सूखते चिनार / स्वप्न और उड़ान / भाग 5 / मधु कांकरिया

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- जनाब, ये तो हम फ़ौजियों और जवानों की तरह खुले में ही रहेंगे हाँ, आप ग़लत जगह खड़े हैं, चलिए आप अपने कमरे में और बन्द हो जाइए... बोलते-बोलते अपने ही बात पर हँस पड़ा सन्दीप।

-हाँ, हाँ बन्द हो जाऊँगा, मुझे दिलचस्पी नहीं, बच्चों की तरह वरिष्ठों से उँगली पकड़वाने में। बस इतना बता दें यह एच.एच.टी.आई. है क्या बला।

- बताना क्या है, तुझे दिखा ही दूँगा, बस अभी थोड़ी जल्दी में हूँ। इसलिए इतना भर समझ ले कि यह एक प्रकार का बेशक़ीमती कैमरा होता है जो हर यूनिट के पास एक ही होता है। इससे काली रात के काजल अँधेरे में भी कई किलोमीटर दूर तक देखा जा सकता है। हाँ भाई, एकदम-साफ़, सफाचट।

पर एक चीज़ मैं समझ नहीं पाया, जगह-जगह इन्हें चिपकाया क्यों गया है?

इसलिए कि हर जवान उठते-बैठते, सुबह-शाम जब-जब समय मिले पढ़े क्योंकि यहाँ हमारा उद्देश्य सिर्फ़ मिलिटेंट को मार गिराना ही नहीं, वरन कश्मीरियों और आर्मी के बीच सद्भाव भी क़ायम करना है। क्या बताएँ इतनी चौकसी सतर्कता, नैतिक पाठ, सावधानी और उपदेश के बावजूद कई बार हमारे जवान ऐसी-ऐसी हरक़त कर बैठते हैं कि हमारी वर्षों की मेहनत पर पानी फिर जाता है। अभी महीने भर पूर्व ही घटी एक घटना। घटना राजौर गाँव की है। हमें ख़बर मिली कि मिलिटेंट नीचे उतरे हैं। एक तो ह्यूमन राइट्स वालों ने वैसे ही हमारा जीना हराम कर रखा है। अरे मत पूछो, जरा- सी चूक हुई नहीं कि सीधा मामला ठोंक दिया जाता है। इस कारण हमें फूँक-फूँक कर क़दम रखना होता है। तो हम रात भर घेरा डाले बैठे रहे। ह्यूमन राइट्स के चलते हम रात को किसी घर की तलाशी नहीं ले सकते। तो पूरी रात हमने ठंड में ठिठुरते गुज़ार दी। सुबह होते ही हमने सर्च अभियान शुरू किया। गाँव के एक घर ने आनाकानी दिखाई। हमारे जवान वैसे भी अकड़े हुए थे। ठंड में अकड़े हमारे जवान का दिमाग़ भी अकड़ा हुआ था। तैश में आकर हमारे जवान ने राइफल दिखायी। बस अब तो घर में रोना-पीटना मच गया। मैं बाहर खड़ा था, रोना-पीटना सुन मैं तुरन्त अन्दर घुसा। मैंने घर के मुखिया को सॉरी कहा, उससे हाथ मिलाया। बच्चों को प्यार किया, उन्हें टॉफी दी, फिर मुखिया को बेहद विनम्र स्वर में कहा कि यह हमारी ड्यूटी है, हमें ख़बर मिली है मिलिटेंट के छिपे होने की। मुखिया राजी हो गया, पूरी विनम्रता और तमीज के साथ हमने घर का कोना-कोना छान मारा। मजे की बात कि मेरे जरा-सी विनम्रता से बात करने मात्र से घर के मुखिया का तो क्या औरतों का भी डर निकल गया। तो बार-बार समझाने के बावजूद हमारे जवान चूक कर जाते हैं और बनी-बनायी बात बिगड़ जाती है। हमें कश्मीरियों को हमेशा यह विश्वास दिलाना होता है कि आर्मी क्रूर नहीं है। उसके भी हृदय हैं कि वह कश्मीरियों की मित्र है, दुश्मन नहीं। वह उनकी सेवा के लिए है, रुतबे के लिए नहीं।

पीछे के रास्ते से होते हुए दोनों अपने कॉटेज की तरफ़ बढ़ रहे थे कि फिर ठिठक गया सिद्धार्थ। उसने देखा फिर एक ख़ूबसूरत सा चबूतरा। दोनों तरफ़ छोटी-छोटी सीढ़ियाँ। हर सीढ़ी पर ख़ूबसूरत गमले। दोनों सीढ़ियों के बीच बने छोटे-से चबूतरे पर तिरंगा, जिसे दो जवान सेल्यूट मार बड़े कायदे से समेट कर ले जा रहे थे।

“यह क्या?” उसने पूछा।

“हर यूनिट का अपना तिरंगा होता है जिसे हर शाम छह बजे उतार लिया जाता है और सुबह छह बजे फिर फहरा दिया जाता है।”

“क्या इसका मतलब है, रात आर्मी के भरोसे।” मन-ही-मन सोचा सिद्धार्थ ने। सन्दीप से पूछ नहीं पाया वह, क्योंकि सन्दीप थोड़ा आगे निकल अपने किसी साथी से बातचीत में मशगूल था।

तीन घंटे बीत गये।

घर और बचपन की गलियों में घूमते-झाँकते।

सिद्धार्थ ने देखा कि एक फोन आने के बाद से ही भाई उद्विग्न-सा अपने कमरे में चक्कर काट रहा था।

सन्दीप ने देखा, घूमकर आने के बाद से ही भाई दिल्ली में होनेवाली आगामी मिटिंग के लिए रिपोर्ट तैयार कर रहा था जहाँ किसी पंच सितारा होटल में कम्पनी के सारे चीफ़ एक्जीक्यूटिव और मैनेजर्स जमा होने वाले थे। इस डिस्कशन के लिए कि कम्पनी अपने सबसे कमाऊ ब्रांड ‘फाइन एंड लवली’ को नयी साज-सज्जा के साथ किस आकर्षक ढंग से लांच करे जिससे अधिक से अधिक लड़कियाँ उसकी ओर आकर्षित हो सके।

“क्या बात है भाई, कुछ परेशान नज़र आ रहे हो।” आख़िर सिद्धार्थ ने ही चुप्पी तोड़ी।

“परेशान नहीं हूँ, बस चिन्तित हूँ कि तुम्हें इस प्रकार अकेले छोड़कर जाना पड़ रहा है मुझे। दरअसल, मुझे कुछ निहायत ज़रूरी काम के लिए कर्नल आप्टे ने अपनी यूनिट में अभी तुरन्त आने को कहा है। आधे घंटे में ही जीप अपनेवाली है मेरी। मैं रात को तो नहीं ही आ पाऊँगा। यदि कल सुबह तक भी न आ सकूँ तो चिन्ता मत करना, मैंने कैप्टन महेश कुलकर्णी को कह दिया है वह तुम्हें छुड़वा देगा एयरपोर्ट तक।

सिद्धार्थ का मन मचला, वह भी चले भाई के साथ। देखे कैसे देखा जाता है एच.एच.टी.आई. से अँधेरे में। घने जंगलों में। बच्चे की तरह मचलते हुए कहा उसने, मैं भी चलूँ भाई तुम्हारे साथ?

