सूखते चिनार / स्वप्न और उड़ान / भाग 3 / मधु कांकरिया

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दिन बीत रहे थे। कभी हिरण की तरह कुलाँचे भरते तो कभी कछुए की तरह रेंगते। हर दिन उस रहस्यमयी दुनिया की एकाध नयी परत और खुल जाती। जितना अधिक वह जानता इस दुनिया को इसके प्रति उसका आकर्षण, विकर्षण, सम्मान और अनादर घटता बढ़ता रहता। कभी लगता, ठीक किया उसने आर्मी में आकर तो कभी मन उखड़ जाता - साली यह भी कोई लाइफ़ है, ज़रा सी चूक, साइकिलों के ढेर के ऊपर लोट लगाओ, जैसे वह हाड़-मांस का इनसान नहीं आलू का बोरा हो।

और देखते-देखते आ गयी, आर्मी की चर्चित विख़्यात, पासिंग आउट परेड। उसके बाद भरना होगा उसे अनुबन्ध पत्र, शपथ पत्र - आर्मी के साथ। फिर वह चाहे तो भी बीस वर्ष पूर्व लौट कर नहीं आ सकता नागरिक जीवन में।

अभी भी निर्णय उसके हाथों में। चाहे तो अभी भी लौट सकता है वह। हर चिट्ठी में उसकी माँ और पिता के आख़िरी शब्द यही होते - लौट आओ। इस बार तो पिता के शब्दों में निराशा के रंग कुछ ज़्यादा ही गहरे थे - देख लेना, फ़ौज में रहकर भी तुम देश के लिए कुछ नहीं कर पाओगे। इन दिनों के अख़बार शायद तुमने पढ़े ही होंगे। फ़ौज के ही कई उच्च अधिकारियों को ‘सैक़’ कर दिया गया है क्योंकि उन्होंने खुलकर गृह और रक्षा मन्त्रालयों की नीतियों का विरोध किया था। इस देश में सेना कुछ नहीं कर सकती है क्योंकि यहाँ सेना के सोचने और बोलने, दोनों पर ही पाबन्दी है। और शीघ्र ही परिवर्तन की उम्मीद भी बेकार है क्योंकि इस देश में इनसानों का कहीं राज है ही नहीं। यहाँ राज है तो कहीं चमचों का तो कहीं तमंचों का। कहीं गधे बैठे हैं तो कहीं लालची गिद्ध। लौट आओ, अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है।

क्यों वह लौट जाए वापस? नहीं, हर्गिज नहीं। वह फ़ौजी ही क्या जो चुनौतियों से मुँह मोड़ ले। अब वह स्वयं को फ़ौजी समझने लगा था। और साल भर की ज़िन्दगी में ही देख लिए थे उसने ज़िन्दगी के कई रंग जो कि उसके पिता ने अपने पैंतालीस वर्षीय जीवन में भी नहीं देखे होंगे। नहीं, उसे नहीं तौलना है पीतल के बर्तन। उसे उठानी है बन्दूक और देखनी है दुनिया। उसके सारे दोस्त, परमजीत, विनय, गिरिराज, लक्ष्मण और हिमांशु अपने निश्चय में अटल है तो अकेला वह ही क्यों भागे यहाँ से?

और स्वप्नों भरी एक चमकती दोपहर, आई.एम.ए. के विशाल प्रांगण में पासिंग आउट परेड हुई। उसके सभी दोस्तों के परिवार आये। उसका भी पूरा परिवार आया। देहरादून के सारे वी.आई.पी. और प्रभावशाली व्यक्ति भी मौजूद थे उस परेड में। टी.वी. कवरेज। रकम-रकम के बैंड। अरबी घोड़े। तरह-तरह की वर्दियों में भिन्न-भिन्न दिशाओं से आती अलग-अलग टुकड़ियाँ यानी पूरा तामझाम। और उस समय उसका हृदय राष्ट्रबोध और राष्ट्रगौरव से अभिभूत हो गया जब मार्चिंग परेड में सहस्र-सहस्र कंठों से, अलग-अलग दिशाओं से अलग-अलग टुकड़ियाँ, ‘क़दम-क़दम बढ़ाए जा, ख़ुशी के गीत गाये जा... ये ज़िन्दगी है क़ौम की क़ौम पर लुटाए जा...’ गाती हुई आती और धीरे-धीरे एक बड़ी धारा में मिल जाती। बरसते सावन की तरह हर तरफ़ बरस रहा था, आश्चर्य, सौन्दर्य, अनुशासन और राष्ट्रप्रेम। सारा कार्यक्रम इतना भव्य, अनुशासित और राष्ट्रबोध से ओतप्रोत था कि वह मन्त्रमुग्ध हो गया। ठगा-सा रह गया।

परेड के अन्त में टोपियाँ उछाली गयीं और उसे नयी वर्दी दी गयी। अब वह जी.सी.कैडेट 108 नहीं, वरन आर्मी मैन था। लेफ़्टिनेंट था। उसकी वर्दी में दोनों कन्धों के ऊपर दो स्टार लगे थे। दोनों स्टार लाल रंग के कपड़ों से ढके हुए थे जिसे हटाने का गौरव हर लेफ़्टिनेंट की माँ को दिया जाता था।

पासिंग आउट परेड के बाद सभी पैरेंट्स को आई.एम.ए. की तरफ़ से प्रीति भोज के लिए आमन्त्रित किया गया। खान -खिलाने के बीच बातचीत भी जारी थी। उनकी बातों के टुकड़े हवा में उछलते हुए सन्दीप से टकरा रहे थे। बातें पहली पोस्टिंग की हो रही थी। सन्दीप के दोस्त नीरज की पहली पोस्टिंग ही कश्मीर के अतिसंवेदनशील इलाके राजौरी में हुई थी। नीरजा के पिता बेहद आहत थे जैसे ठगा गये हों। सन्दीप के पिता से कह रहे थे वे, “देखिए पहली पोस्टिंग ही इतनी ख़तरनाक। यानी तैयार होते ही मरने की तैयारी।”

