सूखते चिनार / सिद्धार्थ / भाग 1 / मधु कांकरिया

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रात अर्दली खाना लाया तो फिर पूछा उसने, "क्या मिलिटेंट के साथ कहीं कोई मुठभेड़ हुई है, क्या कोई ऑपरेशन चल रहा है? अर्दली ने गम्भीर हो बताया, सर जी, यहाँ तो चौबीसों घंटे ही यह सब होता रहता है। अगले सप्ताह से अमरनाथ की यात्रा शुरू होने वाली है। इस कारण इस सप्ताह वारदातों की और बाहर से आनेवाले मिलिटेंटों की संख्या बढ़ रही है। हर दिन ख़बर आ रही है। आतंकी कहीं नीचे उतर वारदात करने की तैयारी में हैं तो कहीं सीमा पार से विदेशी आतंकियों के घुसने की ख़बर आ रही है। ये नये सी.ओ. साहब बहुत ज़्यादा कर्मठ हैं, न ख़ुद चैन से बैठते हैं न औरों को बैठने देते हैं। जाने कितने ख़बरिया घुसा रखे हैं, गाँव-गाँव में। आधी से ज़्यादा ख़बरें तो झूठी निकलती हैं, पर इन्हीं ख़बरों में से एकाध ख़बर सच्ची भी निकल आती है, इतनी ज़बरदस्त कि ऑपरेशन लम्बा खिंचता जाता है। नहीं सर जी, एक बार ऑपरेशन चालू हो गया तो फिर कोई भी नहीं निकल सकता। फिर तो मरकर या मारकर ही बाहर निकला जा सकता है। मन में फिर हूक उठी, कहाँ फँस गया भाई। लगा जैसे किसी अज्ञात भय ने गर्दन मरोड़ कर रख दी है उसकी। कहीं ऑपरेशन लम्बा खिंच गया तो? क्या दुबारा देख पाऊँगा भाई को? अकेला बन्द कमरा। ठंडा रेंगता अँधेरा। सांय-सांय करता सन्नाटा। और डरावनी ख़बरें। कश्मीर इतना भयानक हो सकता है, सोचा भी नहीं था उसने।

पल-पल मिलाता रहा वह फोन। कभी लैंड लाइन तो कभी मोबाइल। सब बन्द। ज़रूर कहीं भयानक एनकाउंटर चल रहा है। इसीलिए सारे संचार सूत्रों को बन्द कर दिया गया है। नहीं, अब तो सन्देह भी नहीं रहा। फिर मिलाया फोन उसने कंट्रोल रूम में। जय हो क़िस्मत! मिल गयी लाइन। पता चला मेज़र सन्दीप वापस आ गये हैं। कब आएँगे बूशन कैम्प में? नहीं बता सकते, थोड़ी देर बाद फिर फोन कर लें, पूछकर बता दिया जाएगा। आपको।

फिर मिलाया उसने मोबाइल। मिल गया। बस सुबह आठ बजे तक पहुँच रहा हूँ। अभी आर्मी की जीप नहीं निकल सकती नहीं तो तुरन्त आ जाता।

हे प्रभु... उसके हाथ फिर जुड़े। लगा छाती पर घटी कोई भारी भरकम चट्टान हट गयी है।

बुशन कैम्प लौटा सन्दीप तो आकुल-व्याकुल सिद्धार्थ लिपट गया उससे। भाई, तुमने तो जान ही निकाल दी मेरी। मैं नहीं जानता था। इतना ख़तरा है?

हँस दिया सन्दीप, एक उदास हँसी - ख़तरा कहाँ नहीं है, भाई। कहीं बाहर तो कहीं भीतर। अच्छा पहले यह बता, तूने जाना क्यों स्थगित कर दिया... ओह, सोचा होगा कि भाई मिलेगा या नहीं?

“भाई, कितने कठोर हो गये हो तुम।” सिद्धार्थ का गला भर आया था।

“क्या करूँ आजकल ख़बरें ही कुछ ऐसी मिल रही हैं कि मेरी मानकिसता बदल रही है। ज़िन्दगी पर, मैं अपनी राय बदलने को बाध्य हूँ।”

“ऐसी कौन-सी ख़बर मिल गयी है तुम्हें?”

