हमका दियो परदेस / मृणाल पांडे / पृष्ठ 1

Gadya Kosh से
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अथ मयूर कांड

उन दिनों-रात को हम एक लम्बे, खुले बरामदे में सोते, जिसके दोनों छोरों पर जाफरियाँ लगी थीं। मुझे डर लगता रहता कि दीनू, कुक्की और मैं, जाफरी के छेदों में से सरककर नीचे गली में जा गिरेंगे। गली में दिन-भर, अजीब, कुछ डरावने से रिफ्यूजी काफिले गुजरते रहते थे। यह अगस्त, 1947 की बात है। हम दिल्ली में थे।

सेनापति दीन, साढ़े चार बरस की मेरी बड़ी बहन थी। हमारा चचेरा भाई कुक्की पाँच वर्ष का। मोर कांड से उसका कुछ लेना-देना नहीं था, कम-से-कम शुरू में तो। यह हमारे बाबू के भाई का घर था। मेरे चाचा जो कभी भावी चित्रकार और कभी भावी फोटोग्राफर रहे थे, ‘गिल’ के नाम से भी जाने जाते थे क्योंकि मसें फूटने के ज़माने में वे अमृता शेरगिल के बड़े भारी दीवाने रह चुके थे।

हाँ तो मैं कहाँ थी ? याद आया, बरामदे की बात हो रही थी। 1947 के शरद के दिन थे, हमारा चाची का दूसरा बच्चा होनेवाला था। अब भी इतनी गर्मी थी कि उनके अलावा हर कोई खुले में सोना चाहता था। मुझे बस इतना ही याद है कि पानी की चिलमची लिए भागती-दौड़ती एक नर्स हमें भगा रही थी और तभी एक नए जन्मे बच्चे के रोने की आवाज ने मुझे डरा दिया था। उसके बाद मुझे कुछ याद नहीं।

फिलहाल मैं आपको बरामदे के बारे में और बताती हूँ। बरामदे की दीवारें हरे रंग से पुती थीं और उसके फर्श पर लकड़ी के फट्टे लगे थे, दोनों तरफ लगी जाफरी भी हरे रंग की थी। जाफरी पर पुते पेंट की एक मीठी चिपचिपी सी गन्ध थी। उसकी अधसूखी बूँदें लोहे से लटकी रहती थीं। जब हम इन बूँदों को अपनी उँगलियों के बीच दबाते तो उनमें से ताजे हरे खून जैसी पेंट की एक बूँद निकलती।

बरामदा मुझे डराता था। उसके नीचे से सारा दिन, धूल से अटे रिफ्यूजियों के लम्बे-लम्बे कारवाँ गुजरते चले जाते थे। कुक्की और मेरी बहन कूदते हुए आवाजें लगाते रेफूजी ! रेफूजी !! मैं बोल नहीं पाती थी और न ही सब कुछ देख सकने के लिए भरपूर उचक पाती थी। इसलिए मैं अक्सर बिसूरती हुई अपना सफेद तकिया लिए खड़ी रहती जिस पर मेरी लार चूती रहती थी। रात को मैं अक्सर जाग जाती। इससे माँ बहुत ही खीझतीं। उन्हें खिझाना बहुत आसान था, हमेशा ही।

दीनू वह तार थी जो मुझे सृष्टि से जोड़ता था। वह दिन-भर रेलिंग पर खड़ी रहती और लगातार बोलती जाती। वह मुझ से पूरे तीन साल भी बड़ी नहीं थी लेकिन अभी से ही उसकी पकड़ हर चीज पर थी। मैं जानती हूँ कि यह बेतुकी बात है। लेकिन मेरे लिए उसका कहा ब्रह्मवाक्य था, जब तक कि खसरा कांड हमारे जीवन में न आया।

अब खसरे का किस्सा जानने के लिए हम फास्ट-फॉरवर्ड होकर नैनीताल चलते हैं। नैनीताल जो उत्तर प्रदेश के पहाड़ों में बसा एक कस्बा है।