सूरज का सातवाँ घोड़ा / धर्मवीर भारती / पृष्ठ 2

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उपोद्घात

इसके पहले कि मैं आपके सामने माणिक मुल्ला की अद्भुत निष्कर्षवादी प्रेम-कहानियों के रूप में लिखा गया यह 'सूरज का सातवाँ घोड़ा' नामक उपन्यास प्रस्तुत करूँ, यह अच्छा होगा कि पहले आप यह जान लें कि माणिक मुल्ला कौन थे, वे हम लोगों को कहाँ मिले, कैसे उनकी प्रेम-कहानियाँ हम लोगों के सामने आईं, प्रेम के विषय में उनकी धारणाएँ और अनुभव क्या थे, तथा कहानी की टेकनीक के बारे में उनकी मौलिक उद्भावनाएँ क्या थीं।

'थीं' का प्रयोग मैं इसलिए कर रहा हूँ कि मुझे यह नहीं मालूम कि आजकल वे कहाँ हैं, क्या कर रहे हैं, अब कभी उनसे मुलाकात होगी या नहीं; और अगर सचमुच वे लापता हो गए तो कहीं उनके साथ उनकी ये अद्भुत कहानियाँ भी लापता न हो जाएँ इसलिए मैं इन्हें आपके सामने पेश किए देता हूँ।

एक जमाना था जब वे हमारे मुहल्ले के मशहूर व्यक्ति थे। वहीं पैदा हुए, बड़े हुए, वहीं शोहरत पाई और वहीं से लापता हो गए। हमारा मुहल्ला काफी बड़ा है, कई हिस्सों में बँटा हुआ है और वे उस हिस्से के निवासी थे जो सबसे ज्यादा रंगीन और रहस्यमय है और जिसकी नई और पुरानी पीढ़ी दोनों के बारे में अजब-अजब-सी किंवदंतियाँ मशहूर हैं।

मुल्ला उनका उपनाम नहीं, जाति थी। कश्मीरी थे। कई पुश्तों से उनका परिवार यहाँ बसा हुआ था, वे अपने भाई और भाभी के साथ रहते थे। भाई और भाभी का तबादला हो गया था और वे पूरे घर में अकेले रहते थे। इतनी सांस्कृतिक स्वाधीनता तथा इतनी कम्युनिज्म एक साथ उनके घर में थी कि यद्यपि हम लोग उनके घर से बहुत दूर रहते थे, लेकिन वहीं सबका अड्डा जमा करता था। हम सब उन्हें गुरुवत मानते थे और उनका भी हम सबों पर निश्छल प्रगाढ़ स्नेह था। वे नौकरी करते हैं या पढ़ते हैं, नौकरी करते हैं तो कहाँ, पढ़ते हैं तो क्या पढ़ते हैं - यह भी हम लोग कभी नहीं जान पाए। उनके कमरे में किताबों का नाम-निशान भी नहीं था। हाँ, कुछ अजब-अजब चीजें वहाँ थीं जो अमूमन दूसरे लोगों के कमरों में नहीं पाई जातीं। मसलन दीवार पर एक पुराने काले फ्रेम में एक फोटो जड़ा टँगा था : 'खाओ, बदन बनाओ!' एक ताख में एक काली बेंट का बड़ा-सा सुंदर चाकू रखा था, एक कोने में एक घोड़े की पुरानी नाल पड़ी थी और इसी तरह की कितनी ही अजीबोगरीब चीजें वहाँ थीं जिनका औचित्य हम लोग कभी नहीं समझ पाते थे। इनके साथ ही साथ हमें ज्यादा दिलचस्पी जिस बात में थी, वह यह कि जाड़ों में मूँगफलियाँ और गरमियों में खरबूजे वहाँ हमेशा मौजूद रहते थे और उसका स्वाभाविक परिणाम यह था कि हम लोग भी हमेशा वहाँ मौजूद रहते थे।

अगर काफी फुरसत हो, पूरा घर अपने अधिकार में हो, चार मित्र बैठे हों, तो निश्चित है कि घूम-फिर कर वार्ता राजनीति पर आ टिकेगी और जब राजनीति में दिलचस्पी खत्म होने लगेगी तो गोष्ठी की वार्ता 'प्रेम' पर आ टिकेगी। कम-से-कम मध्यवर्ग में तो इन दो विषयों के अलावा तीसरा विषय नहीं होता। माणिक मुल्ला का दखल जितना राजनीति में था उतना ही प्रेम में था, लेकिन जहाँ तक साहित्यिक वार्ता का प्रश्न था वे प्रेम को तरजीह दिया करते थे।