“पहले खाते-पीते हैं, फिर बात करेंगे।”

सन्दीप ने इंटरकोम पर ही अपने आने की सूचना दी, अपने अर्दली को और चाय-नाश्ता लाने को कहा।

कहवा की गरम-गरम चुस्कियों के बीच फिर बात छेड़ी सिद्धार्थ ने। सन्दीप ने फिर टालना चाहा पर जो घटना घटी थी पिछले दिनों, वह घाटियों की धुन्ध की तरह छायी हुई थी, उसके दिलो-दिमाग़ पर और उसके कुछ सूत्र सिद्धार्थ से भी जुड़े थे, इसलिए वह चाहता था कि सिद्धार्थ भी जान ले उस घटना को।

सैंडविच को कुतरते हुए कहा उसने, “तू जानता है मेरे दोस्त अभिषेक को?”

“हाँ-हाँ, वही जिसने तेरे साथ ही स्कूल फाइनल किया था, क्या हुआ उसे?”

“उसे कुछ नहीं हुआ पर उसके छोटे भाई ने आत्महत्या कर ली।”

“अरे क्यों, वह तो बड़ा ब्रिलिएंट था, आई.आई.टी., कानपुर में था।”

इतने होनहार लड़के से आत्महत्या का सम्बन्ध जोड़ नहीं पा रहा था सिद्धार्थ।

“हाँ तो मैंने कहा था न तुम्हें कि ख़तरा कहाँ नहीं है। कहीं बाहरी तो कहीं भीतरी। अब ....वह तो आर.आर. पोस्टिंग में नहीं था, सबसे सुरक्षित जगह में था, कानपुर के आई.आई.टी. कैम्पस में पर अपना ही उत्पाती मन शत्रु बन बैठा, कर ली ख़ुदकुशी।”

“कुछ तो कारण ज़रूर रहा होगा। कोई प्रेम-व्रेम का चक्कर तो नहीं था।”

“नहीं यार, कारण तो नो डाउट था। क्रीमी लेयर था, सफलता का अभ्यस्त। इस कारण जीवन में पहली बार मिली असफलता के झटके को झेल नहीं पाया।”

रूमाल से मुँह पोंछते हुए बात ज़ारी रखी सन्दीप ने। “कई बार भाई, मुझे लगता है कि आज के जीवन का जो पैटर्न है, कहीं गहरी गड़बड़ी उसी में है। आज लोग अतिरेक में जीते हैं। जीवन को युद्ध की तरह लेते हैं। पूरा दम लगा देते हैं, सफलता हासिल करने में, कैरियर बनाने में। अब देखो, जीवन में न कोई महापुरुष का आदर्श है, न प्रकृति है, न परिन्दे हैं, न संगीत है न खेलकूद है, न समाज सेवा है। बस ले देकर एक ही खिड़की है, कैरियर की। वह बन्द हुई कि ज़िन्दगी की गर्दन ही मरोड़ दी।”

सिद्धार्थ मरा जा रहा था, यह जानने को कि क्या हुआ था अभिषेक के भाई के साथ। भाई की बात को बीच में ही काटकर झल्लाया वह। “भाई, अब दर्शन मत बघारो। मुझे बताओ क्यों की अनूप ने ख़ुदकुशी? सन्दीप को लगा, यही अवसर है कि वह समझाए सिद्धार्थ को क्या है जीवन, क्या हैं जीवन के अर्थ और क्यों ज़रूरी है कि इसे हर हालत में स्वीकार किया जाए, इसलिए उसे समझाते हुए कहने लगा वह।