सन्दीप आधा सत्य छिपा गया था। ख़बर मिली थी कि प्रांग पहाड़ पर दो-तीन मिलिटेंट नीचे उतरने की तैयारी में हैं। कमांडिंग ऑफ़िसर कर्नल आप्टे ने इस टू -डेज़ ऑपरेशन की सारी ज़िम्मेदारी मेज़र सन्दीप पर डाल दी थी। अपने नेतृत्व में होनेवाला उनका यह पहला ऑपरेशन था, इस कारण उत्तेजना, थ्रिल, डर, खौफ़ और आशंका से वह इतना भरा हुआ था कि दिमाग़ को एकाग्र नहीं कर पा रहा था। कमांडिंग अफ़सर कर्नल आप्टे के शब्द दिमाग़ में हथौड़े की तरह बज रहे थे - आपके दिमाग़ में नक्शा एकदम साफ़ होना चाहिए। चप्पे-चप्पे की जानकारी होनी चाहिए। आपको दिन में जाकर लोकेशन देख लेनी होगी। सोचने लगा, सन्दीप लोकेशन देखने के लिए किसे साथ लेना उचित होगा कि तभी सिद्धार्थ ने फिर झकझोरा - कहाँ खो जाते हो? क्या सभी फ़ौजी ऐसे ही होते हैं, बात करते-करते खो जाना, मैं भी चलूँ?

“अरे नहीं, तुम्हें साथ ले जाने की अनुमति नहीं मिलेगी। ख़ुद मैं अपनी टीम के साथ निकलूँगा, हाँ, सम्भव है कि जाते वक़्त तुमसे नहीं मिल सकूँ।” मन ही मन खयाल आया, कौन जाने ऑपरेशन के दौरान ही... पर ऊपर से स्वयं को नियन्त्रित करते हुए भाई को गले से लगाया। एक मिनट ठहर। हड़बड़ी में भी उसने अपनी अटैची से एक सुन्दर डिब्बी निकाली, उसमें से एक जोड़ी ख़ूबसूरत कफलिंक की निकाली और भेंट की भाई को, जिसे उसने भाई के लिए मथुरा पोस्टिंग के दौरान ख़रीदी थी।

भाई से विदा ले वह अल्फा कम्पनी के कैप्टन प्रशान्त हल्गिन के साथ निकल गया लोकेशन देखने।

चप्पे-चप्पे की जानकारी हासिल करने के बाद जय माँ काली, जय बजरंग बली के उद्घोष के साथ ऑपरेशन शौर्य के लिए मेज़र सन्दीप की अगुआई में 72 घंटे की खाद्य-सामग्री, सूखे मेवे, शक्कर पाडे, ढेकुआ आदि के साथ सभी निकले। तीन कम्पनियों के कमांडिंग अफ़सर और जवान साथ-साथ बुलेटप्रूफ जैकेट और बुलेटप्रूफ कैप से लैस। साढ़े चार घंटों की रगड़ाई के बाद तीन अलग-अलग ग्रुपों में रात के नीम अँधेरे में सभी जवानों और अफ़सरों ने प्राग पहाड़ के नियत स्थान पर अपनी-अपनी पोजीशन ली। एक साथ निकलने से गोपनीयता भंग हो सकती थी इस कारण मेज़र सन्दीप ने सभी को अलग-अलग दिशाओं से अलग-अलग आने का निर्देश दिया था। किसी भी ऑपरेशन के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण होता है सरप्राइज को क़ायम रखना... सोच रहे थे सन्दीप। हर क़दम पर धुकधुकी। गेंद की तरह टप्पे खाता दिल। कई ऑपरेशन में जा चुके थे अब तक। पर आज लगाम ख़ुद उनके हाथों में थी। सूत्रधार स्वयं थे। इस कारण फूँक-फूँक कर क़दम रख रहे थे। सारी चेतना कानों और आँखों पर टँगी हुई थी। क्या आ रही है कोई आवाज़? ध्वनि की दूरी के सम्बन्ध में कोई चूक न हो जाए। नहीं, कोई आवाज़ नहीं आ रही थी। एच.एच.टी.आई. ऑन मोड में थी। उसके आई ग्लास से फिर निरीक्षण किया उन्होंने। दूर-दूर तक आतंकी तो क्या कोई परिन्दा तक नज़र नहीं आ रहा था। उन्होंने फिर घड़ी देखी - 12 बजकर 56 मिनट। दिमाग़ में आया, ख़बर ग़लत भी हो सकती है। बहुत बार हुआ है ऐसा। ख़बर सही तो ठीक, और यदि उलटी हो तो वार उलटा भी पड़ जाता है। आज तक वे और उनकी यूनिट याद करती है मेज़र राठौर और उनकी टीम की दर्दनाक शहादत को। उन्हें ख़बर मिली थी कि ब्रेवो पहाड़ पर एक मिलिटेंट नीचे उतरने की तैयारी में है। मेज़र राठौर और चार्ली कम्पनी के कम्पनी कमांडर कैप्टन बलवीर सिंह छह जवानों के साथ निकल पड़े ब्रेवो पहाड़ी की तरफ़ - बहुत हैं आठ फ़ौजी एक हरामी के लिए। अँधेर में रेंगते हुए जैसे ही वे पहुँचे, पहाड़ पर, ख़ुद ही घेर लिये गये। एक की जगह बारह मिलिटेंट, अत्याधुनिक हत्यारों से लैंस। अक्टूबर-नवम्बर में मकई के खेत बढ़ जाते हैं, उसी के पीछे छिपकर बैठे थे हरामज़ादे। कमीनों ने घेर लिया। घास-फूस की तरह काट डाला और बोरे में भरकर हेडर्क्वाटर बूशन कैम्प के बाहर फेंक गये थे।

मन फिर गमगीन हुआ, काश! कोई रोक पाता दोनों ओर से बहते नफ़रत के इस सैलाब को।

दिमाग़ को फिर ठकठकाया उन्होंने, अभी मौक़ा यह सब सोचने का नहीं।

फिर नज़र पड़ी घड़ी पर, 2 बजकर 35 मिनट।

वे ढीले पड़ने लगे।

निर्णय लिया गया कि हर ग्रुप से दो सोएँगे, तीन जागेंगे। बारी-बारी से। सन्दीप और उसके साथी घुटनों के बीच मैगजीन लगी लोडेड एके 47 के साथ पेड़ के तने से टेक लगाकर, थोड़ी-सी पीकर यूँ सो गये कि पेड़ में पेड़ हो गये।

रात! काश वह ऐसे ही सोता रहता और रात कभी न बीतती।

पर उँघती-रेंगती रात बीती।

सुबह सन्दीप ने सेकंड-इन-कमांड कर्नल बक्षी को ख़बर भेजी तो वहाँ से ऑर्डर मिला - नीचे उतर जाओ। नीचे सर्च करो।