दूसरे दोस्त अखिलेश की पोस्टिंग भी अनन्तनाग में हुई थी। वे भी भड़के हुए थे - आर्मी भी तो अपना नफ़ा-नुकसान देखती है जी। ये नये-नये चूजे हैं। इन पर अभी न तो आर्मी का इतना खर्चा हुआ है और न ही ये इतने अनुभवी हैं तो इन्हें ही झोंक दो आतंकवाद के कुंड में। 10-20 साल पुराने मेज़र या कर्नल को भेजेंगे तो कितना महँगा पड़ेगा।

एक और अभिभावक बोले, “बच्चों की शहादत भी स्वीकार कर लें यदि यह ऊँचे और महान उद्देश्य के लिए हो तो पर आप देखिए कि हमारे जवान सरहद पर ख़ून बहाते हैं, एक -एक इंच भूमि के लिए क़ुर्बानी देते हैं और हमारे नेता टेबुल पर बैठकर उसी भूमि पर समझौता कर लेते हैं, जिसके लिए हमारे जवान शहीद हुए थे। क्या वे सोचते हैं कि उस भूमि को लौटाने का हक उन्हें किसने दिया है? और यदि वे जीती हुई भूमि लौटाते हैं तो हमारे जवानों की ज़िन्दगी भी वापस लौटाएँ। दरअसल - जब तक इन नेताओं के ख़ुद के बेटे नहीं शामिल होंगे आर्मी में, ये नहीं समझ पाएँगे शहीदों के दर्द को।

भाई, इनके बेटे क्यों जाएँगे आर्मी में? इनके पास पैसों की क्या कमी? ये तो हम जैसों के बच्चे ही जाते हैं कि चलो, पक्की नौकरी तो मिली। अब आप ही देखिए, बाहर के किसी प्राइवेट कॉलेज से इंजीनियरिंग करवाने भेजते आप सन्दीप को तो नहीं तो भी साल के लाख, डेढ़ लाख तो ठुक ही जाते। यहाँ न केवल मुफ़्त में इंजीनियर हो जाएगा वरन हाथ खर्च भी मिलेगा।

अन्तर्मन हिल उठा शेखरबाबू का। गर्दन कटे मुर्गे की तरह वे फड़फड़ाए। क्या सुन रहे हैं वे। कहाँ झोंक दिया कलेजे के टुकड़े को? पहली बार आत्मग्लानि हुई। काश, वित्त सत्य ही जीवन सत्य न होता तो बेटा यूँ हाथ से न निकलता। आख़िर आर्मी ज्वाइन करने का उसका अहम कारण यही था कि उसने अपने पिता के जीवन को नकारना चाहा था। बहरहाल, राहत की बात थी तो सिर्फ़ यही कि सन्दीप का दाख़िला चूँकि विशेष टेक्निकल स्कीम के अन्तर्गत हुआ था इस कारण उसे लेफ़्टिनेंट बनाकर चार साल के लिए मऊ भेज दिया था - इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए।

नयीवर्दी। नये सफ़र की पहली उड़ान।

फ़ख्र से देखा उसने अपनी चमचमाती वर्दी को, मेटल को चमचमाते अक्षरों से लिखा गया था जिस पर - सिग्नल!

रात उसे अपने सभी वरिष्ठ अधिकारियों की उपस्थिति में शपथ दिलायी गयी थी, आर्मी की वह प्रसिद्ध शपथ...।

‘मेरी ज़िन्दगी भारत के राष्ट्रपति के नाम समर्पित रहेगी। मैं उसी के लिए जीऊँगा और अपना हित सबसे अन्त में सोचूँगा।’

एकाएक मोबाइल पर मैसेज चमका 'Rajori & Phulgam police, 31RR 62 RR & 4 para in a joint operation killed 2 militants between saipathri & Ardwas area in the hills of SHOPIAN (INAM - UN- NABI)।’ वे चौंके। वे चमके। वे हड़बड़ाए। सिर को एक झटका दिया उन्होंने और अतीत की गुफ़ा से बाहर निकले। मैसेज को फिर दुबारा पढ़ा और एक नज़र अपनी सिटीजन घड़ी पर डाली। और बुदबुदाए - उफ़! कितना गहरे उतर गये थे वे स्मृतियों के समुद्र में। कितनी दूर तक चले गये थे वे। पिछले 15 वर्षों में जाने कितनी बार ज़ेहन से गुज़र चुकी है वह शपथ जिसे उन्होंने तब ली थी जब वे महज़ 18 वर्ष के थे। दुनिया अबोध और अनजान थी और फ़ौज का जादू सिर पर सवार था। पर अब जाकर खुले हैं उस शपथ के अर्थ अपने सम्पूर्ण विस्तार और आयाम में आज चौंतीस वर्ष की उम्र में।

काश! उस समय समझ पाते वे उस शपथ और आर्मी का अर्थ। पर यही तो विडम्बना है जीवन की। जब तक आप जीवन के क़रीब नहीं आते, उसमें गहरे नहीं धँसते कहाँ समझ पाते हैं और जब तक आप समझ पाते हैं कि ज़िन्दगी को समझने के लिए जिन रास्तों का चुनाव किया था आपने, वे सही नहीं थे, आप इतनी दूर निकल चुके होते हैं कि वापस लौटने के सारे रास्ते बन्द हो चुके होते हैं। समय हाथ से निकल चुका होता है। उन्होंने भी तो कहाँ समझा था फ़ौजी होने का अर्थ। यदि कश्मीर के गुंड, जैसे संवेदनशील इलाकों में, राष्ट्रीय राइफल्स 14 के अन्तर्गत पोस्टिंग नहीं होती तो क्या ख़ुद वे भी कभी समझ पाते फ़ौजी होने के अर्थ उसके सम्पूर्ण विस्तार और आयामों में।

राष्ट्रीय राइफल्स 14 के बेस कैम्प बूशन में बनी अपनी लकड़ी की ख़ूबसूरत कॉटेज से बाहर निकलते हुए सोच रहे हैं मेज़र सन्दीप। नज़रें, फिर फूलों, पत्थरों और सेब-अखरोट के पेड़ों से होती हुई सामने के बोर्ड पर अटक जाती हैं जिस पर कुछ दिशा-निर्देश कमांडिंग अफ़सर कर्नल केदार आप्टे ने लिखित रूप से टँगवा रखे हैं, जिससे हर कम्पनी कमांडर और हर जवान नियमित रूप से पढ़ सके। बड़े सख़्त और अनुशासन-प्रिय हैं कर्नल केदार आप्टे। चौथी पोस्टिंग है उनकी कश्मीर में। कहते हैं कि कश्मीर में मिलिटेंसी को कंट्रोल करने में कर्नल आप्टे जैसे ज़िम्मेदार अफ़सरों का बहुत बड़ा योगदान है।

