हमका दियो परदेस / मृणाल पांडे / पृष्ठ 2

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नैनीताल। जिस दिन हमारे दादा नहीं रहे, और हमें हमारे नौकर कुशलिया के साथ पहाड़ी की चोटी पर भेज दिया गया था, ताकि हमें पता न चले कि दादा मर गए, तो दीनू ने ही मुझे बताया था कि दादा तो मर गए। हालाँकि मुझे मालूम नहीं था कि इसका क्या मतलब हुआ। लेकिन दीनू की आवाज इतनी गम्भीर थी कि मुझे लगा कि आँसू बहाए जाने जरूरी हैं, और मैंने तुरंत कुछ आँसू बहा दिए।

दीनू का चेहरा दुबला-पीला सा था और उसके घने घुँघराले बाल थे। जब उसने नम हवा में अपना सिर हिलाया तो उसके चौड़े माथे के छोरों पर से लटें ऊपर को उठ गईं और उसके सिर पर एक काले घुँघराले मुकुट की तरह जम गईं। इसलिए उसके बालों के फैलते ही मैं जैसे इशारा सा पाकर रोने लगी और दीनू ने कड़ाई से कहा कि मैं अभी क्या बच्ची ही हूँ ? जब मैं इस पर भी चुप नहीं हुई तो मुझे बहलाने के लिए उसने एक मरी हुई चिड़िया ढूँढ़ निकाली और कहने लगा कि चलो इसे दफनाते हैं। उसने कुशलिया से डंडियाँ ढूँढवाईं जिससे हम चिड़िया को दफनाने के लिए गड्ढा खोद सकें और मुझे बताया कि अब पहले दादा को लाल कपड़े से ढका जाएगा और फिर उन्हें भगवान के पास ले जाया जाएगा, उसके बाद हम कभी उन्हें नहीं देख पाएँगे, इस चिड़िया की ही तरह।

यह सुनकर मैं और रोई क्योंकि मुझे दादा और वो मूँगफलियाँ जो वह मुझे खिलाते थे, बहुत अच्छी लगती थीं। हालाँकि दादा की दाढ़ी मुझे हमेशा चुभती थी, पर मैं रोई इसलिए क्योंकि मैं दीनू की कही हर बात पर विश्वास करती थी। उसने मुझे बताया कि हमारे दादा अब सचमुच के देवता बन गए हैं और रात को वह तारा बन जाएँगे, और यह पहाड़ी जिस पर हम खड़े हैं ना, दादा ने ही हमारे लिए बनाई है। उसने बताया कि सब बड़े लोग असल में तो भूत होते हैं जो दिन में दादा, माँ और बाबू के चेहरे लगा लेते हैं और रात को बत्ती बुझते ही चेहरे उतार फेंकते हैं। इस आखिरी बात पर मैं विश्वास नहीं कर पाई, मेरी हिम्मत ही नहीं पड़ी। पर मैंने उससे कई बार यह बात कहलवाई और हर बार मैं मन-ही-मन कहती— नहीं ! नहीं ! नहीं !

दीनू के पास ऐसी कई डरावनी बातें थीं, पर कई अच्छी-अच्छी बातें भी थीं, जैसे कि उसने हमारे लिए दो बच्चे ढूँढ़ निकाले थे, लक्का और सुन्नी—जो उसके और मेरे बच्चे थे। खाना खाते हुए हम उनकी दुनिया बनाते। भात की ढेरी पहाड़ बनती, उस पर उँडेली दाल ‘उनकी’ नदी और हरी भुज्जी ‘उनके’ पेड़....। हम देर तक इस सब की योजना बनाते और रसोइए कुशल सिंह की खुशामद करके सहजन की फलियाँ और बैंगन के डंठल पकवाते। यह हमारी झूठ-मूठ की मिर्चे होतीं, जिन्हें हो सी-सी करते चबातीं। ताकि लक्का-सुन्नी से कह सकें कि ‘‘नहीं, तुम्हें मिर्चें नहीं मिलेंगी, बाप रे ये तो बहुत तीखी हैं !’’ कभी-कभी जब हम बहुत ही अच्छी बच्चियाँ साबित होतीं तब तो कुशलिया कद्दू के डंठल से हमारे लिए झूठ-मूठ की चिलमें बना देता। उनमें वह अजवायन भरकर ऊपर से अंगारे रखता था ताकि हम भी सचमुच का धुआँ निकाल सकें। हम दादा की नकल करते हुए इन चिलमों को मुट्ठी में दबाकर दम लगाते और खाँसते खों ! खों !’’

