन्दीप से। कितने दिनों बाद आया बेटा घर। टी.वी. और अखबारों की ख़बरों ने उसे भी कश्मीर पोस्टिंग के ख़तरों से अनभिज्ञ नहीं रहने दिया था।

ख़ुशी से थिरक रही थी माँ, पर जैसे ही नज़र पड़ी सन्दीप की गंजी होती खोपड़ी पर, मायूस हो गयी वह। यह क्या हुआ? चेहरा भी थोड़ा साँवला पड़ गया था। उफ़! फूलों से लदी स्वस्थ और कद्दावर शाख कैसे ढूँढ बनती जा रही है। कहाँ गयी वह हँसी, वे ठहाके। वह चुलबुलापन।

उन्हें लगा जैसे इस बीच सन्दीप एकाएक बहुत बड़ा हो गया है। भीतर हूक उठी बेटे के चेहरे की गम्भीरता देख। लगा, बेटा थोड़ा और दूर चला गया है माँ से। आँखें डबडबा गयीं। पर कहा उन्होंने कुछ नहीं। कुछ भी नहीं।

जतन से बनायी एक-एक चीज़ परोसी उन्होंने सन्दीप को। बूँदी का रायता, लहसुन की चटनी, मलाई-कोफ्ते की सब्ज़ी, मटर की कचौड़ी, गट्टे के पुलाव। भरे बादलों-सा आत्मीयता से भरा-भरा घर। भूल चुके थे सन्दीप ऐसी आत्मीयता, चैन और सुकुन का स्वाद फिर महसूस हुआ, कश्मीर पोस्टिंग ने किस प्रकार छीन ली थी उनसे जीवन की स्वाभाविकता, सुख, शान्ति और सुकून। सच, जीवन यही है। न अकेले चलने का ख़ौफ़, न क्रॉस फायरिंग का डर। न चौबीसों घंटों का चौकन्नापन। न बुलेटप्रूफ जैकेट और कैप का झंझट। एक लयताल में बहता जीवन। नदी की मद्धिम धार-सा। भीतर सब कुछ शान्त। एक हिलोर तक नहीं। मुद्दतों बाद नसीब हुई थी ऐसी मनस्थिति।

दो दिनों तक निरुद्देश्य घूमता-सा रहा, उन गलियों में, रास्तों में, बागों में, बाजारों में जहाँ बचपन के जाने कितने चित्र बिखरे पड़े थे। हर शै और हर शख़्स वैसा ही नज़र आ रहा था। पर अलीपुर, पार्क स्ट्रीट और थियेटर रोड वाले इलाक़े बदल रहे थे। जगह-जगह बनते फ्लाईओवर, चौड़ी होती सड़कें। सफा होती झुग्गी-झोपड़ियाँ। उसे ताज्जुब हुआ, हाथ रिक्शेवाले ज्यों के त्यों थे। कब से सुन रहा था वह कि कोलकाता से हटा दिए जाएँगे हाथ रिक्शेवाले। फिर एक बार गया वह कोलकाता की प्रसिद्ध साइन्स सिटी। इस बीच और विस्तार हो गया था उसका। अँधेरी अंडरग्राउंड गुफ़ा में नौका से सवारी करते हुए बहुत आनन्द आया था उसे... कहीं डायनासोर तो कहीं सभ्यता के आदिम चरण में रहता आदिमानव।

एक शाम अच्छे मूड में देख फिर घेरा माँ ने सन्दीप को। बेटा, अब कुछ अपनी भी सुध ले, कुछ मेरी भी सोच। तेरे पीछे सिद्धार्थ भी बड़ा हो रहा है। उसके भी रिश्ते आ रहे हैं, पर तू हाँ करें तो उसके लिए भी देखना शुरू कर दूँ।

बात को टालते हुए कहा सन्दीप ने - माँ, कौन देगा अपनी लड़की हम फ़ौजियों को। मेरी चिन्ता छोड़ तू सिद्धार्थ की सोच।