तीन घंटों की पैदल रगड़ाई के बाद वे नीचे उतरे। पूरे दिन खोज जारी रही। चप्पा-चप्पा खोजा। पत्ता-पत्ता छान मारा। बिल्ली की तरह घात लगाए बैठे रहे, इन्तज़ार करते रहे चूहों के आने का। चूहे नहीं आये। फिर सम्पर्क किया कर्नल बक्शी से। फिर ऑर्डर मिला - ऊपर जाओ। ऊपर सर्च करो।

कॉटेज में अकेला सिद्धार्थ। मन उचाट। लगा भाई के साथ-साथ थोड़ा वह भी चला गया है। क्या कर रहा होगा भाई इस समय? मन में भयावह खयाल आने लगे तो ध्यान बँटाने के लिए लैपटॉप खोलकर बैठ गया। थोड़ी देर मेल चेक करता रहा, फिर ‘वन मिनिट मैनेजर’ किताब को उलटा-पुलटा, पर मन जमा नहीं, भीतर घुटन होने लगी, थोड़ा बाहर घूम आये, उसने सोचा, पर मुश्किल थी कि बुशन कैम्प से बाहर अकेले निकलने की इजाज़त नहीं थी, किसी लोडेड पिस्तौल वाले की हिफाजत के साए में बाहर निकलता उसे अटपटा लगता पर कमरे में रहना भी दुश्वार, बुरे खयाल पीछा ही नहीं छोड़ते, आख़िर वह मुख्य द्वार तक आया और दरवाज़े पर खड़े जवान से अनुरोध किया कि वह बाहर जाना चाहता है। जवान ने विनम्रतापूर्वक उसके साथ दूसरे बन्दूकधारी जवान को भेज दिया।

सामने लहराती बलखाती सिन्धु नदी। किनारे-किनारे चलने लगा वह। तपोवन-सा सुरम्य वातावरण। थोड़ा ही आगे बढ़ा कि सारी लय-ताल गड़बड़ा गयी। धाँय धाँय। घने जंगलों में सी.आर.पी.एफ. वाले प्रैक्टिस फायरिंग कर रहे थे। बड़ा मौजूँ दृश्य था। बीच में आतंकी का पुतला और उसी को लक्ष्य कर गोली दागना। मज़े के लिए उसने भी अनुरोध किया। सी.आर.पी.एफ. वालों ने उसे भी दिला दी बन्दूक। गोली दागने के लिए। भारी-भरकम बन्दूक, उसके भार को सँभालना ही मुश्किल था, दूसरे जवान के कन्धे पर बन्दूक रख किसी प्रकार घोड़े दबाने की रस्म भर पूरी कि तो बन्दूक आतंकी के बुत के बगल में निकल गयी। थोड़ी देर खड़े रहकर वह फायरिंग की आवाज़ों को सुनता रहा और कल्पना करता रहा कि युद्ध के दौरान कैसा दृश्य और कैसी आवाज़ें आती रहती होंगी।

थोड़ा आगे निकलकर फिर पूछा उसने, बाज़ार कितनी दूर होगा?

“क़रीब तीन किलोमीटर दूर होगा...।”

“क्या तुम चल पाओगे?”

हँस पड़ा फ़ौजी - सर, आप अपनी सोचिए, हमारी तो आदत है दिन में 10 -10 किलोमीटर तक चलने की।

काफ़ी दूर तक कभी सूखे पत्तों की चिरमिट-चिरमिर के साथ तो कभी कल-कल बहती नदी की धारा के साथ तो कभी जीवन जगाती हवाओं के साथ आगे बढ़ता रहा सिद्धार्थ, कि एकाएक पाँव ठिठक गये, सारी हरियाली, जादुई फिजाँ के सारे सुख पर जैसे ब्रेक लग गया। किसी के बिलबिलाने की आवाज़, कलेजा फाड़ कर आती रोने की आवाज़। साथ ही गोलियों की आवाज़। दो क़दम आगे बढ़ा तो दिल दहल गया। जीवन आस्था की धज्जियाँ उड़ाता भयानक दृश्य। दो-तीन फ़ौजी मिलकर सार्वजनिक रूप से पीट रहे थे किसी स्थानीय युवक को। साथ ही साथ फ़ौजियों के मुँह से निकलती धाराप्रवाह गाली। फ़ौजी बिना गाली के बात नहीं करते, यह तो सुना था पर ऐसी गालियाँ... माँ-बहन के अंग विशेष ही नहीं। उससे भी आगे... साला मूतता कम, हिलाता ज़्यादा है, ले मज़ा, धोखा देने का... फिर दनादन। बास्टर्ड। ...ज़िन्दगी भर भूल जाएगा हिलाना... इतनी भयंकर पिटाई देख चक्कर आने लगा सिद्धार्थ को। पिटते-पिटते युवक के ख़ून बहने लगा था, कई जगहों से। उफ़! सिद्धार्थ ने मुँह घुमा लिया। थोड़ी ही दूरी पर एक खुबानी बेचनेवाली थी, आस-पास कई खस्ताहाल दुकान वाले थे, सभी वीतरागी भाव से देख रहे थे इस पिटाई को।

सिद्धार्थ खुबानी ख़रीदने लगा। थोड़ी ही देर बाद आ पहुँचा उसका फ़ौजी साथी। क्यों पीट रहे थे इतनी बेरहमी से? पूछा सिद्धार्थ ने।

जवान हँस पड़ा। साहब जी, हैवानियत से निपटने के लिए हैवानियत ज़रूरी हो जाती है। इसीलिए शायद फ़ौजियों को मदिरा-मांस खिला-खिलाकर राक्षस बना दिया जाता है जिससे निपट सकें वे हैवानियत से। अब आप सिर्फ़ इसकी पिटाई देख रहे हैं पर यह क्यों हो रही है आप सोच भी नहीं सकते। ये जनाब मुखबिर थे। प्रायः सभी ऑपरेशन मुखबिर की ख़बरों पर ही होते हैं। पर इस मुखबिर ने फ़ौज को धोखा दिया। इसने कहा कि ब्रेवो पहाड़ी पर दो मिलिटेंट हैं, पर निकले आठ मिलिटेंट। मिलिटेंटों को भी बन्दे ने बता दिया, वे भी इन्तज़ार कर रहे थे हमारी फ़ौज का। इसलिए इसको खुले आम पीटा जा रहा है कि बाक़ी सभी ख़बरिये समझ लें कि झूठी ख़बर देने का अंजाम क्या होता है। जी, मिलिटेंट की सही ख़बर देने वाले को एक लाख रुपये तक की बख़्शीश मिल जाती है। सर जी, आतंकवादियों की ही तरह फ़ौज को भी अपनी तरह की दहशत फैलाकर रखनी होती है नहीं तो आप और हम चल नहीं सकते इन सड़कों पर।