“धैर्य रखो, भाई। मैं दर्शन नहीं बघार रहा, शायद तुमको समझाते-समझाते मैं स्वयं को भी समझा रहा हूँ कि क्यों व्यक्ति जीवन से इतना हताश हो जाए कि टुच्ची सफलता की ख़ातिर जीवन जैसी विराट और दुर्लभ नियामत को ही ख़त्म कर डाले। अब तुम यहीं देखो कि अनूप के अन्दर यदि जीवन की जड़ें गहरी होती तो क्या महज़ परीक्षा की असफलता उसे जीने के प्रति अविश्वास से भर देती? अरे भाई, वह तो अन्तिम वर्ष में था, वह सिर्फ़ एक विषय में अटक गया था। पिछले दो-तीन सिमेस्टर से वह उसी विषय में बराबर अटक रहा था। उसे पूरी उम्मीद थी कि उसे डिग्री मिल ही जाएगी, इसलिए उसने घरवालों को भी कुछ नहीं बताया। बल्कि घरवालों को आमन्त्रित भी कर डाला कन्वोकेशन में आने के लिए। उत्साहित उमंगित घरवाले आये। दिन भर वह उनके साथ रहा। शाम को सबको रेस्तराँ ले गया। उनसे कहा, आप थोड़ी देर प्रतीक्षा करें, मैं आता हूँ। घंटे-दो घंटे तक जब वह नहीं आया तो घरवाले उसके हॉस्टल भागे। वहाँ जब पहुँचे तो देखा वह झूल रहा था पंखे से। टेबिल पर था एक सुसाइड नोट जिस पर लिखे थे सिर्फ़ चार शब्द, 'आपका अयोग्य पुत्र, माफ़ी।' तो भाई, मेरा तो सिर्फ़ यही कहना है कि जीवन सफलता-असफलता से बहुत ऊपर की चीज़ है। उसे योगी की-सी निस्संगता से स्वीकार करना चाहिए। ख़ुद जब मैं नया-नया आया था आर्मी में तो यहाँ की कठोर दिनचर्या और ज़बरदस्त अनुशासन से घबराकर अकसर भाग जाने की सोचता पर तभी भीतर से एक आवाज़ आती कि मैं एक सैनिक हूँ और सैनिक कभी पीठ नहीं दिखाता, बस यही आवाज़ मुझे सम्बल देती रहती और मैं डटा रहता। उन दिनों मैंने अपनी टेबिल पर अब्राहिम लिंकन की तस्वीर चिपका रखी थी, जिसका इतिहास ही असफलताओं का इतिहास था। सत्त्तरह बार वह चुनाव हारा था, अठाहरवीं बार वह जीता... पर उसने आत्महत्या नहीं की। क्योंकि वह जीवन जीता था, सफलता नहीं।

लयताल में बहते दोनों भाई जमकर जीवन-जगत की, घर-परिवार की भावी योजनाओं की बातों में मशगूल थे कि फिर सुनाई देने लगी उन्हें अर्दली के आत्मालाप की आवाज़ें। दो दिनों तक अर्दली के साथ रहते-रहते सिद्धार्थ थोड़ा-बहुत अभ्यस्त हो गया था - उसके बड़बड़ाने का। लेकिन वह जानना चाहता था कि यह बड़बड़ाना क्या उसके किसी मानसिक रोग की उपज है या यूँ ही उसकी आदत? इसलिए भाई के तैयार होकर निकलने से पहले ही फिर पूछ डाला उसने। भाई, तुम्हारा यह अर्दली क्या नाम है उसका, हाँ मैथ्यू जार्ज, जब देखो, अपने आप ही बड़बड़ाता रहता है, जाने किस-किस को कोसता रहता है, इसे क्यों नहीं समझाते तुम जीवन के अर्थ?

खुलकर हँस पड़ा सन्दीप, एक मुद्दत बाद और तभी लगा उसे कि कितना ज़रूरी है उसके लिए इस प्रकार हँसना। कुछ देरत क वह मैथ्यू जार्ज को निहारता रहा, सहानुभूति के साथ, फिर एक लम्बी साँस खींचकर कहा उसने - “क्या-क्या सुनोगे भाई, हरेक की ज़िन्दगी यातनाओं की एक लम्बी सुरंग, एक महागाथा है। यह जो जार्ज है न मेरे आने से पहले वह जिस मेज़र के घर में था, उसकी पत्नी उससे न सिर्फ़ सारे घरेलू काम करवाती, वरन अपने अन्तःवस्त्र तक उसे दे देती, जा धोकर ले आ। उसकी ब्रा और पैंटी धोते धोते बेचारा विक्षिप्त हो गया। और तो कुछ कर नहीं सकता था वह, इस कारण उसने मेज़र की पत्नी के लिए बाथरूम में अश्लील बातें लिखनी शुरू कर दी। मेज़र की पत्नी का तो कुछ नहीं बिगड़ा, इस बेचारे पर अनुशासनात्मक कार्यवाही हो गयी, तब से विक्षिप्त सा हो गया है और जब-तब उसे कोसता रहता है। ध्यान से सुनो उसका बड़बड़ाना, एक नाम बार-बार आएगा कविता, वह उसी मेज़र की पत्नी का नाम है।”