माँ के सीने पर जैसे किसी ने मुक्का मार दिया। ऐसा क्यों कहा इसने? कितना नाज़ है उसे अपने इस बेटे पर। माना सिद्धार्थ की मोटी तनख़्वाह और रुतबे के सामने कहीं नहीं टिकता सन्दीप, पर पता नहीं क्यों उसे हमेशा लगता है कि उसका असली अंश सन्दीप है, सिद्धार्थ पर ज़माने और रुतबा का रंग ख़ूब गाढ़ा चढ़ चुका है, जबकि सन्दीप आज भी वैसा ही है, खाँटी -सोना, चौबीस कैरेट सोना। भीतर बाहर एक जैसा

पास ही बैठे शेखर बाबू दिन भर का रोकड़ा मिला रहे थे। सन्दीप की बात सुनी तो लगा मौक़ा हाथ लग गया है, झट से उसे लपकते हुए कहने लगे - जब तू ख़ुद समझता है कि फ़ौज की नौकरीवालों को लड़कियाँ आसानी से नहीं मिलती है तो भी किस सुख से चिपका हुआ है तू फ़ौज से। गिनी-चुनी तनख़्वाह। न ढंग का जीवन। न ढंग की सुख-सुविधा। देख, सिद्धार्थ को, दिन भर उड़ता रहता है, पाँव ही नहीं पड़ते ज़मीन पर। दोनों हाथों लड्डू हैं। सन्दीप ने कहना चाहा - पापा, ईश्वर साफ़ हाथों को देखता है, भरे हुए हाथों को नहीं, पर चुप मार गया। शेखर बाबू कहीं यह न समझ लें कि सिद्धार्थ की बढ़ोत्तरी उसे सुहाती नहीं।

उसे चुप देख शेखर बाबू का हौसला फिर बुलन्द हुआ। कहना जारी रखा, बारह वर्ष हो गए फ़ौज में गये। अठारह साल का गया था, बत्तीस का हो गया, अब तो मन की भी निकल गयी। क्यों नहीं निकल जाता फ़ौज से। आख़िर इतने वर्षों की चाकरी के बाद भी क्या दे रही है फ़ौज - ख़ून, हिंसा, हर पल का तनाव, ख़ौफ़ और दहशत। बोलते-बोलते खाँसी का इतना जबरदस्त दौरा पड़ा उन्हें कि आगे की बात उसी में गुम हो गयी।

संजीदा सन्दीप। ध्यान से देखा पिता को एक बार फिर। पिछले कई वर्षों में पिता पर उम्र का असर साफ़ दिखाई देने लगा था। पिता की पहले वाली कड़क जाने कहाँ बिला गयी थी। बढ़े चश्मे के पॉवर, तेज़ी से सफ़ेद होते बाल, हाथों की फूलती नसों और हाँफते दम के चलते वे किसी ध्वस्त खँडहर की तरह नज़र आ रहे थे। पिता को फिर समझाने की कोशिश की सन्दीप ने - अपने-अपने सोचने का ढंग है पापा। फ़ौज के चलते ही मैं जीवन को उसके पूरे विस्तार और विभिन्न आयामों में देख पाया हूँ। कश्मीर पोस्टिंग के दौरान मैंने जाना कि हिन्दुस्तानी होना क्या होता है तो राँची पोस्टिंग के दौरान मैंने जाना कि एक मैदानी के लिए आदिवासी होना क्या होता है। कि किन हालातों में वे गन उठाते हैं और बनते हैं माओवादी। पापा, मैं विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि पृथ्वी से आप भूख मिटा दीजिए, सबको उनके हिस्से के श्रम का प्रतिफल दे दीजिए, तो न कश्मीर में आतंकवाद पनपेगा और न झाड़खंड, उड़िसा और आन्ध्र प्रदेश में माओवाद। मऊ में मेरा समन्दर एक आदिवासी था लालदेव असुर। मैंने पूछा, उससे तू आर्मी में क्यों आया। उसने कहा कि मैं आर्मी में इसलिए आया कि अपने गाँव के हरेक घर से हरेक युवक को सेना में भरती करवा सकूँ। मैंने पूछा - क्यों? जानते हैं उसने क्या जवाब दिया? उसने कहा, इसलिए कि हम अपनी शक्ति बढ़ा सकें और अपने जल और जंगल वापस पा सकें क्योंकि आज हमारे ही जंगल में हम ही पेड़ की जड़ें चूसकर और पत्तों को उबाल कर खा रहे हैं। हमारा ही घड़ा और हम ही प्यासे। सोचिए पापा, कितनी बड़ी बात कह डाली उसने। सोचिए पापा, कितना अल्युमिनियम और बॉक्साइट उस धरती के नीचे से निकलता है, जिसकी रखवाली वे आदिम काल से कर रहे हैं। पर उनके घरों में हैं मिट्टी के बर्तन। इतना अभाव, इतना हाहाकार है वहाँ।