“तो क्या सारे मिलिटेंट इसी प्रकार ख़बरियों द्वारा ही पकड़े जाते हैं?” - आधी हैरानी और आधी जिज्ञासा से भरकर पूछा सिद्धार्थ ने।

साहब बड़े जिज्ञासु हैं। सोचने लगा जवान। बताए न बताए। आर्मी कोड में सिविलयन्स से फ़ौज सम्बन्धी बातें करने की सख़्त मनाही है। पर ये तो मेज़र सन्दीप के सगे भाई हैं। फिर मैं कोई गुप्त ख़बर तो दे नहीं रहा। मैं तो वही बताने जा रहे हूँ, जो ओपेन सिक्रेट हैं, हर आतंकी जानता है जिन्हें।

मिनट दो मिनट की धूप-छाँव के बाद आया जवाब - साहब जी, तीन तरीक़ों से हम करते हैं आतंकी का सफ़ाया। पहला तो यह कि हम किसी भी ऐसे लड़के को जो ख़ुद या जिसका परिवार मिलिटेंट द्वारा सताया हुआ हो, को मिलिटेंट (झूठा मिलिटेंट) बनने को प्रेरित करते हैं। उसके हाँ भरने पर हम उसको थोड़ी ट्रेनिंग भी देते हैं। हमारी नॉलेज में ही वह मिलिटेंट के किसी ग्रुप को ज्वाइन कर लेता है और उनके साथ रहने भी लगता है। वह पाकिस्तान भी जाता है, लौट कर भी आता है। कुछ समय बाद वह ख़ुद ऑपरेशन को अंजाम देता है। उस समय वह हमें बता देता है। बस, मौक़ा पाकर हम ऑपरेशन में सभी आतंकियों को ढेर कर देते हैं। उसे अच्छा इनाम देते हैं या आर्मी ज्वाइन करने का ऑफर दे देते हैं।

दूसरा तरीक़ा है - काल ट्रैकिंग। फोन को समानान्तर सुनना।

तीसरा होता है - सिम क्लोनिंग। इसमें हम मिलिटेंट के डुप्लीकेट सिम कार्ड बनवा लेते हैं। मज़ा लेते हुए कहने लगा वह - जब नया-नया मोबाइल आया था कश्मीर में तो ढेरों मिलिटेंट ढेर हो गये थे। काल ट्रैकिंग द्वारा उनके ठिकानों का पता लगाकर ढेर कर देते थे हम उन्हें। लेकिन ये सब डबल-एजेंड वेपन्स हैं यानी दोहरी धारवाले हथियार। ख़बर ग़लत निकल जाए तो पासा उलटा भी पड़ सकता है। हम भी धोखा खाकर आतंकवादियों के हत्थे चढ़ सकते हैं।

पीले पत्तों वाले ढेरों पेड़। बीच-बीच में चीड़, देवदार, सेब और अखरोट के पेड़। कहीं-कहीं ऊँचाई से गिरते झरने। हर मौसम में सुन्दर दिखता श्रीनगर। जी भर अपने भीतर सोख लेना चाहता था सिद्धार्थ श्रीनगर की इस सुन्दरता को। भीतर प्रार्थना उठने लगी - बनी रहे यह सुन्दरता। चेरी के पैकेट को खोल चेरी खायी उसने, फ़ौजी जवान को भी खिलायी। थोड़ी देर चलने के बाद जवान फिर बताने लगा उसे, अपने फ़ौजी जीवन के बेशक़ीमती अनुभव – सर जी, सबसे महत्त्वपूर्ण होती है इंटेलिजेंस ब्यूरो की ख़बरें। ये ख़बरे ग़लत हो ही नहीं सकती हैं। क्योंकि इंटेलिजेंस ब्यूरो सेटलाइट से देखते हैं। एक वाकया सुनाता हूँ, सर जी। हाँ जी, मैं ख़ुद भी शामिल था उस ऑपरेशन में।

“आप ख़ुद थे!” विश्वास नहीं कर पा रहा था सिद्धार्थ। सिर से पैर तक फिर मुआयना किया उसने जवान का।

हँस पड़ा जवान। दूधिया हँसी, “सर जी, यहाँ आर.आर.पोस्टिंग में हर ऑफ़िसर इंफेंट्री ऑफिसर होता है, और हर जवान को किसी भी ऑपरेशन में भेजा जा सकता है। हाँ तो साहब जी, क़रीब डेढ़ साल पहले की घटना है, तब हमारे कमांडिंग अफ़सर थे कर्नल बत्रा। उनको ख़बर मिली कि तेरह आतंकी बॉर्डर पार करके आ रहे हैं। शाम पाँच बजे तक नारायण नाग पहुँचने वाले हैं। उसी के आधार पर बत्रा साहब ने अपनी यूनिट को तीन भागों में बाँटा और सबको अलग-अलग, अपनी-अपनी जगह पहुँचने का आदेश दिया। अलग-अलग इसलिए कि किसी को शक न हो कि हम किसी बड़े ऑपरेशन के लिए जा रहे हैं। गोपनीयता ऐसे ऑपरेशन में सबसे अहम होती है। हम सौ जवान और बारह अफ़सर चलकर महानिश पहाड़ पर पहुँचे। शाम हो चुकी थी, हमने सचमुच देखा, 13 आतंकी छोकरे पहाड़ पर चढ़ रहे थे। हम उन्हें देखते रहे। थोड़ी देर बाद वे आराम करने के लिए एक चट्टान पर बैठे कि तभी हमने फायरिंग शुरू कर दी। साहब जी, ऑपरेशन में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण यह होता है कि पहली फायरिंग किसने की। शुरुआती दो-एक मिनट में जो सँभल गया, जानो वही जीत गया। हाँ तो साहब जी, जैसे ही उन्होंने फायरिंग की आवाज़ सुनी वे चट्टान के अन्दर घुस गये। फिर दोनों तरफ़ से चलती रही फायरिंग। पूरे सात दिनों तक चला वह ऑपरेशन। रात-रात चलती रही फायरिंग। बहुत अनुभवी कमांडिंग अफ़सर थे कर्नल बत्रा। उन्होंने हमें मिलिटेंट के पास जाने से रोके रखा नहीं तो एकाध कैजुअल्टी ज़रूर ही होती, इतने बड़े ऑपरेशन में। सात दिनों तक हम डेरा डाले रहे। न नहाना न धोना। बस, खाना-पीना नीचे से आता रहा। हमने रॉकेट लांचर मार-मार कर उस चट्टान को ही गिरा दिया। जी, हम उनसे सिर्फ़ 200 मीटर की दूरी पर थे। हमारे हर ग्रुप से तीन सोते, दो जागते। जी, हम उनसे सिर्फ़ 200 मीटर की दूरी पर थे। बाद के दिनों में हमने फ्लेम थ्रोअर भी फेंका!”

“क्या होता है यह फ्लेम थ्रोअर?”