एकाएक सिद्धार्थ ने भावुक होकर पूछा, “भाई, सच-सच बताओ क्या तुम ख़ुश हो अपनी ज़िन्दगी से, फ़ौज की नौकरी से? पिछले 24 घंटों में मेरी तो नसें यहाँ इतनी फूल गयी हैं कि लगता है अब तड़कीं कि अब फटी? कैसे झेलते हो तुम इतना तनाव? इतनी मारक हैरानियाँ?” सन्दीप ने पटरी बदलते हुए कहा, “यार, जब से तू आया है, चारदीवारी में ही क़ैद है, इसलिए फट रही हैं तेरी नसें, चल तुम्हें घुमवाने की व्यवस्था करता हूँ और नहीं तो कम से कम नारायण नाग, डल झील और मुग़लबाग़ तो तुम देख ही लो।”

पांखुरी-पांखुरी खिल गया सिद्धार्थ।

“भाई हो तो ऐसा! वाह! बहुत अच्छा!”

सिद्धार्थ को भेजने की व्यवस्था कर अपनी यूनिट में पहुँचे मेज़र सन्दीप तो वहाँ की हवा ही बदली हुई थी। वह उत्तेजना, ख़ुशी, विजय और रोमांच से भरपूर एक शाम थी जिसे इतना स्मरणीय बनाया था अल्फा कम्पनी के कम्पनी कमांडर मेज़र भूपेश सिंह ने। हर यूनिट से आ रहे थे बधाई के सन्देश। राष्ट्रीय राइफल्स में यह अपनी तरह की इकलौती पहली घटना थी, जिसमें बिना किसी ऑपरेशन या मुठभेड़ या बन्दूक चलाए ही दुश्मन को ढेर कर दिया गया था और इस सुखद घटना को अंजाम दिया था मेज़र भूपेश सिंह ने अपनी अद्भुत सूझबूझ से।

क़िस्सा कोताह यूँ था।

इनसानी रिश्तों की आन्तरिक ताक़त और कमज़ोरी में विश्वास करने वाले मेज़र भूपेश सिंह अकसर एक आतंकी हसन राकी को मोबाइल पर फोन कर उससे संवाद किया करते थे। कई बार यूँ ही टाइम पास मार्का गप्प, बातचीत। दोनों जानते थे कि दोनों दोनों के ख़ून के प्यासे हैं, फिर भी ख़ाली समय में गपियाने से किसी को भी परहेज नहीं था।

दोनों दो अलग-अलग दुनियाओं के वाशिन्दे इसलिए दोनों से सावधान रहते हुए सतर्कतापूर्वक बातें करते रहते। यद्यपि बीच-बीच में हसन राकी का दिमाग़ उसे ख़बरदार, होशियार करता रहता पर वह सोचता कि हरामी हिन्दुस्तानी फ़ौजी क्या बिगाड़ लेगा मेरा। कौन जाने मैं ही उसका कुछ नुकसान कर पाऊँ। भूपेश सिंह सोचते, क्या हर्ज़ है बात करने में। कौन जाने इसी प्रकार बतियाते-बतियाते एक दिन वे उससे आत्मसमर्पण करवा लें और नहीं तो कम से कम उसे मानसिक रूप से तो तोड़ने का मौक़ा खोजते ही रहेंगे।

फिर इतने दिनों तक राष्ट्रीय राइफल्स में रहते-रहते मेज़र भूपेश सिंह मिलिटेंट की भीतरी दुनिया, उनकी केमिस्ट्री और उनके मनोविज्ञान को भी बहुत कुछ समझ गये थे। वे समझ गये थे कि कोई भी मिलिटेंट अपने साथी मिलिटेंट पर कभी भी सौ फ़ीसदी विश्वास नहीं करता। कब कौन बदल जाए? किस दबाव में आ जाए? सब कुछ एक अन्दाज़, कुहासा और धुन्ध में ही चलता रहता है, क्योंकि आर्मी की तरफ़ से आत्मसमर्पण ख़बरिया बनाने एवं मिलिटेंट के रूप में आम कश्मीरी को मिलिटेंट के गढ़ में खुफ़ियागिरी के लिए घुसाने की सारी कवायद भी साथ-साथ चलती रहती है।