पापा, आप कल्पना भी नहीं कर सकते हैं कि किन हालात में वे आगे बढ़ते हैं। मेरा दोस्त स्कूल में छुट्टियों में भी अपने घर नहीं जाता था। इस डर से कि कहीं खुले दरवाज़ों से आकर गाय उसकी किताबें और कॉपियाँ न खा जाए। उसके लिए दाल और सब्ज़ी भी विलासिता थी। अपने गाँव में वह सिर्फ़ साग के उबले पत्तों के साथ भात खाया करता था। मऊ आने से पूर्व तक उसने कोई मन्दिर तक नहीं देखा था। मिठाई तक नहीं चखी थी। दही तक नहीं खाया था। हाँ, चाय ज़रूर छह सात महीने में एकाध बार पी लेता था।

आप सोच सकते हैं पापा कि मऊ आने से पहले न वह साबुन से नहाता था और न टूथ-पेस्ट करता था। और तो और, पापा, लालदेव जब सुन्दरी गाँव में था तो उसके गाँव में बत्ती तक नहीं थी। उसके लिए सूर्यास्त का मतलब था, रात। यहाँ मथुरा में आकर उसने बत्ती देखी। बत्ती देखते ही उसे नींद आने लगती थी। एक बार मैंने शाम पड़ते ही बत्ती जला दी तो वह सोने चला गया। ऐसा था वह। इतने नारकीय जीवन के बावज़ूद भी जब उसकी माँ ने सुना कि वह सेना में भर्ती होने जा रहा है, तो वह रोने लगी। उसकी माँ ने अपने गाँव सुन्दरी के अलावा सिर्फ़ पाकिस्तान और विलायत का नाम सुना था। वह समझी कि उसका बेटा पाकिस्तान चला जाएगा। उसकी माँ ने उसको रोकने के लिए कई जादू-टोने चलाए। ओझा-गुनी को बुलवाकर जादू-टोना करवाया और उसके लिए अपने सारी संचित पूँजी, जो भी थी उसके पास, बर्तन-भांडे और धान वगैरह, सब उसे दे डाले। अतीत में डूबा सन्दीप संजीदा हो कहने लगा - पापा, लालदेव के काका को कोई बिचौलिया भट्टी से ईंट निकालने के काम के लिए भूटान ले गया था गाँव के कई दूसरे आदिवासियों के साथ। उसके काका आने के बाद भी नहीं बता पाए कि वे कितने साल रहे वहाँ और कितना वेतन उन्हें मिलता रहा वहाँ। जो कुछ भी एक मुश्त राशि बिचौलिया दे देता वे ख़ुश होकर ले लेते। राँची पोस्टिंग के दौरान मैंने आदिवासियों की जो अँधेरी दुनिया देखी, बिना आँखों से देखे उस पर विश्वास करना नामुमकिन था। मानव द्वारा मानव के शोषण और जीवन के अन्तहीन संघर्ष को मैंने वहीं समझा। आर्मी में आने से पहले लालदेव जब लकड़ी बेचने के लिए बिशुनपुर या बनाली जाता तो होटल वाला औने-पौने दाम में सारी लकड़ियाँ ले लेता और आते वक़्त उसे चाय पिला देता। वह ख़ुश हो जाता।