लकड़ी के बने बोर्ड पर चिपकाए हुए दिशा -निर्देश बड़े दिलचस्प लगते हैं मेज़र सन्दीप को। तल्लीन हो पढ़ने लगते हैं वे। सबसे ऊपर लिखा है - Co's cornerÐ उसके नीचे दिये गये हैं कई तरह के निर्देश।

वाह! क्या बात है। यह कश्मीर है या गुरुकुल। लड़कियों से बात की भी मनाही? यह तो सरासर अन्याय है जवानों के साथ। मन-ही-मन चुटकी ली सन्दीप ने और फिर दाद दी कर्नल केदार आप्टे को। वाह गुरु! हर आदेश लिखित रूप में जिससे कोई ‘मालूम नहीं था’ की आड़ नहीं ले सके।

वे दूसरा Co's corner पढ़ने लगे, वह भी उतना ही दिलचस्प था।

कम्पनी कमांडर को गाँव के प्रत्येक घर के सदस्यों की पूरी जानकारी होनी चाहिए। हर घर में कितने सदस्य हैं और वे क्या काम करते हैं। वो तो होनी ही चाहिए... मन-ही-मन मुस्कराए मेज़र सन्दीप और आगे पढ़ने लगे।

- एक्टिव/किल्ड/सरेंडर्ड/मिसिंग मिलिटेंट और उनके भाई-बहन और क़रीबी रिश्तेदारों की भी पूरी जानकारी रखें।

- पूरे गाँव का स्केच मैप अपने दिमाग़ में रखे। नये-नये रास्तों पर चलें। एक ही रास्ते पर चलने से मिलिटेंट आप पर कभी भी आक्रमण कर सकता है। गाँव से होकर जाने के बजाय खेत, जंगल और नदी के रास्ते जाएँ।

- हम लड़ाई पैरों से नहीं (मिलिटेंट के पीछे भागकर) वरन दिमाग़ से लड़ते हैं।

दिमाग़ को तो आर्मी ने कंडीशंड कर दिया है। आर्मी वही सोचती है जो उससे सत्ता सोचवाती है... अपने आप से बतियाते हुए आगे बढ़ते हैं मेज़र कि नम्बर एक और निर्देश पर पड़ती है।

चार तरह की ख़बर

वाह! ख़बरों को भी वर्गीकृत कर दिया। बड़े मनोयोग से पढ़ने लगते हैं वे।

Actionable Information - यानी मिलिटेंट इस घर में उस जगह बैठे हैं या आनेवाले हैं। ऐसी ख़बर बहुत कम मिलती है। इसपर तुरन्त एक्शन करना होता हैं।

Recent Information - यानी मिलिटेंट कल उस घर में आये थे। वहाँ ठहरे थे। इन उन लोगों से इनके सम्बन्ध हैं।

मैं अपनी कम्पनी से recent information की उम्मीद रखता हूँ।

Background Information - जब से मिलिटेंसी शुरू हुई है। किन-किन लोगों ने उन्हें सहायता की। किन-किन परिवारों से मिलिटेंट निकले।

जेनरल इनफॉर्मेशन - गाँव में कहाँ क्या बन रहा है। नये रास्ते, नये मकान कौन बनवा रहा है।

Co's Corner

- श्रीनगर से जम्मू जाने के लिए कोई भी जवान सिविल वेहिकल से न जाए। एक बार आठ जवान टाटा सूमों से जा रहे थे। किसी टिप्पर ने टक्कर दी, जिससे गाड़ी दुर्घटनाग्रस्त हुई और पाँच जवान शहीद हो गये। पता चला कि वह टिप्पर मिलिटेंट ने भेजा था। आपको जल्दी हो तो आप मुझे कहें मैं आपको बाई एयर भिजवा दूँगा।

जीओ मेरे सी.ओ. आपके इन निर्देशों को सलाम। शायद इसी कारण आपकी पोस्टिंग के दौरान कैजुअल्टी कम-से-कम हुई। शायद मैं भी ज़िन्दा बच जाऊँ। मन-ही-मन फिर पीठ ठोकी उसने सी.ओ. की। वह दाईं ओर मुड़ा। यहाँ भी निर्देश थे, जवानों के लिए। वह पढ़ने लगा।

कमान अधिकारी के आदेश :

- प्रत्येक जवान को एक दोस्त बनाना चाहिए।

- लड़ाई दिमाग़ से लड़ें न कि पैरों से।

- ऑपरेशन एक शिकारी की तरह करें ना कि एक चौकीदार की तरह।

- Co's Corner नियमित रूप से पढ़ें और उसका पालन करें।

- HHTI, Search Light, PNVD, NI SIGHT तथा अपने इलाके की जानकारी से अपनी ताक़त को मिलिटेंट की ताक़त से ज़्यादा रखें।

- Field craft/ Battle craft का प्रयोग करें।

- ऑपरेशन पर जाने से पहले ब्रिफिंग वापसी पर डीब्रिफिंग और ऑपरेशन का अभ्यास करें।

- बॉडी सिस्टम अपनाएँ।

सन्दीप को अच्छा लग रहा था। बूशन बेस कैम्प में घूमना। कुछ दिन पहले ही आया है वह यहाँ, चार्ली कम्पनी का कम्पनी कमांडर बनकर। यूँ पोस्टिंग उसकी गुंड गाँव में है। पर बीच -बीच में रिपोर्टिंग के लिए आना पड़ता है उसे हेड र्क्वाटर बूशन में जो राष्ट्रीय राइफल्स 14 का आधार कैम्प है।

अफ़सरों और जवानों को लिखित रूप से सम्बोधित इन निर्देशों को पढ़ते-पढ़ते कई बार वह झाँक चुका है कमांडिग ऑफ़िसर कर्नल आप्टे के कक्ष में। बाहर लाल बत्ती जल रही है यानी उसे हरी बत्ती के जलने तक प्रतीक्षा करनी है।

घूमते-घूमते वे मुख्य द्वार तक पहुँचे। उन्होंने देखा, आर्मी के कई कन्वॉय निकल रहे हैं। चूँकि अभी यहाँ वे नये-नये थे। पीस पोस्टिंग से एकदम अलग होती है फ़ील्ड पोस्टिंग, इस कारण समझ नहीं पाए वे कि आर्मी की गाड़ियों का यह काफिला नियमित पेट्रोलिंग के निमित्त है या किसी विशेष ऑपरेशन के तहत। तभी उन्होंने देखा कैप्टन आनन्द को, जो राँची पोस्टिंग के दौरान उनके साथ थे। उन्होंने पूछा... क्या कोई ऑपरेशन?