“यह जब लक्ष्य पर लगता है तो उससे आग निकलती है। तो सर जी, इस प्रकार हमने पूरी चट्टान को ही गिरा दिया और जब आख़िरी चौबीस घंटों तक उधर से एक भी गोली की आवाज़ नहीं आयी तो हम समझ गये कि या तो वे मर गये हैं या उनके हथियार ख़त्म हो गये हैं।

क्या बताऊँ साहब जी, जब पास पहुँचे तो देखा सब के सब अठारह से तीस तक के युवक थे। गोरे-चिट्टे। पाकिस्तानी। अधिकतर जींस-टॉप में थे। इक्के-दुक्के ने पठान सूट भी डाला हुआ था। सबके शरीर आग से बुरी तरह झुलसे हुए थे। उनके पास से हमें एके 47 और एक सेटलाइट फोन भी बरामद हुआ। उन शवों के साथ फोटो खिंचवायी। मीडिया को बुलाया, उन्हें दिखाया और फिर सब शवों को पुलिस के हवाले कर दिया।

जवान बोलता जा रहा था, सिद्धार्थ की आँखें चौड़ी और दुनिया बड़ी होती जा रही थी। अज्ञात भय उसे अजगर की तरह जकड़ता जा रहा था - बाप रे! कैसी जोखिमों से भरी दुनिया में रहता है उसका भाई।

क्वार्टर में लौटते ही सिद्धार्थ फिर चिन्तित!

अभी तक नहीं लौटा भाई!

लैंड लाइन से कई बार फोन लगाया, बार-बार यही जवाब - साहब नहीं लौटे बाहर से।

आख़िर बेकाबू होते अपने मन को फिर मरोड़ा उसने अपनी मंजन, तेल और साबुन की दुनिया में।

इस क्वार्टर के सेल्स टारगेट एचीव नहीं कर पाये थे सिद्धार्थ, इस कारण सपनों में भी सुन्दरियाँ नहीं, सेल्स ही दिखता है उन्हें। यही सोचते रहते हैं कि कैसे बढ़ाया जाए सेल्स। कैसे फैलाया जाए अपना नेटवर्क? कैसे पहुँचे देश के कोने-कोने में, कोकाकोला की तरह? जब भी ख़ाली समय मिलता है कंज़्यूमर साइकॉलोजी की पुस्तक पढ़ते रहते हैं। सोचते रहते हैं उपभोक्ताओं के मनोविज्ञान पर। अद्भुत है, इस देश के उपभोक्ता भी, एक समय था कि गाँवों में उनका ब्रैंड ‘लाइफ़मैन’ ही बन चुका था साबुन का पर्याय। दशकों तक राज किया इसने गाँवों में। जाने क्या सूझी प्रबन्धकों को कि उन्होंने बदल डाला रंग लाईफ़मैन का। लाल रंग से बदल डाला इसे हल्के गुलाबीनुमा लाल रंग में। बस तभी से पिट गया साबुन। बाद में रिसर्च रिपोर्ट आयी कि गाँव के गावड़े इसे ‘लाईफ़मैन’ के नाम से नहीं, वरन इसके रंग से पहचानते थे। वे इसे लाल साबुन कहते थे। नयी सजधज के साथ लाइफ़मैन आया तो लोगों ने इसे नकली लाल साबुन समझा और नाता तोड़ लिया इससे।

उसे सभी लोकप्रिय ब्रांड से सम्बन्धित एक प्रेजेंटेशन तैयार करना है। ‘लाइफ़मैन’ से फिसलते हुए ध्यान गया कम्पनी के सबसे बिकाऊ ब्रांड ‘फाइन एंड लवली’ पर। ताज्जुब सबसे ज़्यादा खपत इसकी दक्षिण भारत में। एक सर्वे करवाई थी प्रबन्धकों ने पिछले दिनों। लिया गया था उसमें साक्षात्कार हर वर्ग की महिलाओं से। एक कमरे में पूछा जा रहा था उनसे क्यों लगाती हैं वे ‘फाइन एंड लवली’ और दूसरे कमरे में प्रबन्धकों के साथ वह भी क्लोज सर्किट पर देख सुन रहा था। उसे ताज्जुब हुआ, अधिकांश महिलाओं ने कहा कि वे इसलिए इस्तेमाल करती हैं, ‘फाइन एंड लवली’, क्योंकि सुन्दरता आत्मविश्वास बढ़ाती है।

उसी रात उसने अपने घर काम करनेवाली बाई से भी पूछा था - क्या वह जानती है क्या है ‘फाइन एंड लवली’। ताज्जुब। तपाक से जवाब दिया बाई ने, ‘कि बोलछेन, आमि व्यवहार ओ करी। ना सब समय ना, शुदू पूजार समय।’ (क्या बोलते हैं, मैं तो ‘फाइन एंड लवली’ लगाती भी हूँ, नहीं हर दिन नहीं, सिर्फ़ दुर्गा पूजा के समय)।

जियो! मेरे ब्रांड! एक समय आएगा जब सारे ब्रांड इसी प्रकार लोकप्रिय हो जाएँगे... तल्लीन हो वह अपनी रिपोर्ट में डूब गया था। पन्द्रह-बीस मिनट गुज़रे कि वह चौंक गया। किसी के बड़बड़ाने की आवाज़ आ रही थी। एकाएक बड़बड़ाना थोड़ा तेज़ हो गया। क्या टी.वी. खुला छूट गया? वह उठा। टी.वी. चेक किया उसने। नहीं, टी.वी. बन्द था। फिर कौन? तभी बाथरूम से भाई का अर्दली निकला। ध्यान से देखा उसने, दीन -दुनिया से बेख़बर अर्दली अपने आप ही बड़बड़ाता चला जा रहा था। अपनी बड़बड़ाहट में वह किसी को कोस रहा था, बद्दुआ दे रहा था किसी को। हे भगवान, कैसी पागल दुनिया है यह! अर्दली तक चैन से नहीं बैठते देता।

उसने चेष्टा की फिर लैपटॉप में डूब जाने कि पर उसकी श्रवेन्द्रियों का एक टुकड़ा वहीं अटका रहा, उसी अर्दली के इर्द-गिर्द। झुँझलाकर फिर सम्पर्क किया, उसने भाई से। फिर लगाया फोन यूनिट में। फिर वही जवाब - साहब बाहर हैं, अभी नहीं लौटे। कब लौटेंगे? लौटने पर आपको बता दिया जाएगा। कट।

रात फिर लगाया फोन, वही जवाब, पर इस बार उम्मीद की एक लाइन और जड़ दी यूनिट वाले ने। सुबह तक आने की सम्भावना है।

राम-राम कर बिताई रात सिद्धार्थ ने। किसी प्रकार बजा सुबह का छह। फिर लगाया फोन तो लाइन डेड। आशंका से काँप गया सिद्धार्थ। याद आया, भाई ने ही बताया था उसे कि जब भी कोई एनकाउंटर होता है हम वी.एस.एन.एल. के सारे कनेक्शन ऑफ कर देते हैं जिससे कि मिलिटेंट एक-दूसरे से सम्पर्क नहीं कर सकें। हे भगवान तो क्या भाई किसी ऑपरेशन में...? किससे पूछें? भाई के अर्दली से पूछा तो उसने अजीब-सा ही सुझाव दिया, ‘आजकल’ चैनल लगा लीजिए, यदि कोई ब्लास्ट या एनकाउंटर हुआ होगा तो पता चल जाएगा।

दम साधे सभी देवी-देवताओं की गुहार करने लगा वह। हे भगवान, भाई को सकुशल देखकर जाऊँ। आठ बजे के क़रीब वह बाहर निकला कि पूछताछ करें, आसपास के अफ़सरों से कि तभी उसने देखा कि कर्नल आप्टे अपने चेम्बर की ओर बढ़ रहे हैं। लपककर वह उनके पीछे हो लिया।

“गुड मार्निंग सर।”

“गुड मार्निंग! क्या आप मेज़र सन्दीप के भाई हैं?”