उत्साहित हो हो कहने लगा सन्दीप, “पापा, लालदेव तो हर दिन कहता है कि मेरे मनुष्य होने की शुरुआत ही फ़ौज से हुई।”

“और तुम क्या कहते हो?" व्यंग्य से पिनपिनाए शेखर बाबू।

शेखर बाबू के व्यंग्य को नज़रअन्दाज करते हुए अपनी रौ में बहते सन्दीप कहने लगा, “पापा, फ़ौज में नहीं जाता तो मैं भी शायद ही समझ पाता मनुष्य और ज़िन्दगी को। जीवन और संघर्ष की रिश्तेदारी को। मेरी सामाजिक चेतना का बपतिस्मा वहीं हुआ, पापा। लालदेव के जरिये पहली बार मैंने झाँका आदिवासी की दुनिया में। हमारी मैदानी सभ्यता से कितनी अलग कठोर और संघर्षपूर्ण है उनकी पहाड़ी सभ्यता, जहाँ एक घड़े मीठे पानी के लिए उसकी माँ को हर दिन नीचे उतरकर पाँच-छह कोस पैदल चलना पड़ता है। पापा, लालदेव से मिलकर मैंने क़सम खायी कि मैं आइन्दा से जल की एक बूँद भी नष्ट नहीं करूँगा। पहले नहाने से पहले मैं नल को खुला छोड़, बाल्टी लगा कर चला जाता था। जाने कितना पानी बह जाता था। फिर काम सलटा कर मैं आता, नल बन्द करता और फिर नहाता। पहाड़ों पर मैंने देखा, वहाँ बिना ज़रूरत लोग हाथ भी नहीं धोते हैं कि पानी बर्बाद होगा। पापा, हम लोग सोचते हैं कि वे असभ्य हें, जाहिल हैं, गँवार हैं, सभ्यता से कोसों दूर हैं। पर सचाई ये है पापा कि वहीं रहकर हमने जाना कि गाँव कमाता और शहर खाता है कि हम उनके कितने ऋणी हैं। मैं नहीं जानता था कि देश के स्वाधीनता संग्राम की लौ भी सबसे पहले उन्हीं इलाकों में जली थी। एक दिन लालदेव कपड़े सुखाते हुए एक गाना गा रहा था,