“नहीं सर, ऑपरेशन पर तो हम छिपकर जाते हैं जिससे कि हरामियों को सुराख भी नहीं मिल सके, यह तो दिखाने के लिए है क्योंकि कई बार शेर को दहाड़ना पड़ता है जिससे गीदड़ दुबका रहे।”

बहुत ख़ूब! यहाँ तो सबकी बेल्ट कसी हुई है।

सन्दीप मुस्कराए और आगे बढ़ने लगे।

बूशन कैम्प के भीतर दो छोटे-छोटे मन्दिर बने हुए थे। बाहर छोटा-सा मेटल का बोर्ड चमक रहा था, जिस पर काले पत्थरों से लिखा हुआ था - सर्वधर्म स्थल। उस पर आर-आर का इम्बेलम - वीरता और दृढ़ता।

विचारों की झील में फिर तैरने लगे मेज़र सन्दीप। अभी तक राँची और मथुरा पोस्टिंग ही देखी थी उन्होंने और संयोग से दोनों ही पीस पोस्टिंग थी, इस कारण वहाँ का माहौल यहाँ से एकदम अलग था। वहाँ का इम्बेलम भी था ‘वीरता और विवेक’। यहाँ विवेक की जगह दृढ़ता ने ले ली थी। शायद इसलिए कि आतंकवाद से निपटने के लिए विवेक नहीं, दृढ़ता चाहिए। पर क्यों? क्या वीरता, विवेक और दृढ़ता तीनों एक साथ नहीं चल सकते? प्रश्न फिर किसी कीड़े-सा उनके दिमाग़ में टँगा। मन्दिर देखकर भी उन्हें सुखद आश्चर्य हुआ। यूँ भी उसने देखा था आर्मी वाले सबसे अधिक ईश्वर भक्त और नियतिवादी होते हैं। शायद इसलिए कि हर पल उनका जीवन सलीब पर टँगा होता है। जीवन के इन ख़तरों को ईश्वरीय अस्तिकता और नियतिवाद के सहारे ही झेला जा सकता है। उसने देखा था, हर ऑपरेशन के पूर्व ‘जय बजरंग बली’ जैसे उद्घोष। फ़ौजी ईश्वर भक्त ही नहीं होता वरन बहुत हद तक उन सभी आस्थाओं - ईश्वर, भाग्य, पुनर्जन्म, ग्रहों की शान्ति, स्वप्न, चमत्कार आदि में विश्वास करता है जो भारतीयता के नाम से जानी जाती हैं। उसे याद आया, एक बार जब वह अपने दोस्त के साथ गैंगटॉक घूमने गया था तो उसने गैंगटोक की सुप्रसिद्ध झांगु लेक से ज़्यादा बाबा के मन्दिर का नाम सुना था। मन्दिर पहुँचकर और उस मन्दिर निर्माण के पीछे की हक़ीकत जान वह हैरत में पड़ गया था। वह मन्दिर 23वीं पंजाब रेजीमेंट के फ़ौजी सिपाही हरभजन सिंह की याद में बना था। किसी फ़ौजी जवान की स्मृति में फ़ौजियों द्वारा बनाया गया देश में इकलौता मन्दिर। जितना अद्भुत मन्दिर उससे ज़्यादा अद्भुत इसके निर्माण की कहानी। क़िस्सा कोताह यह कि 4 अक्टूबर 1968 के दिन सिपाही हरभजन सिंह रसद लेकर बटालियन मुख्यालय से नाथुला बार्डर के क़रीब डेंग चुकता जा रहे थे कि एक पहाड़ी नदी के तेज़ बहाव में डूब गये। उनका शव बरामद नहीं हुआ। कुछ दिनों बाद वे अपने साथियों के स्वप्न में प्रकट हुए और उनसे कहा कि वे उनकी स्मृति में वहीं मन्दिर बनवा दें तो उनकी आत्मा को शान्ति मिल जाएगी। मन्दिर बनवा दिया गया। उसके बाद वे अपने साथियों को स्वप्न में दिखना बन्द हो गये। हर टुकड़ी, रेज़िमेंट, ब्रिगेड... जिन्हें नाथुला बोर्डर पर तैनात किया जाता है, अपनी सलामती के लिए बाबा हरभजन सिंह से मन्नत माँगते हैं। मन्दिर के बाहर मन्नत माँगते शब्द मुद्रित थे। फ़ौजी आज भी मानते हैं कि उनकी मृत्यु नहीं हुई कि वे उनके साथ हैं। आज भी हर महीने उनकी तनख़्वाह उनकी पत्नी के पास पहुँचा दी जाती है। हर जीवित फ़ौजी की तरह उनकी भी पदोन्नति होती है। उन्हें घर जाने की छुट्टी मिलती है। ट्रेन की आरक्षित बर्थ पर उनकी वर्दी घर आती-जाती रहती है। हर साल उनकी पुण्यतिथि के दिन जीप का स्टियरिंग अपने आप हिलने लगता है। फ़ौजियों का विश्वास है कि बाबा इसे चला रहे हैं।