उसे ताज्जुब हुआ तो कर्नल साहब को ख़बर है, उसके यहाँ आने की। (शायद बिना कर्नल की इजाज़त के उसे रखा भी नहीं जा सकता हो।) उसने छूटते ही पूछा, “सर, सन्दीप कल सुबह से जो गया कि अभी तक नहीं लौटा है। मुझे शाम की फ्लाइट से जाना है। क्या जाने से पहले हो सकती है उससे मुलाक़ात?”

अचरच के साथ देखा कर्नल ने उसे और कहा, “क्या आपको पता नहीं, मेज़र सन्दीप ऑपरेशन पर गये हैं। दो रात से पहले तो आने का सवाल ही नहीं, ज़्यादा वक़्त भी लग सकता है।”

“क्या?”

“क्या बहुत ख़तरा है? मुँह से हठात निकल पड़ा।”

“ख़तरा तो नो डाउट ज़रूर है। और सबसे अधिक उसे ही है, क्योंकि मैं तो तब जाऊँगा जब ऑपरेशन पूरा हो चुका होगा। इस बीच जो कुछ होगा, उसे ही झेलना होगा।”

वे बोलते जा रहे थे और सिद्धार्थ की यातना का स्वाद भी लेते जा रहे थे। डर की ठंडी उफनती लहर उसके भीतर उतरती जा रही थी। आये दिन की मुठभेड़ और एनकाउंटर से संवेदनहीन हुए कर्नल को शायद यह भी खयाल नहीं रहा कि उनका जवाब सिद्धार्थ के सामने तोप के गोले की तरह फटा। वे आगे बढ़ गये, सुन्न सिद्धार्थ वहीं सीढ़ियों पर अधमरे-से बैठ गये। भीतर बहने लगीं प्राथनाएँ... हे भगवान, भाई को सकुशल देख निकलूँ यहाँ से। भगवान, आगे और कुछ न सुनना पड़े।

सीढ़ियों पर बैठे-बैठे सिद्धार्थ बुशन कैम्प की गतिविधियों को देखते रहे। यूनिफार्म से लकदक ऑफ़िसर चुस्त चाल से आ-जा रहे थे। फ़ौजी कुत्ते बाहर लॉन में घूम रहे थे। चिकने, काले, सुडौल। उसे ध्यान आया, भाई ने बताया था कि बड़ी कठोर ट्रेनिंग होती है। इन फ़ौजी कुत्तों की भी बाकायदा क्लास लगती है। इन्हें ब्रह्मचारी ही रखा जाता है, जिससे उनकी सम्पूर्ण उर्जा का उपयोग हो सके। एकाएक उसकी नज़र अहाते के भीतर घुसती एम्बुलेंस पर पड़ी। कहीं सन्दीप तो नहीं? दूर खड़ी एम्बुलेंस नुकीली चोंच मार उसका मांस नोचने लगी। वह लहूलुहान हुआ। वहीं जम गया... उसे लगा जैसे सदियों से वह वहीं बैठा हुआ देख रहा है एम्बुलेंस को आते हुए। सन्दीप को स्ट्रेचर पर लेटे हुए। सामने से कोई फ़ौजी गुज़रा। उसने उसे रोककर पूछा, भाई, यह एम्बुलेंस क्यों आयी है? विनम्रता से जवाब दिया फ़ौजी ने, साहब जी, पास के ही गाँव में हम लोगों ने आज फ्री मेडिकल कैम्प खोला है। मुफ़्त दवाइयाँ बाँटी है। वहीं से आ रही है यह एम्बुलेंस।

उसके हाथ जुड़े... लाख-लाख शुक्रिया परवरदिगार। तू सचमुच है। उससे थोड़ी ही दूर पर कुछ फ़ौजी बतिया रहे थे। वह सुनने लगा, उसी दिन जम्मू में कोई एनकाउंटर हुआ था। उसमें बीएसएफ का कोई जवान शहीद हो गया था। अब कितनी भी चौकसी रखो, गेंद बराबर हैंड ग्रिनेड तो कोई भी कहीं भी छुपाकर कहीं भी फेंक ही सकता है। उससे और सुना नहीं गया। लगा ख़ून सिर चढ़कर बोलने लगा है। ख़ुद को सँभालने और अपने भीतर के डर से उबरने के लिए वह पीछे की तरफ़ निकल गया और पीछे लगी सीमेंट की पट्टी पर बैठ गया। अभी तक उसने जाने कितनी बार ऐसी मुठभेड़ों और ऑपरेशन के बारे में पढ़ा था, पर वे उसके ‘मैं’ का हिस्सा नहीं बनी थीं। वे उसकी निजी ज़िन्दगी की सरहदों के बाहर थी। लेकिन आज पहली बार फ़ौजी कैम्प, कश्मीर का दहशत भरा वातावरण, मृत फोन और भाई से संवादहीनता के मिले-जुले कॉकटेल ने उसके होश उड़ा दिये थे। विचलित, अस्थिर और तनावग्रस्त वह वहीं बैठा रहा जाने कब तक। खाने और नाश्ते का समय भी निकल गया पर वह बैठा रहा। बीच में एक बार उठा वह, और भाई के दिये मोबाइल से फोन पर अपनी आज शाम की फ्लाइट कैंसिल करवाई।

शाम छह बजे के क़रीब अपने सर्च अभियान-कम-ऑपरेशन को समाप्त घोषित कर हेडक्वार्टर बूशन की ओर निकले सन्दीप। इस बेमतलब के ऑपरेशन और व्यर्थ की भाग-दौड़ और कभी ऊपर तो कभी नीचे की दो दिनों और दो रातों की कवायद ने मन में खरोंचें डाल दी थीं। पहले भी ऐसा कई बार हो चुका था। आधी परती ख़बरों पर ही दौड़ा दिया पूरी टीम को। दरअसल, सी.ओ. चाहते ही यही हैं कि सदैव दौड़ते रहें उनके मातहत। सन्दीप अब मुरझाने लगा था। वर्दी का नशा भी अब धीरे -धीरे हलका पड़ने लगा था। भाई के साथ जी भर रह नहीं सका, इसका मलाल अलग था। एक समय था कि सिद्धार्थ परछाई की तरह चिपका रहता था उनसे। उफ़! बड़े क्या हुए कि ज़िन्दगी ही जैसे हाथों से छूट गयी। विचारों के सैलाब में फिर बहने लगे सन्दीप, इतना बॉसिज़्म नहीं होता तो सबसे आदर्श संस्था होती भारतीय फ़ौज। चाहे पीस पोस्टिंग हो या फील्ड पोस्टिंग, हर जगह बॉसिज़्म। अपनी तरह का। किसने बनाया आर्मी का यह सामन्ती चरित्र! अँग्रेजों के जमाने के बने सामन्ती नियम कायदे, चले आ रहे हैं आज भी धड़ल्ले से।