'हो हरि गाँधी बाबा, हरे गुलितेम रू लेना।

सिन्धु कान्धु , बुद्धु जतरा, बिरसा भगवान, शहीद लेना गाँधी बाबा।

हरे गुलितेम रू लेना गाँधी बाबा।

इतने मीठे स्वर में और इतनी तड़प के साथ गा रहा था वह कि मैं अपने काम में मन नहीं लगा सका। अपनी पूरी चेतना के साथ मैं सुनने लगा उसके गाने को। मन्त्रमुग्ध हो मैंने पूछा, इस गाने का मतलब क्या है? इसका मतलब सुन मैं चौंक गया। इस गाने का मतलब था कि जंगलों में रहनेवाला एक आदिवासी गांधी बाबा से अनुरोध कर रहा है कि आपकी शहादत के पूर्व भी इस इलाक़े में कई शूरवीर, सिन्धु कान्हू, बुद्धू, जतरा और बिरसा मुंडा आदि शहीद हो चुके हैं, तो हे गाँधी बाबा, उनकी शहादत को भी याद कर तुम कभी रो लेना। पापा, इस गीत की कड़ी ने जैसे मेरी चेतना को जगा दिया और फिर मैं डूब गया यहाँ के इतिहास में और पहली बार मैंने जाना कि इतिहास भी कितना अन्याय करता है कि गांधी की शहादत के पूर्व भी इस देश में सिन्धु, कांहा जतरा और बिरसा जैसे आकाशदीप जन्म ले चुके हैं जिनके साथ इतिहास ने न्याय नहीं किया। पापा, फिर तो अलीबाबा के दबे खजाने की तरह मैं लग गया उस खँडहर में दबे जनजातियों के इतिहास और उनकी सांस्कृतिक विरासत को जानने में। ताज्जुब पापा, मैंने जाना कि सभ्यता की विकास यात्रा के शुरुआती बिन्दु ये ही इलाक़े थे जो आज सबसे अधिक अँधेरे में हैं। कैसे हुआ यह कायाकल्प? कैसे बही उलटी-गंगा? जहाँ सबसे अधिक जगमगाहट होनी चाहिए थी, वहीं इतना सघन अँधेरा?

सन्दीप की बातों ने फिर विचलित कर दिया शेखर बाबू को। जब-जब वे उससे लम्बा और सार्थक संवाद करते, उन्हें लगता उसके व्यक्तित्व की नयी परत खुल रही है। अपने इस पुत्र को आज तक समझ नहीं पाये थे वे। माना आदिवासियों के साथ अन्याय हुआ, माना एक उच्च और समृद्ध विरासत एवं संस्कृति के उत्तराधिकारी हैं वे। पर इससे उन्हें क्या? सन्दीप को क्या? दुनिया में हर कहीं अँधेरा बिखरा हुआ है। कहाँ-कहाँ दीप जलाएगा वह? जला भी पाएगा? तीस का हो गया, सिर पर टाँक निकल आयी है, शादी का बाज़ार दिन पर दिन गिर रहा है, पर इसकी कोई चिन्ता नहीं इसे, यह भी नहीं सोचता कि इसके पीछे सिद्धार्थ भी अटका हुआ है। इस उम्र में उनके दोनों लड़के स्कूल जाने लगे थे। क्या करें? कैसे घेरे इसको? देखते-देखते छुट्टियाँ निकल जाएगी और कोई सार्थक संवाद तक नहीं बन पाएगा।

रात।

खाने की टेबल सबसे सही जगह होती है, आत्मीय संवाद के लिए। विवादास्पद संवाद के लिए भी। उस चमकीली शाम भी माहौल ख़ुशनुमा था। अगरबत्ती की सुगन्ध-सा गमकता हुआ। सच्चा सुख परिवार से... कुछ ऐसा ही सोच रहा था सन्दीप कि पूरी तैयारी के साथ घेरा शेखर बाबू ने सन्दीप को।

“जयपुर वालों का कई बार फोन आ चुका है, कब चलना है?”

सन्दीप भौंचक्क। पापा को भी बैठे ठाले जाने किन-किन की याद आने लगती है। वह बौखलाया।

“कौन जयपुर वाले?”

“अरे वे ही बसन्त बाबू। उन्हीं की लड़की है, नीलिमा। सुन्दर है। बी.ए. तक पढ़ी हुई है। सब बातें हो गयी हैं, बस तुम एक बार मिल लो उससे। यह रही तस्वीर उसकी।”

तस्वीर शब्द में ही जाने क्या आकर्षण छिपा था कि शादी के विरुद्ध होते हुए भी तस्वीर देखने से स्वयं को रोक नहीं सका सन्दीप।