उसने देखा, भीतर आरती गायी जा रही है। वर्दी में जवान, धोती-कुर्ते में सैनिक पुजारी थे। उसे ध्यान आया मुख्य द्वार के सबसे ऊपर उसने देखा था, लिखा हुआ - कर्म ही धर्म। सचमुच धर्म इस देश की आत्मा है। चाहे डॉक्टर हो, फ़ौजी हो या धुर दक्षिण बिहार का आदिवासी। धर्म और ईश्वर की सबको ज़रूरत पड़ती है। क्योंकि धार्मिक आस्था और नियतिवाद आदमी को कुछ हद तक भयमुक्त, बेफ़िक्र और स्थितियों के प्रति स्वीकृत भाव पैदा कर मन को स्थिरता दे देता है। अब बाहरी उत्पात को तो फ़ौजी सँभाल ले पर उस भटकाव, बेचैनी और फड़फड़ाहट का क्या करे वह जो उसके भीतर के आसमान में निरन्तर होती रहती है। आम फ़ौजी की आन्तरिक आकाश गंगा को स्थिर रखने के लिए चाहिए कोई भगवान, कोई आस्था, कोई मन्त्र, कोई बोधिवृक्ष।

विचार जाल में क़ैद परिन्दों की तरह इस तेज़ी से फड़फड़ा रहे थे कि वह हैरान था। कश्मीर की सुन्दरता जहाँ झड़ते फूलों की पंखुड़ियों की तरह ज़िस्म पर बरसती है वहीं ऋषि कश्यप की यह भूमि बाध्य करती है सोचने के लिए भी। चिन्तन के लिए भी। उसने सोचा और मुड़ गया अपने कमांडिंग अधिकारी कर्नल केदार आप्टे के चेम्बर की तरफ़। कर्नल के चेम्बर के बाहर अभी भी लाल बत्ती जल रही थी। हो चुकी आज मुलाक़ात, उसने मुँह बनाया और क़दम वापस मोड़े। अंगरक्षक को साथ में ले फ़ौजी गाड़ी में बैठ वह वापस गुड गाँव की ओर जहाँ उसकी पोस्टिंग थी। उसकी कम्पनी थी, चार्ली कम्पनी जिसका था वह कम्पनी कमांडर।

जैसे ही घुसा वह कैम्पस के बाहर के खुले अहाते में, उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा सामने उसका छोटा भाई सिद्धार्थ, उकताया, थका -

“अरे तू! तू कब आया? और इस प्रकार बिना सूचना के? यहाँ कश्मीर में बिना सूचना के आना अपराध है।” बोलते-बोलते लिपट गया वह भाई से।

“सूचना देता कैसे? यहाँ तो मोबाइल भी नहीं चलता। पर पहले मुझे अन्दर तो घुसा। घंटे भर से खड़ा हूँ बाहर। बोर हो गया हूँ पीठ पर घास के गट्ठर लादे इन कश्मीरी औरतों को देखते देखते।” हँस दिया मेज़र “चल अब कुछ अच्छा दिखाता हूँ।”

“अजीब बन्दे हैं तेरे भी। मैं विश्वास दिला-दिला कर थक गया कि मैं मेज़र सन्दीप का छोटा भाई हूँ लेकिन सुनते ही नहीं। एक ही रट, हमें ऑर्डर नहीं। भीतर एंट्री तो मेज़र साहब के आने पर ही मिलेगी। बाप रे! इतनी सिक्यूरिटी! इन्हें क्या हर बन्दा मिलिटेंट ही नज़र आता है।”

फिर मुस्कराया मेज़र। भाई का नया-नया जन्मा आश्चर्य, उसे अपने प्रारम्भिक दिनों की याद दिला रहा था। बड़े-से लोहे के दरवाज़े के आगे पड़ी क़रीब 15 फुट लम्बी लकड़ी की भारी -भरकम आड़ी पड़ी बाड़ ऊपर उठायी गयी। वे और भाई अन्दर घुसे। बाहर के दरवाज़े पर तैनात गार्ड से भाई का परिचय करवाने ही लगा था सन्दीप कि तभी पीछे से सुना उसने - अजहर साहब, देखिए, कितनी मीठी हैं ये चेरियाँ। ख़ास आपके लिए ही लाया हूँ इन्हें।” हलके पठान सूट में लिपटा कोई कद्दावर स्थानीय कश्मीरी दुकानदार था। हाथ में चेरी का पैकेट। मनुहार कर रहा था सन्दीप से उन्हें ख़रीदने के लिए।

बिना विशेष बात किये सन्दीप ने फटाफट पैकेट लिए उसके हाथ से, और सौ का एक नोट थमा उसे आनन-फानन में चलता किया।

सबकुछ बड़ा रहस्यमय लग रहा था सिद्धार्थ को। यह सन्दीप अजहर कैसे बन गया? बात क्या है? क्या पहचान भी बदल देती है आर्मी?

हँस दिया सन्दीप। तुम कश्मीर की जमीं पर हो और कश्यप मुनि के नाम पर बने इस कश्मीर का मतलब मेरे अनुसार है करिश्मा। अभी तो जाने क्या-क्या देखोगे तुम। मुझे भी यहाँ आकर पहली बार हिन्दुस्तानी होने का मतलब और आउटसाइडर होने का एहसास एक साथ हुआ।

आउटसाइडर? क्या मतलब? अविश्वास से फिर देखा सिद्धार्थ ने सन्दीप की ओर।

चल पहले अन्दर अपने क्वार्टर में। तुझे भी भूख लगी होगी। बनवाते हैं प्याज़ के पकौड़े और चाय। कश्मीर की बात तो नहीं चाहते हुए भी यहाँ होती ही रहेगी, पहले बता घर में सब कैसे हैं। माँ की तबीयत कैसी है?