प्रेम के विषय में बात करते समय वे कभी-कभी कहावतों को अजब रूप में पेश किया करते थे और उनमें से न जाने क्यों एक कहावत अभी तक मेरे दिमाग में चस्पाँ है, हालाँकि उसका सही मतलब न मैं तब समझा था न अब! अक्सर प्रेम के विषय में अपने कड़वे-मीठे अनुभवों से हम लोगों का ज्ञानवर्धन करने के बाद खरबूजा काटते हुए कहते थे, 'प्यारे बंधुओ! कहावत में चाहे जो कुछ हो, प्रेम में खरबूजा चाहे चाकू पर गिरे चाहे चाकू खरबूजे पर, नुकसान हमेशा चाकू का होता है। अत: जिसका व्यक्तित्व चाकू की तरह तेज और पैना हो, उसे हर हालत में उस उलझन से बचना चाहिए।' ऐसी अन्य कहावतें थीं जो याद आने पर बाद में लिखूँगा।

लेकिन जहाँ तक कहानियों का प्रश्न था, उनकी निश्चित धारणा थी कि कहानियों की तमाम नस्लों में प्रेम कहानियाँ ही सबसे सफल साबित होती हैं, अत: कहानियों में रोमांस का अंश जरूर होना चाहिए। लेकिन साथ ही हमें अपनी दृष्टि संकुचित नहीं कर लेनी चाहिए और कुछ ऐसा चमत्कार करना चाहिए कि वे समाज के लिए कल्याणकारी अवश्य हों।

जब हम लोग पूछते थे कि यह कैसे संभव है कि कहानियाँ प्रेम पर लिखी जाएँ पर उनका प्रभाव कल्याणकारी हो, तब वे कहते थे कि यही तो चमत्कार है तुम्हारे माणिक मुल्ला में जो अन्य किसी कहानीकार में है ही नहीं।

यद्यपि उन्होंने उस समय तक एक भी कहानी लिखी नहीं थी, फिर भी कहानियों के विषय में उनका विशाल अध्ययन था (कम-से-कम हम लोगों को ऐसा ही लगता था) और उनका कहानी-कला पर पूर्ण अधिकार था।

कहानियों की टेकनीक के बारे में उनका सबसे पहला सिद्धांत था कि आधुनिक कहानी में आदि, मध्य या अंत, तीनों में से कोई-न-कोई तत्व अवश्य छूट जाता है। ऐसा नहीं होना चाहिए। उनका कहना था कि कहानी वही पूर्ण है जिसमें आदि में आदि हो, मध्य में मध्य हो और अंत में अंत हो। इनकी व्याख्या वे यों करते थे : कहानी का आदि वह है जिसके पहले कुछ न हो। बाद में मध्य हो, मध्य वह है जिसके पहले आदि हो बाद में अंत हो। अंत उसे कहते हैं जिसके पहले मध्य हो बाद में रद्दी की टोकरी हो।

कहानियों की टेकनीक के बारे में उनका दूसरा सिद्धांत यह था कि कहानियाँ चाहे छायावादी हों या प्रगतिवादी, ऐतिहासिक हों या अनैतिहासिक, समाजवादी हों या मुसलिमलीगी, किंतु उनसे कोई-न-कोई निष्कर्ष अवश्य निकलना चाहिए। वह निष्कर्ष समाज के लिए कल्याणकारी होना चाहिए ऐसा उनका निश्चित मत था और इसलिए यद्यपि उन्होंने जीवन भर कोई कहानी नहीं लिखी पर वे अपने को कथा-साहित्य में निष्कर्षवाद का प्रवर्तक मानते थे। कथा-शिल्प की पूरी प्रणाली वे इस प्रकार बताते थे :

कुछ पात्र लो, और एक निष्कर्ष पहले से सोच लो, जैसे... यानी जो भी निष्कर्ष निकालना हो, फिर अपने पात्रों पर इतना अधिकार रखो, इतना शासन रखो कि वे अपने-आप प्रेम के चक्र में उलझ जाएँ और अंत में वे उसी निष्कर्ष पर पहुँचें जो तुमने पहले से तय कर रखा है।