टेढ़ी कानी आँखों से देखी तस्वीर तो लगा जयपुर की किसी गौरी को नहीं, वरन किसी सिने तारिका या किसी कास्मेटिक की मॉडल को देख रहा है। ताजा खिला सूरजमुखी-सा चेहरा, धुले रेशम-से बाल, चॉकलेटी होंठ। ऊपर टॉप। चेहरे का पूरा क्लोज़अप बेहद आकर्षक। खयालों में घूम गया, कैप्टन अनुज। ऑपरेशन शौर्य में जाने से पहले जिसने अपनी मँगनी की अँगूठी कर्नल सक्सेना के पास रखवा दी थी - मैं नहीं चाहता कि इस पाक अँगूठी पर ख़ून के धब्बे पड़े। अँगूठी धरी रह गयी, पर वह नहीं लौटा। बाट जोहती रह गयी, मँगेतर। क्या वह भी ऐसी ही कोई अँगूठी छोड़कर चला जाए उस पार। नहीं, जहाँ हर दिन, हर पल मौत से भिड़न्त हो, जहाँ बचा रह जाना महज़ एक संयोग हो, वहाँ शादी के लिए सोचना भी बेमानी है।

“कैसी लगी तस्वीर? माँ ने देखा, बेटा बड़े गौर से तस्वीर देख रहा है तो हुलस-हुलस कर पूछने लगी।”

सन्दीप ने तस्वीर को आहिस्ता से परे सरकाया और माँ को देखने लगा, ग़ौर से। कितनी बदल गयी थी माँ इन दिनों! आधे से अधिक बाल सफ़ेद हो गये थे। सामने के दो-दो दाँत गिर गये थे, जिन्हें माँ ने अभी तक बँधवाया भी नहीं था। क्या खाने में तकलीफ़ नहीं होती होगी माँ को? हाँ, नहीं बदली थी तो माँ के चौड़े ललाट पर दमकती लाल बिन्दी। आज भी उतनी ही सुर्ख, उतनी ही बड़ी। भीतर फिर ग्लानि की लहर उठी - दो-दो बेटे अफ़सर, पर किसी को इतनी भी फ़िक्र नहीं कि माँ के आगे के दाँत बँधवा दे। लाड़ से पगी आवाज़ में कहा उसने, चलो माँ, आज जाकर पहले तुम्हारे दाँत बँधवा लेते हैं। बेटे की शादी में ऐसे मुँह से कैसे जाओगी? माँ निहाल। बनावटी रोष से बोली, “बात मत टालो, हाँ तो बोल दूँ उनको कि हम आ रहे हैं।”

“क्या?” माँ के अति उत्साह ने गम्भीर कर दिया सन्दीप को। धीमे से कहा उसने, “देखो माँ, तुम्हारी अधीरता-व्याकुलता समझ सकता हूँ मैं, पर तू भी मुझे समझने की कोशिश कर। अभी मैं ख़ुद अपनी ज़िन्दगी से बाहर हूँ, ऐसे में किसी को अपनी ज़िन्दगी में शामिल करने की सोच भी कैसे सकता हूँ। कश्मीर पोस्टिंग तक शादी का सवाल ही नहीं उठता।”

“बेटा, साल भर निकल गया, देखते-देखते डेढ़ साल और निकल जाएगा, फिर तो अगले छह वर्षों तक पीस पोस्टिंग ही होनी है, बस सगाई करके रख लेते हैं, तू नहीं चाहता तो शादी डेढ़ साल बाद कर ली जाएगी। वसन्तू बाबू तो यही चाहते हैं कि बात पक्की कर ली जाए। फिर यह तो सोच कि तेरे पीछे सिद्धार्थ भी अटक रहा है।”

सन्दीप को फिर मौक़ा मिल गया। माँ को समझाते हुए बोला, “माँ, मेरी मानो तो तुम पहले सिद्धार्थ की कर दो। मैं बाद में इत्मीनान से कर लूँगा।”