अखरोट और सेब के पेड़ों से घिरा भाई का सिंगल बेड वाला कॉटेजनुमा क्वार्टर। पहली नज़र में बड़ा रमणीय लगा सिद्धार्थ को। पृष्ठभूमि में पसरा हिमालय। मुग्ध हो होकर देखता रहा वह आसपास को। जीता रहा भाई के साथ गुज़रे वक़्त को। भाई बहलाता रहा उसे कश्मीर में, यहाँ की वादियों और घाटियों में, पर सिद्धार्थ मरा जा रहा था, उस रहस्य को पूरे विस्तार से जानने में जिसने भाई को मेज़र सन्दीप से अजहर साहब बना डाला था। फिर पूछा उसने - भाई, पहले यह बताओ कि वह चेरीवाला तुम्हें अजहर साहब क्यों कह रहा था। जाने क्या हुआ कि मैं चुप्पी मार गया वरन मेरे मुँह से तो शायद निकल ही जाता कि यह मियाँ नहीं, सन्दीप है।

फिर टालना चाहा सन्दीप ने उसे, “अरे भाई, अपना काम आसान करने के लिए और क्या। भाई, यह कश्मीर है यहाँ पाँव रखते ही लोगों के भीतर सरसराहट होने लगती है। किसी के भीतर नेहरू बहने लगते हैं तो किसी के भीतर शेख अब्दुल्ला तो किसी के भीतर महाराज हरीसिंह। तो किसी के भीतर श्यामा प्रसाद मुखर्जी। बड़े-बड़े लोगों की बड़ी-बड़ी गलतियाँ! इन्हीं को भुगत रहा है आज कश्मीर का छोटा -छोटा आदमी।”

“टालो मत भैया, तुम नहीं बताओगे तो मैं तुम्हारे साथियों से, जवानों से पूछूँगा पर जानकर मैं हर सूरत में रहूँगा।”

“अच्छा!” गहरे से देखा सन्दीप ने और साफ़ पढ़ा सिद्धार्थ के चेहरे पर पुती उस इबारत को जहाँ डर, आशंका, जिज्ञासा और ख़ौफ़ के मिले-जुले भाव थे। शब्द-शब्द को सावधानी से उठाते हुए कहने लगा, “सन्दीप, देखो सुरक्षा की दृष्टि से ज़रूरी है कि यहाँ के स्थानीय लोग जैसे फलवाले, सब्ज़ीवाले, राशनवाला, केसर-चेरी बेचनेवाले यहाँ तक कि शॉल-कालीन बेचनेवाले भी मुझे मुसलमान यानी मोहम्मद अजहर समझें, हिन्दू नहीं। क्योंकि हमें गाँव के चप्पे-चप्पे की जानकारी रखनी होती है। कौन आया? कौन गया? कौन किससे मिलता है, किस घर से आतंकवादी निकला? किसके तार जुड़े हैं आतंकियों से। किस घर में कितने लोग हैं? कौन क्या करता है? किसकी अन्दरूनी हालत कैसी है? किसके यहाँ नया पैसा आया? नया बच्चा आया? तो इसके लिए ज़रूरी है कि हम इनके बीच पानी के बीच मछली की तरह घुल-मिल जाएँ। अब यहाँ के ज़बरदस्त एंटी-हिन्दू वातावरण में यह कैसे सम्भव है। यह तो माशा अल्लाह तभी सम्भव है जब हम हिन्दू न दिखें।”

ध्यान से देखा सिद्धार्थ ने, सन्दीप ने हलकी-सी बकरा दाढ़ी बढ़ा ली थी और उसकी बोली-ठानी में भी बदलाव दिख रहा था। बात-बात पर अँग्रेजी की दुम लगानेवाला सन्दीप अब बात -बात पर माशा अल्लाह, इंशा अल्लाह, सुभान अल्लाह कहने लगा था।

गहरी साँस छोड़ते हुए कहा सिद्धार्थ ने - तुम तो कह रहे थे कि अब कश्मीर में हालात काबू में आ रहे हैं।

जम्हाइयाँ लेते हुए जबाब दिया सन्दीप ने - नो डाउट, पहले से स्थिति काफ़ी सुधरी है। 1992-1993 में तो श्रीनगर एक मुर्दा शहर लगता था। था भी वह आतंकवाद का बूम पीरियड। एक जीता-जागता क़ब्रिस्तान। आये दिन बम विस्फोट। ख़ून-खराबा। मुठभेड़। शाम घिरते ही श्रीनगर भूतहा शहर बन जाता। रेस्तराँ बन्द। सिनेमाघर बन्द। दहशत के मारे लोग घरों में बन्द। लड़कियाँ बुर्कें में बन्द। दहशतगर्दों ने तब एक फ़तवा जारी किया था - बुर्का या एसिड। तब हर मिलिटेंट एक हीरो था। भगत सिंह था। उन दिनों यहाँ हर मस्जिद से बम फूटता था। खुले आम नारे लगते थे - अल्लाह हो अकबर। हिन्दुस्तानी कुत्ते वापस जाओ। कश्मीर की मंडी रावलपिंडी। उबल रहा था श्रीनगर उन दिनों। हर नुक्कड़ पर मिलिटेंट और हर मस्तिष्क में घृणा थी। तब हर गली और नुक्कड़ पर मुजाहिदीन घात लगाकर बैठे होते थे कि कब आर्मी गुज़रे और वे फायर करे। दिन में चार-चार विस्फोट होते। तब लोग खुले आम कहते थे कि कश्मीर में हिन्दुस्तान के साथ-साथ पाकिस्तान की करेंसी भी चलनी चाहिए। है आज किसी में यह कहने की हिम्मत! तुम इसी से अन्दाज लगा लो, कि तब पूरे सीजन में कोई भी सैलानी नहीं आता था। ...उदास खड़े रहते थे ये शिकारे, ये बारजे। जगह -जगह पाकिस्तानी झंडे लगे रहते। दीवारों पर जगह-जगह लिखा मिलता, ‘ला इलाहा इलल्लाह। आज़ादी का मतलब है - ला इलाहा इलल्लाह। आज देखो श्रीनगर कितना दौड़ रहा है। कितने सैलानी आ रहे हैं। कितने नये होटल, नये भोजनालय यहाँ तक कि वैष्णव भोजनालय और शराब की दुकानें तक खुल गयी हैं। वह उबलता ख़ौफ़नाक समय अब घाटी में कभी नहीं आएगा।

पर वह समय भी आया क्यों?

क्या? हैरान था सन्दीप। क्या तुम कश्मीर का इतिहास नहीं जानते?