मेरे मन में अक्सर इन बातों पर शंकाएँ भी उठती थीं, पर निष्कर्षवाद के विषय में उन्होंने मुझे बताया कि हिंदी में बहुत-से कहानीकार इसीलिए प्रसिद्ध हो गए हैं कि उनकी कहानी में कथानक चाहे लँगड़ाता हो, पात्र चाहे पिलपिले हों, लेकिन सामाजिक तथा राजनीतिक निष्कर्ष अद्भुत होते हैं।

मेरी दूसरी शंका कथावस्तु की प्रेम संबंधी अनिवार्यता के विषय में थी। मैं अक्सर सोचता था कि जिंदगी में अधिक-से-अधिक दस बरस ऐसे होते हैं जब हम प्रेम करते हैं। उन दस बरसों में खाना-पीना, आर्थिक संघर्ष, सामाजिक जीवन, पढ़ाई-लिखाई, घूमना-फिरना, सिनेमा और साप्ताहिक पत्र, मित्र-गोष्ठी इन सबों से जितना समय बचता है, उतने में हम प्रेम करते हैं। फिर इतना महत्व उसे क्यों दिया जाए? सैर-सपाटा, खोज, शिकार, व्यायाम, मोटर चलाना, रोजी-रोजगार, ताँगेवाले, इक्केवाले और पत्रों के संपादक, सैकड़ों विषय हैं जिन पर कहानियाँ लिखी जा सकती हैं, फिर आखिर प्रेम पर ही क्यों लिखी जाएँ?

जब मैंने माणिक मुल्ला से यह पूछा तो सहसा वे भावुक हो गए और बोले, 'तुम्हें बांग्ला आती है?' मैंने कहा, 'नहीं, क्यों?' तो गहरी साँस ले कर बोले, 'टैगोर का नाम तो सुना ही होगा! उन्होंने लिखा है, 'आमार माझारे जो आछे से गो कोनो विरहिणी नारी!' अर्थात मेरे मन के अंदर जो बसा है वह कोई विरहिणी नारी है। और वही विरहिणी नारी अपनी कथा कहा करती है - बार-बार तरह-तरह से।' और फिर अपने मत की व्याख्या करते हुए बोले कि विरहिणी नारियाँ भी कई भाँति की होती हैं - अनूढ़ा विरहिणी, ऊढ़ा विरहिणी, मुग्धा विरहिणी, प्रौढ़ा विरहिणी आदि -आदि, तथा विरह भी कई प्रकार के होते हैं - बाह्य-परिस्थितिजन्य, आंतरिक-मन:स्थितिजन्य इत्यादि। इन सबों पर कहानियाँ लिखी जा सकती हैं; और माणिक मुल्ला का चमत्कार यह था कि जैसे बाजीगर मुँह से आम निकाल देता है वैसे ही वे इन कहानियों से सामाजिक कल्याण के निष्कर्ष निकाल देने में समर्थ थे।

हालाँकि माणिक मुल्ला के बारे में प्रकाश का मत था कि 'यार, हो न हो माणिक मुल्ला के बारे में भी हिंदी के अन्य कहानीकारों की तरह नारी के लिए कुछ 'ऑबसेशन' है!' पर यह वह कभी माणिक मुल्ला के सामने कहने का साहस नहीं करता था कि वे उसका सही-सही जवाब दे सकें और जहाँ तक मेरा सवाल है, मैं आज तक उनके बारे में सही फैसला नहीं कर पाया हूँ। इसीलिए मैं ये कहानियाँ ज्यों-की-त्यों आपके सामने प्रस्तुत किए देता हूँ; ताकि आप स्वयं निर्णय कर लें। इसका नाम 'सूरज का सातवाँ घोड़ा' क्यों रखा गया इसका स्पष्टीकरण भी अंत में मैंने कर दिया है।

हाँ, आप मुझे इसके लिए क्षमा करेंगे कि इनकी शैली में बोलचाल के लहजे की प्रधानता है और मेरी आदत के मुताबिक उनकी भाषा रूमानी, चित्रात्मक, इंद्रधनुष और फूलों से सजी हुई नहीं है। इसका मुख्य कारण यह है कि ये कहानियाँ माणिक मुल्ला की हैं, मैं तो केवल प्रस्तुतकर्ता हूँ, अत: जैसे उनसे सुनी थीं उन्हें यथासंभव वैसे ही प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा हूँ।