हमारे इस कुशल रसोइए कुशलिया की एक सुन्दरी प्रेमिका भी थी, लाल बालों और हरी आँखों वाली मेहतरानी जो शेरकोट, धामपुर की रहनेवाली थी। जब भी हमारे माँ-बाबू नीचे लेट शो की फिल्म देखने जाते, कुशलिया हमें अपनी प्रेमिका के घर ले जाता। वह हमें खाने को गुड़ देती थी और बड़े लोगों के घर लौटने से पहले ही हम घर लौट आते थे। फिर एक बार ऐसा हुआ कि मैं शिशूण की झाड़ी में गिर पड़ी। हमारा भांडा फूट गया और कुशलसिंह को निकाल बाहर किया गया। हमें उसकी बहुत याद आती थी, जब वह गया तो मैं खूब फूट-फूटकर रोई। बाद में उसकी कोठरी से कुछ मनीऑर्डर की रसीदें मिलीं। हर महीने ‘‘तुम्हारा दिवाना-कुशलसिंह’’ ‘‘दिलों की मालिका-सुरैया’’ के नाम पच्चीस रुपए का मनीऑर्डर भेजता रहा था।

हमारा कुशलिया फिल्मों का भारी शौकीन था। कभी शाम को जब हमें भूख न लगती तो कुशलिया गीत गाकर हमें खाना खिलाता। अक्सर मैं बहाना बनाती कि मुझे भूख नहीं है, तब कुशलिया नक्की सुर में दुःख भरे दो गाने गाता। कुशलिया तुकबन्दी में बातें भी कर सकता था। उसके पास एक मन्त्र था जिसे पढ़कर वह रोते हुए बच्चों को हँसा सकता था। वह उसे कहता था : अन्तर मन्तर कुदई का जन्तर। अब हालाँकि मैं और दीनू कुशलिया को बहुत प्यार करते थे, और लोग उसे जरा भी प्यार नहीं करते थे। जैसेकि एक तो हमारे बाबू ही हुए।

‘‘वो तो पूरा बदमाश था,’’ एक बार बाबू किसी से कह रहे थे। जब मैंने पूछा कि बदमाश का क्या मतलब होता है तो माँ ने बाबू को घूरकर देखा और बाबू ने मुझसे कहा, ‘‘चलती बनो।’’ उन दिनों मैं हमेशा ही शब्दों के अर्थ पूछती रहती थी और हमेशा ही मुझे चलता किया जाता रहता था। इसलिए बाद में जब मैंने पढ़ना सीख लिया तो डिक्शनरियाँ मेरी प्रिय साथी बन गईं। लेकिन उस समय तो मैं समझ नहीं पाई कि क्या करूँ। मैं मन-ही-मन दोहराती रही, बदमाश, बदमाश, बदमाश। रात को दीनू मुझे चिढ़ा रही थी, तुझे कुछ नहीं पता, बुद्धू’’ मैंने चट से कह दिया, ‘‘बदमाश !’’

वैसे मुझे पता था कि वह ठीक कह रही है, मुझे भी लगता था कि मैं बुद्धू हूँ। उन दिनों मुझे कुछ मालूम नहीं था, मैं छोटी सी और खोई-खोई सी दिखती थी। सब लोग यही कहते थे। मुझे लगता भी था कि मैं छोटी सी और खोई-खोई सी महसूस करती हूँ। उस दिन भी जब हम एक लाल-हरी बस में बैठकर अल्मोड़ा गए और बाबू ने मुझे एक लाल प्लास्टिक का पर्स दिया, मुझे लगा था कि मैं छोटी सी और बुद्धू हूँ। मुझे पता नहीं था कि हम कहाँ जा रहे हैं, या क्यों, या यह कि लाल पर्स का मतलब बाबू से दूर जाना है।

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