जानता हूँ, पर शायद तुम लोगों जितना नहीं।

सोच में पड़ गया सन्दीप। कहाँ से शुरू करें? इस अनेक परतों वाली कश्मीर समस्या को ख़ुद वह भी क्या समझ पाया है पूरी तरह से? आँखें पीछे घूम गयीं शायद हालात इतने भी गम्भीर नहीं हुए होते यदि सही नीयत, संवेदना और सावधानी के साथ क़दम उठाए गये होते।

कुछ देर मौन। चेहरे पर पीड़ा उभरी। आँखें पीछे घूमीं। धीरे-धीरे कहने लगे वे - नृत्यों, गीतों और ग़ज़लों से गूँज उठने वाली यह घाटी 87-88 तक ऐसी नहीं थी। तब तक झेलम झेलम थी। इनसानी ख़ून से लाल नहीं हुई थी। और न ही तब आज की तरह चप्पे-चप्पे पर बुलेटप्रूफ जैकेट पहने सीने को तीन-तीन ईंच आगे बढ़ाए जवान तैनात थे। तब हवा खुलकर बहती थी यहाँ। उन्हीं दिनों जे.के.एल.एफ के कुछ टपोरीनुमा कच्चे आतंकवादियों ने गृह मन्त्री मुफ़्ती मोहम्मद सईद की जवान पुत्री डॉ. रुबैया का अपहरण कर लिया। रुबैया के बदले उन्होंने अपने पाँच खूँखार आतंकवादियों को रिहा करने की माँग की। हाँ, यह वाक़या 13 सितम्बर 1989 का था। यहीं से शुरुआत हुई अपराध, अपहरण और ख़ून-खराबे के नये दौर की। इनसानी चीख़ों की। घाटी में होने वाला यह पहला अपहरण था और कश्मीर की सूफी मानसिकता वाला अवाम भी इस तरह एक जवान लड़की के अपहरण के पक्ष में नहीं था। चौतरफ़ा इसकी निन्दा भी होने लगी थी और इसकी सम्भावना नहीं के बराबर थी कि उग्रवादी सचमुच उसे नुकसान पहुँचा सकते हैं क्योंकि उन पर भी ज़बरर्दस्त दबाव था कि इस कांड से निकलने का कोई इज़्ज़तदार तरीक़ा वे निकाल लें। पर इस देश का दुर्भाग्य कि भारत सरकार ने चूहे जितनी भी हिम्मत नहीं दिखायी। सुरक्षा सलाहकारों ने, भारतीय आर्मी ने यहाँ तक कि स्थानीय पुलिस ने भी भारत सरकार को भरोसा दिलाया कि वे उग्रवादियों की शर्त न मानें क्योंकि यदि वे उग्रवादियों के आगे झुक गये तो आनेवाले समय में उग्रवाद कितनों की गर्दन दबोचेगा इसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था। लेकिन जनाब तब किसको फ़िक्र थी कश्मीर की या भारतीय जवानों की। गृहमन्त्री को चिन्ता थी तो सिर्फ़ अपनी लाड़ली की। सुरक्षाकमियों, फ़ौज और पुलिस सभी की सलाह को धत्ता बताए हुए नकारा सरकार झुक गयी। इन टपोरीनुमा उग्रवादियों के सामने। टेक दिये घुटने। छोड़ दो बिटिया को, हम छोड़ देंगे तुम्हारे पाँच-पाँच खूँखार उग्रवादियों को।

सरकार क्या झुकी, फिजाँ ही बदल गयी घाटी की। आतंकवाद अब लहरों पर सवार था। और उनका मनोबल आसमान पर। ख़बर जंगली आग की तरह फैली कि जरा-सा सर्कस थोड़ी-सी धमकी और पाँच-पाँच आतंकवादी वापस। श्रीनगर की सारी आबादी उतर आयी सड़कों पर जश्न मनाने और देखते ही देखते शान्त समुन्दर में बवंडर पैदा हो गया। घाटी की दीवारें आज़ादी की माँग से रँग गयी। दीवारों पर कुरान की आयतें लिखी जाने लगी। लोगों से जिहाद में शामिल होने की अपील की जाने लगी। हरे झंडे फहराए जाने लगे। हर दिन हज़ारों नये मुजहिद्दीन पैदा होने लगे, जिन्हें लगता कि आज़ादी कन्धे पर बैठा कबूतर है, बस हाथ भर बढ़ाने की देर है। तो हाथ बढ़ाए जाने लगे। ज़्यादा उत्साही आतंकियों ने छापामार लड़ाई शुरू कर दी। कश्मीरी डोगरों और पंडितो को चुन चुन कर घाटी में क्रूरता से मारा जाने लगा। हज़ारों की तादाद में लोग सड़कों पर उतर आये। खुले आम सड़क पर खुली नफ़रत फैलायी जाने लगी। जंग और रंग लाए इसलिए इसमें मजहब का रंग भी डाल दिया गया। देखते-देखते घाटी सुलग उठी। कश्मीरी पंडित और डोगरों को घाटी छोड़ने की धमकी दी जाने लगी। कर्फ़्यू का माहौल शुरू हो गया। सिवाय बम विस्फोटों, वारदातों और गोलियों की आवाज़ों के घाटी में कोई गतिविधि ही नहीं रही। आये दिन बेक़सूर लोगों की मौतों से आम कश्मीरी अवाम का भरोसा दिल्ली की सरकार से उठ गया। इससे अलगवादवाद और आतंकवाद को बढ़ावा मिला। उन दिनों हमारे जवान और अफ़सर बहुत शहीद हुए। चलो मेरे साथ कल तुम्हें दिखाऊँगा शहीदों के स्मारक। बोलते -बोलते भावुक हो गये सन्दीप।

“मुझे तो लगता है, ऊपरी-ऊपरी है यह शान्ति। अंडरकरंट में अभी भी दबी हुई चिनगारियाँ हैं। आग कभी भी भड़क सकती है।”

सिद्धार्थ पर अख़बारी ख़बरों का असर था। सप्ताह भर पूर्व ही पढ़ा था उसने सोपोर में हुई एक मुठभेड़ के बारे में जिसमें आर्मी के एक कैप्टन शहीद हो गये थे।

