उद्धव / सुनो बकुल / सुशोभित

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उद्धव
सुशोभित


उद्धव श्रीकृष्‍ण के महाशिष्‍य, महाभृत्‍य और महाप्रियकर थे, ठीक वैसे ही, जैसे आयुष्मान आनंद तथागत बुद्ध के अनन्य सखा और अनुचर थे। उद्धव हमेशा श्रीकृष्‍ण के साथ रहते, अंत:पुर में भी उनसे पृथक न होते। ऐसा लगता है, उद्धव एक व्‍यक्ति नहीं चेतना थे। या वे श्रीकृष्‍ण का ही विस्तार थे। जब श्रीकृष्‍ण ने उद्धव को ब्रज भेजा, केवल तभी उद्धव श्रीकृष्‍ण से पृथक हुए थे।

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कहा है कि "सूरदास ने अपने काव्‍य में श्रीकृष्‍ण का साथ एक ही जगह छोड़ा, और वह है 'भ्रमरगीत।'" इस बिंदु पर सूर और ऊधौ आकर मिल जाते हैं!

एक अर्थ में, ब्रज गोपियों का ही नहीं, उद्धव का भी वियोग-स्‍थल है। किंतु उद्धव का वियोग मूक है। गोपियों के उपालंभ को वे चुपचाप सुनते हैं। श्रीकृष्‍ण महायोगी हैं, लेकिन गोपियों को उनका प्रिय-रूप ही रुचता है। उद्धव यहां श्रीकृष्‍ण के प्रतिनिधि बनकर आए हैं, लेकिन ठिठके खड़े हैं। "ज्ञानमार्ग" और "प्रेममार्ग" की परस्‍पर अंत:क्रिया के ऐसे वर्णन कम ही प्रस्‍तुत हुए हैं, जैसे सूर के 'भ्रमरगीत' में हैं, "श्रीमद्भागवत" का दसवां स्‍कंध जिसका आलम्बन है।

एक अन्‍य धारणा के अनुसार सूरदास उद्धव के अवतार थे। इस तरह से देखें तो "भ्रमरगीत" में सूर ने अपने ही स्वरूप को त्याग दिया है। स्वयं से पृथक होकर गोपियों के उपालम्भ को सहा है। कहते हैं व्यास भी विष्णु का ही रूप थे। जिस तरह से विष्णु ने चारों द्वापरों में ब्रह्मा, प्रजापति, शुक्राचार्य और बृहस्पति के रूप में अवतरित होकर "महाभारत" और "भागवत" सहित शेष महापुराणों का कथावाचन किया, वैसे ही उद्धव ने भी सूर के रूप में "भागवत" के प्रसंगों का अनुगायन किया। व्यास कुशल "संपादक" थे, उद्धव निष्ठावान "दूत"। दोनों का ही मंतव्य व्याख्या के भिन्न रूपों का निर्वाह करना था।

जगन्‍नाथदास रत्‍नाकर ने भी "उद्धव-शतक" रचा है, लेकिन सूर के वर्णन की छटा निराली है। मथुरा से कृष्‍ण ने उद्धव को ब्रज भेजा है। उद्धव गोपियों को "निर्गुण" का उपदेश देते हैं। गोपियों के मन में एक तो यह पीड़ा कि कान्‍हा मथुरा चले गए, दूसरे यह कि स्‍वयं नहीं आए, इन उद्धव महाराज को भेज दिया है, जो "ज्ञानयोग" का उपदेश दे रहे। यहां वे विरह से ग्रस्‍त हैं। एक "भ्रमर" को लक्ष्‍य कर उद्धव पर "उपालंभ" (उलाहना) करती हैं। कहती हैं : "निरगुन कौन देस को वासी?"

आचार्य द्विवेदी ने कहा था कि "सूर का प्रेम संयोग के समय सोलह आने संयोगमय है और वियोग के समय सोलह आने वियोगमय।" गोपियों और उद्धव के दोहरे वियोग के इस प्रसंग में सूर ने उद्धव का यानी स्वयं का साथ छोड़ दिया है और गोपियों के पक्ष में चले गए हैं, यह "कथावाचन" के इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में से है।

"उद्धव" से अधिक एकाकी भला कौन होगा?

कृष्ण ने उन्हें दूत बनाकर अपने से दूर भेज दिया, कथावाचक ने उन्हें त्याग दिया, गोपियों ने उन्हें उलाहना दिया और अगर "अष्टछाप" के कवि नंददास की मानें तो "भ्रमरगीत" के अंत में तो उद्धव गोपियों से परास्त होकर स्वयं "भक्तिमार्ग" में दीक्षित हो गए। उन्होंने उसी तरह गोपियों की चरणवंदना की, जैसे दुर्वासा ने मेरी शकुंतला के चरणों का स्पर्श किया था। किंतु रोष दुर्वासा का अपराध था, उद्धव का अपराध भला क्या था?

छह वैष्णव पुराणों में सम्म‍िलित नहीं होने के बावजूद "ब्रह्म वैवर्त" को एक महत्वपूर्ण वैष्णव पुराण माना जाता है। किंतु "ब्रह्म वैवर्त" उद्धव को लेकर लगभग मौन है। कृष्ण काव्य के अग्रणी गायक विद्यापति ने तो जैसे उद्धव की पूरी तरह से ही उपेक्षा कर दी है। जगन्नाथदास "रत्नाकर" का "उद्धवशतक" सूर के उद्धव का ही आधुनिक संस्करण है। "हरिऔध" ने अवश्य "प्रियप्रवास" में उद्धव पर करुणा दिखलाते हुए उन्हें गोपियों के उपहास का पात्र नहीं प्रदर्श‍ित किया है। ऐसी ही सदाशयता मैथिलीशरण गुप्त ने भी "द्वापर" में दिखलाई है। लेकिन आचार्य हजारीप्रसाद द्व‍िवेदी के अलावा कोई अन्य उद्धव का सहानुभूतिपूर्ण चित्रण नहीं कर पाया।

जब-जब मैं "भ्रमरगीत" प्रसंग सुनता हूं, उद्धव के प्रति करुणा से मेरा वक्षस्थल भर आता है। श्रीकृष्ण का यह अनन्य सखा जब स्वयं को ही बरजकर गोपियों के समक्ष प्रेम के विरुद्ध तर्क रख रहा होता है, तो क्या वह आत्मत्याग और आत्मविलोपन के महानतम क्षणों में से एक नहीं है?