यद्यपि सन्दीप ने अपनी बातें, अपना तर्क बड़े साधारण और सामान्य ढंग से ही रखा था, पर इसमें इतना ज़बरदस्त और इतना नकारात्मक भाव छिपा था कि माँ को लगा जैसे घर की छत आकर उस पर गिर गयी है। कैसा है यह लड़का! समझता क्यों नहीं कि यह आर्मी नहीं कि उम्र बढ़ने के साथ प्रमोशन और रुतबा बढ़ता जाए। यह शादी का बाज़ार है जहाँ एक उम्र के बाद हर आनेवाले दिन घटता जाता है बाज़ार भाव। कैसे समझाये बेटे को। कल जब नहाकर निकला था बेटा तो पीछे निकली गंज को देख कलेजा मुँह को आ गया था उसका। कहीं झड़ते बाल लूट न ले मज़ा ज़िन्दगी का। उसे तो यह भी आशंका कि कहीं बसन्त बाबू की बेटी मना न कर दे उसे। एक तो फ़ौजी फिर थोड़ी बढ़ी उम्र और उस पर तेज़ी से झड़ते बाल। हे भगवान, जाने क्या-क्या देखना लिखा है उसके भाग्य में। उसकी उम्र की कभी की दादी बन चुकी हैं और उसका घोंसला अभी तक ख़ाली है। अपनी जेठानी की बहू से सुन रखा था उसने कि पच्चीस-छब्बीस की उम्र के बाद डिलीवरी में बड़ी समस्याएँ आती हैं। पहली डिलीवरी छब्बीस-सत्ताईस तक अवश्य हो जानी चाहिए। पर कैसे समझाए वह बेटे को कि वह सिर्फ़ शादी को लेकर ही चिन्तित नहीं है। शादी तो महज़ एक दरवाज़ा है, आगे के संसार में प्रवेश करने के लिए।

माँ की आँखों में फिर अँधेरा उग आया। कैसे पार पाए इस समस्या से। सन्दीप के भीतर भी कील ठुकने लगी, कैसे समझाए माँ को।

सब अपने-अपने द्वीप में तैरने लगे। पागल जिप्सी की तरह भटकता मन फिर अतीत में डूबने लगा।

आसमान में तैरते बादलों की तरह जाने किससे सुनी एक घटना सन्दीप के दिमाग़ में तैरने लगी। आज भी याद है वह आवेग, वह थरथराहट, वह कंपन, वे उच्छ्वास, वह दुख जो उसने उस घटना को सुनते वक़्त महसूस किया था और तब एक बार फिर उसने जाना कि तमाम उपलब्धियों और प्रगतियों के बावजूद अन्ततः मनुष्य क्या है और कितना कठिन है, मनुष्य बने रहना।

घटना इस प्रकार थी।

दो पक्के दोस्त थे। बचपन के साथी। दोनों की दोस्ती उतनी ही वास्तविक थी जितनी समुद्र की हवाएँ और लहरों के थपेड़े। दोनों ही एक ही गाँव के। एक फ़ौजी बना तो दूसरा भी उसी के नक्शे क़दम पर। पहले दोस्त लांसनायक राजेन्द्र नेगी की एकाएक शादी तय हो गयी। जब-जब वह मिलता अपने दोस्त सुमन केसरी से, अपने वैवाहिक जीवन के अनुभवों को उसे चटकारे ले लेकर सुनाता। पहले स्पर्श के अनुभव, सुहाग सेज के तूफ़ानी अनुभव। स्त्री-संसर्ग का अद्भुत सुख। राजेन्द्र चाहता था कि सुमन भी फटाफट शादी कर ले जिससे उनकी दोस्ती का रंग उनकी पत्नियों तक फैल जाए। उसने सुमन के लिए इधर-उधर कई जगह रिश्तों की बात भी चलाई कि तभी हिन्दुस्तान-पाकिस्तान का युद्ध छिड़ गया। दोनों को एकाएक राजस्थान बोर्डर पर जाने का ऑर्डर मिला। पोस्टिंग पर जाने के ठीक एक दिन पहले सुमन ने अपने दिल का गूढ़ रहस्य अपने परम मित्र राजेन्द्र के सामने खोला। “दोस्त, मैं नहीं जानता कि इस युद्ध से मैं जीवित लौट पाऊँगा या नहीं, पर जाने से पूर्व अपना एक राज मैं तुम्हें बता देना चाहता हूँ और वह राज यह है कि मेरे भीतर लपटें उठ रही हैं। बेहद जतन और तीव्रता से पाली इच्छा के एक टुकड़े को पूरा कर लेना चाहता हूँ मैं। मैं एक बार ज़िन्दगी के उस विरल, अद्भुत और परम शक्तिशाली अनुभव से गुज़र जाना चाहता हूँ, जिसका शब्दिक आस्वादन हर दिन कराते रहे हो तुम मुझे। दोस्त, तुम्हीं ने मुझे कहा था कि युवा स्त्री की देह देह नहीं, बिजली होती है, बारूद से भरी बोरी होती है, छूओ तो करंट मारती है। तो मेरे परम मित्र, देश के लिए शहीद होने के पूर्व मैं अपनी इस आख़िरी इच्छा का क्या करूँ, तुम्हीं बताओ! कहाँ जाऊँ? कहाँ डुबोऊँ। कामना की इस ज्वाला को। नारी संसर्ग की इस चाह को?”