“नहीं, ऐसी बात नहीं है। अब लोग थक गये हैं, ऊब गये हैं मिलिटेंसी से और सबसे बड़ी बात तो यही कि अब वे भी समझ रहे हैं कि उनका इस्तेमाल हो रहा है। तुम्हें एक घटना बताता हूँ। घटना हमारे सीनियर कर्नल आप्टे के साथ हुई थी। वे बताते हैं कि तब श्रीनगर की सड़कों पर दो से अधिक लोग बात करते तक नज़र नहीं आते थे। श्रीनगर का स्टेडियम क़ब्रिस्तान नज़र आता थीं। पूरे सप्ताह तब सोनमर्ग और गुलमर्ग पर दो बसें नहीं जाती थीं। जबकि आज हर रोज़ 200 बसें गुज़रती हैं। तो उन्हीं दिनों, कर्नल आप्टे ने एक होटल वाले से पूछा... तुम्हारा गुज़ारा कैसे होता है, बिना सैलानियों के, तो उसने हवा में मुट्ठी लहराते हुए कहा था - हम आज़ादी खाते, आज़ादी पहनते और आज़ादी ओढ़ते हैं। तो यह जज्बा था उनका। पर आज का कश्मीरी युवक सत्य जान चुका है। वह अब इस लिजलिजी भावुकता से निकल चुका है, क्योंकि उसकी पीढ़ी ने उसका काफ़ी बड़ा मूल्य चुकाया है। अब तो हालत यह है कि जेहादियों को गाँववाले अपने गाँव में दफनाने तक से भी इनकार कर देते हैं जबकि पहले लोग इनका जुलूस निकालते थे। आज कश्मीरी युवक हिन्दू-मुसलमान के अपने अंडरग्राउंड अँधेरे से निकलकर अपने सैलानियों का स्वागत कर रहा है। देखो आज बस-टैक्सी में जगह नहीं मिलती।”

सिद्धार्थ ने फिर कुरेदा उसे - तो फिर तुम्हें अपना नाम बदलने की, मुसलमान दिखने की ज़रूरत क्यों पड़ी?

“देखो, मेरी बात थोड़ी अलग है। मेरी जिस इलाके में पोस्टिंग है, पहाड़ी इलाका है वह गुंड गाँव श्रीनगर से चालीस कि.मी. दूर। किसी आदिम गाँव-सा पसरा, ऊँघता जहाँ लोग अभी भी सौ साल पुरानी दुनिया में रहते हैं। गारे, लकड़ी और सीमेंट से बने छोटे-छोटे घर और खस्ताहाल दुकानें। यहाँ भोजन कम और बच्चे ज़्यादा पैदा होते हैं। इसलिए यहाँ अशिक्षा और ग़रीबी दोनों ही बहुत हैं। यह वह कश्मीर है जो भूख और युद्ध दोनों का ही मारा है। इस कारण यहाँ लोग वर्तमान में कम और अधकचरे इतिहास, मिथक और कुरान में ज़्यादा रहते हैं। इनकी दुनिया में न टी.वी. है, न रेडियो है, न गीत है, संगीत है और न ही क्रिकेट है। मेरा एक मुस्लिम दोस्त मुझे बता रहा था कि वह जब अपने घर जाता है तो क्रिकेट भी टी.वी. पर चुपके-चुपके देखता है। उसके घर में टीवी तो है पर क्रिकेट देखने की मनाही है क्योंकि इस प्रकार का आमोद-प्रमोद इस्लाम के ख़िलाफ़ है। अब तुम्हीं सोचो, जो गाना नहीं सुनेगा, नाचेगा नहीं, थिरकेगा नहीं, वह तो अपराधी ही न बनेगा। और तो और, इनके लिए देश और राष्ट्र का भी कोई कन्सेप्ट नहीं है, वहाँ सभी या तो इस्लामिक हैं या ग़ैर- इस्लामिक। यहाँ बच्चे जब से होश सँभालते हैं, उन्हें घर में, मदरसे में एक ही पाठ पढ़ाया जाता है - इस्लाम की राह पर चलो, सच्चे जेहादी बनो। तो ऐसे सभी गाँव आतंकवाद के लिए बहुत ही उर्वर इलाक़े हैं क्योंकि यहाँ जिहादी होना न सिर्फ़ परिवार के लिए समृद्ध और ख़ुशहाल होना है, वरन हीनता के मारे ग़रीब और बेरोजगार युवकों के लिए रोबदार होना, प्रतिष्ठित होना और अपनी ही नज़रों में ऊपर उठ जाना भी होता है। ज़ाहिर है ऐसे युवक बहुत जल्दी ही शिकार हो जाते हैं पैसों के, सस्ती लोकप्रियता के और जब तक वे समझ पाते हैं कि जिस ‘इस्लाम ख़तरे में है’ का डर दिखाकर उन्हें आतंकवाद के जाल में फँसाया गया था, वह धोखा था, वे आतंकवाद के अजगर में बुरी तरह जकड़े जा चुके होते हैं।

“तो तुम्हारा मतलब है, यह कहानी कभी ख़त्म नहीं होगी क्योंकि ग़रीबी और अशिक्षा की कोख से उपजे आतंकवाद का सामना तो फ़ौजियों की बन्दूक़ों से हो नहीं सकता है।”

सन्दीप ख़ुश हुआ सिद्धार्थ के जवाब को सुनकर उसे समझाने का मौक़ा मिला। गौरवान्वित होकर वह बताने लगा।

“इसलिए तो हमने सुदूर इलाकों में स्कूल खुलवाए, कॉलेज खुलवाए, मुफ़्त चिकित्सा केन्द्र खुलवाए, मोबाइल एम्बुलेंस चलवाई, और एक वातावरण तैयार किया इससे इतना तो हुआ कि लोकल मिलिटेंसी का हमने बहुत कुछ सफ़ाया कर डाला। आधे से अधिक मिलिटेंट तो मारे जा चुके है। कुछ पाकिस्तान भाग गये और वहीं शरण ले ली। कुछ ने आत्मसमर्पण कर डाला। अब यहाँ जो हैं वह फॉरेन मिलिटेंसी है। अधिकतर पाकिस्तान, अफगानिस्तान, इजिप्ट, यमन और बंग्लादेश से आये हुए हैं, और ये ही लोकल युवकों को जिहाद के नाम पर भड़काते हैं। भोलेभाले कश्मीरी युवक जो वर्तमान के सत्य को स्वीकार कर चुके होते हैं, वापस इनके भड़काने में आ जाते हैं।”