बहरहाल, मेज़र भूपेश सिंह ने एक शाम यूँ ही टाइम पास फोन किया हसन राकी को। जनाब बाथरूम में थे। जैसे ही बजा मोबाइल, उसके मिलिटेंट दोस्त अहमद रशीद ने मोबाइल उठाया... जैसे ही नाम चमका, वह चौंक गया... हिन्दुस्तानी आर्मी के यहाँ से फोन! आदिम जिज्ञासा। दुश्मनों के यहाँ से फोन! उसने झट से लपक लिया... हैलो!

रेज़र शार्प बुद्धि वाले मेज़र भूपेश सिंह। जैसे ही हैलो गया कान में, समझ गये, आवाज़ बदली हुई है। आनन -फानन में बड़ी स्वाभाविकता से कहा, “यार, कब मरवा रहे हो उसे?”

कान खड़े हो गये अहमद रशीद के। भक से जल उठी दिमाग़ की बती। दोस्त के पास फोन, वह भी आर्मी अफ़सर का और कह रहा है, यार कब मरवा रहे हो उसे। निश्चय ही हसन राकी मिल गया है आर्मी वालों से और उसे ही मरवाने की योजना बना रहा है। और इसीलिए बुलाया गया है उसे इतने आग्रह और मनुहार से।

आहत और आशंकित दोस्त ने पिस्तौल की नोक बाथरूम के दरवाज़े की ओर कर दी और जैसे ही बाहर निकला हसन राकी - ब्लडी बास्टर्ड। धाँय। धाँय।

हसन राकी छटपटाया। आँखों में अविश्वास, और आश्चर्य। आर्मी ने नहीं, अपने ही दोस्त ने मार डाला उसे। वह छटपटाया। फड़फड़ाया और मर गया।

हींग लगी न फटकरी और एक आतंकी ढेर। मेज़र भूपेश के साथ पूरी यूनिट बल्ले-बल्ले कर रही थी। बस एक मेज़र सन्दीप ही थे जो पूरी तरह इस ख़ुशी और उल्लास में डूब नहीं पा रहे थे, बस ऊपर ही ऊपर तैर रहे थे। यद्यपि कम्पनी कमांडर मेज़र भूपेश के लिए उन्हें ख़ुशी ज़रूर थी, पर जाने क्यों इस घटना के बाद से ही एक गहरी उदासी पीछा करती रही उनका। रह-रह कर विचारों की झील में कंकड़ फेंक वृत्त पैदा करती रही - कितना सस्ता जीवन! क्षणों की धारा पर उछलता, मात्र संयोगों पर जीता जीवन। यह तो मात्र संयोग ही था कि फोन हसन राकी नहीं उठा पाया। कई बार उनके और उनके साथियों के साथ यह हुआ कि वे मरते-मरते बचे, पर कब तक साथ देगा यह संयोग। यूनिट में शैम्पेन खुल रहे हैं, जश्न मन रहा है और मेज़र सन्दीप हैं कि ख़ुद से ही पूछ रहे हैं - माना यह घटना मेज़र भूपेश के प्रजेंस ऑफ माइंड की अद्भुत मिसाल है पर क्या यह छीजते मानवीय विश्वास और टूटते भरोसे की त्रासदी नहीं? विश्वास तोड़ने की एक हल्की-सी चेष्टा और सीधी मौत!

आर्मी के लिए यह भले ही उपलब्धि हो पर मानव सभ्यता के लिए क्या यह हादसा नहीं? दोस्त को कपट से दोस्त के हाथों मरवा डालना। पर पूरी यूनिट तो उस प्रकार नहीं सोचती जिस प्रकार वे सोच रहे हैं। पर पूरी यूनिट तो ग़लत हो नहीं सकती तो क्या वे ही ग़लत हैं अपने सोच में? या वे ही नहीं सोख पा रहे हैं आर्मी के सत्य को? आर्मी को।