जैसे बिजली गिर गयी हो दोस्त पर। काटो तो ख़ून नहीं। अनजाने ही कैसी भयानक भूल कर बैठा वह। आजतक अपना सबकुछ उसने अपने दोस्त के साथ शेयर किया था, पर क्या पत्नी भी? उफ़! पाकिस्तान के साथ युद्ध से भी भयंकर है यह युद्ध अपने आप से। क्या करे वह? कैसे करे युद्ध में जाने के पूर्व अपने दोस्त की इस आख़िरी इच्छा की पूर्ति? क्या कर दे पत्नी उसके हवाले? शायद विधाता भी मुँह छिपा रहे होंगे इन सवालों के जवाब देते हुए। क्या दुनिया का कोई मन्दिर, मस्जिद और गिरजाघर जवाब दे सकता है कि वह मौत के मुँह में जानेवाले अपने दोस्त की यह तीव्र इच्छा कैसे पूरी करे? जवाब दें वे इस सवाल का? और यदि वे जवाब नहीं दे सकते तो क्यों उठाते हैं सवाल नैतिकता और अनैतिकता के?

पहली बार दिमाग़ में एक प्रश्न कीड़े की तरह कुलबुलाया था सन्दीप के भीतर - जीवन बड़ा या नैतिकता? अस्तित्व बड़ा कि व्यक्तित्व? और सन्दीप को लग रहा है कि आज तक भी वह इन्हीं प्रश्नों से जूझ रहा है।

एक गहरी उच्छवास उसके भीतर से निकली - ओह गॉड! ओह लाइफ़! और आँखे मूँद अपने ही भीतर के समुद्र में जाने कब तक तैरता रहा था वह।

माँ ने फिर कुरेदा, "देखो बेटा, इस लड़की को मत ठुकराओ।" फिर जैसे हृदय की सारी वेदना उँड़ेलते हुए कहा उससे - "अब बड़ी लड़कियाँ मिलनी भी बन्द हो गयी हैं। चौबीस-पचीस तक आते-आते सब ठिकाने लग जाती हैं।”

“उफ़! अब बस भी करो। झल्ला गया वह माँ पर, इतने ज़ोर से भरपूर हाथ से मारा उसने खाने की टेबिल पर कि माँ सहम गयी। माँ के शब्द खंजर की तरह गड़ते रहे देर रात तक। बाद में बहुत रात तक ख़ुद से ही पूछता रहा था वह कि वह झल्लाया किस पर था, माँ पर कि ख़ुद पर कि ख़ुद की इस अनिश्चित जीवन शैली पर।”

उसे लगा कि कश्मीर पोस्टिंग बड़ी सूक्ष्मता से मार रही है उसे, उसके व्यक्तित्व को, उसके स्वभाव को।

रात!