वक़्त की धुन्ध को चीरते हुए फिर उन्हीं राहों पर चल पड़े सन्दीप, जहाँ से कभी निकले थे। याद आने लगी, राँची पोस्टिंग के दौरान हुई वह घटना - वह अपमान, अपने बॉस के हाथों, जिसे आज तक भूल नहीं सके वे। उन दिनों इस नयी दुनिया के नये-नये खिड़की- झरोखे खुल रहे थे। उन्हीं ताज़ा तरोजा दिनों में जाना था उसने कि हर फ़ौजी के लिए एक वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट (एनुएल कांफिडेंशिएल रिपोर्ट) बनायी जाती है जिसके आधार पर अफ़सर की भविष्य में पदोन्नति होती है। इस एनुएल कांफिडेंशियल रिपोर्ट यानी ए.सी.आर. में उसके कार्य, चरित्र, व्यवहार सब पर टिप्पणी लिखी रहती है, जो उसके यूनिट के कमांडिंग अफ़सर द्वारा लिखी जाती है। यानी उसका पूरा भविष्य माँ-बाप, भाग्य विधाता सभी वह कमांडिंग अफ़सर। वह ख़ुश तो दुनिया ख़ुश। इसीलिए हर अफ़सर अपने वरिष्ठ के ज़बरदस्त दबाब में रहता है। इसलिए सन्तुलन बनाए रखने के लिए हर वरिष्ठ अपने कनिष्ठ को भी उतने ही दबाव में रखता है।

उन दिनों उसका सी.ओ. था मणिपुर का आई.एस.चनम। नुकीला, रोबदार, घमंडी और अपनी ओर खींचता चेहरा। इतना दबदबा, आतंक और इस क़दर धँसा हुआ था वह उसकी चेतना में कि रात स्वप्न में भी उसे प्रेयसी के बजाय कर्नल चनम का चेहरा दिखता था। उन्हीं दिनों उसके संवेदनशील मन ने इस सत्य का उद्घाटन किया था कि अपने श्रेष्ठ कायदे -क़ानून, टेबल मैनर्स, डिगनिटी और महिलाओं के साथ बेइन्तहा इज़्ज़त से पेश आनेवाली आर्मी अपने मातहत अफ़सर और जवानों के साथ कितनी सामन्त और कठोर है।

छोटी-सी एक घटना पर इतनी मारक और हैरान कर देने वाली कि उनके प्रभाव से आज तक उबर नहीं पाया है वह।

आँखें फिर पीछे घूम गयीं। कैसे लांसनायक जयदेव सिंह गिड़गिड़ाया था उसने समक्ष, छुट्टियों के लिए। पिता बेहद बीमार थे उसके। और पाशविक प्रवृति के कर्नल सी.ओ. ने ख़ारिज कर दी थी उसकी छुट्टी की अपील को।

उसने आश्वस्त किया जयदेव सिंह को - जैसे भी हो मैं तुम्हें छुट्टी दिलवा कर रहूँगा और मन बनाया, कर्नल चनम से सामना करने का।

पर इसी बीच फिर घट गयी एक घटना, जिसने सी.ओ. की पाशविक व्यक्तित्व की कई परतों को एक साथ उजागर कर दिया।

सी.ओ. को हेड ऑफ़िस से आर्डर मिला था कि इस बात का अध्ययन किया जाए कि नये बने अफ़सर आर्मी के नेतृत्व के बारे में क्या सोचते हैं? किस प्रकार सोचते हैं? सन्दीप को भी अपने कमेंट लिखने के लिए कहा गया।

आज भी याद कर सकता है सन्दीप क्या लिखा था उसने अपने आलेख में। नेता के रूप में उसे जो सी.ओ. मिला था और उससे उसे जो अनुभव मिले थे उसी आधार पर उसने सच-सच लिख दिया था। उसने स्पष्ट लिखा था कि आर्मी के नेता अफ़सर के भीतर जो भी सुन्दर, शिव और मानवीय है, उसे उजागर करने की बजाय उसे कुचलने में ही अपना योगदान दे रहे हैं। जबकि नेता को एक अच्छे माली की तरह होना चाहिए जो दे सके अपना योगदान मनुष्यत्व के पौधे को सींचने में। उसने लिखा था, नेता अपनी टीम का वैचारिक कप्तान होता है। नये विचारों, नयी सृजनात्मकता और नये प्रयोगों को जन्म देना उसका नैतिक कर्तव्य होना चाहिए पर दुर्भाग्य से आर्मी के हर सीनियर को तेजस्वी अफ़सर नहीं, लद्धड़-लक्कड़ ढीकरा चाहिए, जो टनटनाता रहे नेता की ताल पर, जो प्रश्न न करे, सिर्फ़ अनुकरण करे, जबकि गीता के इस देश में प्रश्नों और संवादों की एक स्वस्थ परम्परा रही है। स्वयं गीता भी क्या है? कुछ प्रश्न, कुछ जिज्ञासाएँ। आर्मी के नेता को यदि किन्हीं तीन शब्दों से चिढ़े है तो वे हैं ‘क्यों’, ‘क्या’ और ‘कैसे’।

और अन्त में उसने भावुक होकर लिखा था - मैं आया था आर्मी में, उच्च उद्देश्यों के लिए, बेहतर जीवन की तलाश के लिए, पर यहाँ आकर तो लगता है मैंने ख़ुद को ही खो दिया है। न मेरी आत्मा मेरे पास है और न ही मेरी आवाज़। मुझे डर है कि अन्त तक शायद ही बचे मेरा सपना और बचे इतना हौसला कि मैं बुन सकूँ नयी दुनिया और नये सपनों को।

आज भी याद आ रहा था सन्दीप को, कर्नल चनम का तिलमिलाता चेहरा और फड़कते मूँछ के कोने। जैसे ही वह घुसा उसके चेम्बर में, कैसे बाज की तरह झपट पड़ा था वह उस पर और कैसे गलियों से सम्पन्न आवाज़ में आग उगल रहा था - बास्टर्ड, किस पर लिखा है तुमने यह निबन्ध? सी.ओ. की आँखों की हिंस्र जलन देख सहम गया था वह। भीतर कीड़ा कुलबुलाया, कह दे जनाब आप पर। पिकासों की सुप्रसिद्ध पेंटिंग ‘गुएर्निका’ को देख जार ने पूछा था, किसने बनायी यह पेंटिंग? बेधड़क हो जवाब दिया था पिकासो ने - जनाब आपने। पर वह ऐसा नहीं कह सका। शब्द गले की दहलीज पर आकर छूट गये। वह कलाकार था, वह फ़ौजी है। अपने को भरसक संयत कर जवाब दिया उसने - सर, मैंने किसी व्यक्ति विशेष पर नहीं लिखा, मैंने तो सिर्फ़ यह कहना चाहा था कि नेतृत्व कैसा होना चाहिए। सी.ओ. चनम सिगरेट का धुआँ छोड़ता रहा, उसे घूरता रहा, जैसे पंजे में फँसी बिल्ली घूरती है चूहे को। पूरे पन्द्रह मिनट बाद अपनी घूमने वाली कुर्सी को फिर उसकी तरफ़ घुमाते हुए फिर पूछा उसने - तू सोच, शायद तुझे याद आ जाए कि किस पर लिखा है तूने? उसकी आँखों से फूटती हिंसक चिनगारियों और मक्कारी को अनदेखा कर फिर विनम्र शब्दों में जबाब दिया उसने - सर, जब मैंने किसी पर लिखा ही नहीं तो याद कैसे आएगा? अपनी गोल-गोल गुलटी आँखों से वह उसे घूरता रहा, उसकी यातना का स्वाद लेता रहा, अपना काम करता रहा। बस हर पन्द्रह मिनट बाद लहरा-लहरा कर उससे पूछता रहा, “आया याद?”

डेढ़ घंटे तक उसके चेम्बर में हाज़िरी देने के बाद ही निकल पाया वह बाहर।

दूसरे दिन उसने अपनी हैसियत से लांसनायक जयदेव सिंह की दस दिनों की छुट्टी मंजूर कर दी थी। तब कितना समझाया था उसे उसके मित्र कैप्टन प्रवीण शर्मा ने - जयदेव का तो भला होने से रहा, उलटा सी.ओ. तेरे पर चढ़ जाएगा। लगा देगा तेरी छुट्टियों पर कर्फ़्यू।

‘कूल-कूल’ उसने आपसे किया। फिर आश्वस्त किया था उसने ख़ुद को - यू आर नॉट इनफिरियर टू एनीबडी एल्स इन दि वर्ल्ड एकसेप्ट गॉड (तुम दुनिया में सिवाय ईश्वर के किसी से कम नहीं हो।)

“कितना आदर्शवादी था वह उन दिनों, सन्दीप मन ही मन मुस्कराया, और उतना ही ज़िद्दी भी। पीछा नहीं छोड़ा था उसने भी सी.ओ. चनम का। फिर सामना किया उसने सी.ओ. का। खड़ा रहा उसके चेम्बर में। पूरे पन्द्रह मिनट बाद गर्दन उठाई सी.ओ. ने और बेरुखी से कहा - अभी मैं फ्री नहीं हूँ, दो घंटे बाद आना। दो घंटे वह घूमता रहा बाहर, निरर्थक, निरुद्देश्य। जैसे ही बीते दो घंटे, उसने फिर ख़ुद को ठकठकाया, बच्चू होशियार कच्चा नहीं बनने का। भीतर के सारे साहस को इकट्टा कर वह फिर तैयार सी.ओ. का सामना के लिए। एक उड़ती नज़र डाली सी.ओ. ने उस पर। उसकी बदहवासी और परेशानी का स्वाद लिया और चूइंग गम चुभलाते हुए कहा, रात दस बजे बाद आना। वह ग्यारह बजे पहुँचा, फिर पन्द्रह मिनट तक खिड़की से दिखते टुकड़े भर आसमान में छितरे तारों को गिनता रहा। पन्द्रह मिनट बाद सी.ओ. ने मुंडी उठाई और कहा - कल सुबह आना।

ढीठ की तरह वह सुबह पहुँचा तो उसने छूटते ही कहा, “तुमने जयदेव को दस दिनों की छुट्टियाँ क्यों दी?”

“स,र जम्मू जाएगा तो आने-जाने में ही लग जाएँगे चार दिन।” भरसक विनम्र हो जवाब दिया उसने।”

सी.ओ. ने खा जाने वाली नज़र उस पर फेंकी। सन्दीप को लगा कि कमरे की दीवारें एकाएक इतनी गरम हो उठी हैं कि वह झुलस जाएगा। आज भी याद कर सकता है सन्दीप कि कितने आत्मबल से तब सन्दीप ने स्वयं को उस घृणित तिलचट्टे के सामने सिकुड़ने, बिखरने और कच्चा पड़ जाने से रोका था।

और तभी सी.ओ. ने ग़ुस्से में फुँफकारते हुए रजिस्टर उछाल कर उसके सामने फेंक दिया था।

सन्दीप को लगा कि रजिस्टर नहीं उसके होने का उसके वजूद को उछालकर फेंक दिया है उसके सामने।

क्या उठाए वह रजिस्टर?

नहीं, सन्दीप ने रजिस्टर नहीं उठाया और बिना एक भी शब्द बोले निकल गये कमरे से बाहर।

बाद में सी.ओ. ने जयदेव को सात दिनों की छुट्टी दी।

विचारों की आँधियाँ फिर चलने लगीं। पीस पोस्टिंग हो या फ़ील्ड पोस्टिंग, मथुरा हो, राँची हो या कश्मीर हो, हुक्म बजाने और बजवाने का कारोबार चलता रहता है। हर सीनियर अपने सीनियर से दबता और जूनियर को दबाता है। उसे याद आया एक चुटकुला। एक बार इंटरनेशनल प्रतियोगिता थी कि कौन कम से कम मूल्य पर कबूतरों का निर्यात कर पाता है। इस प्रतियोगिता में भारत बाजी मार गया। इंग्लैंड, अमेरिका, जापान जैसे सभी विकसित देश हैरान। इस मूल्य पर तो लागत ही नहीं निकलती, कैसे कर पाएगा भारत इन मूल्यों पर निर्यात। बाद में निर्यात अधिकारी ने राज खोला, “भाई, ये भारतीय कबूतर हैं, दुनिया के किसी भी देश में ऐसे कबूतर नहीं हैं। हमें पैकिंग की ज़रूरत ही नहीं है। हम इन्हें बड़ी -सी खुली टोकरी में बस बैठा देंगे। तो क्या ये उड़ेंगे नहीं? नहीं भाई, जब ऊपर वाला उड़ता है तो नीचे वाला इसकी टाँग पकड़े रहता है। इस कारण न कोई उड़ता है, न उड़ पाता है।”

एकाएक वह रास्ते में ही ठहाका मार कर हँस पड़ा, यही हाल मेरी फ़ौज का। मेरे देश का। न उड़ो न उड़ने दो।

आसपास के लोग उसे देखने लगे, तो वह झेंप गया।

उफ़! वह भी कहाँ खो गया उसने फिर गर्दन को झटका दिया और सोचने लगा सिद्धार्थ के बारे में। उसने मोबाइल से उससे सम्पर्क करना चाहा, पर वीक टॉवर, या मौसम की गड़बड़, सम्पर्क होते -होते टूट रहा था।