मधुराष्टकम् / सुनो बकुल / सुशोभित

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मधुराष्टकम्
सुशोभित


भरतमुनि ने अपने "नाट्यशास्त्र" में "नवरस" का वर्णन किया है।

परवर्ती आचार्यों ने कहा कि नवरस तो ठीक हैं, किंतु "वत्सल भाव" को आप किस कोटि में रखेंगे? तब दसवां रस "वात्सल्य" इसमें जुड़ा।

तब अन्य आचार्यों ने कहा कि फिर "भगवद रति" का क्या? वह भी तो रस है। तब ग्यारहवां रस "भक्तिरस" स्वीकार किया गया।

लम्बे समय तक संस्कृत आचार्यों में मतभेद रहा कि "रस-परिपाक" में भक्तिरस को सम्मिलित करें या नहीं।

अंतत: पंद्रहवीं शताब्दी में "श्रीरूपगोस्वामी" ने इसका समाधान किया।

जैसे "पुष्टिमार्ग" के वल्लभ हैं, वैसे ही "गौड़ीय सम्प्रदाय" के महाप्रभु हैं।

जैसे पुष्टिमार्ग के "अष्टछाप कवि" हैं, वैसे ही गौड़ीय सम्प्रदाय के "षण्गोस्वामी"।

उन्हीं "षण्गोस्वामी" में अग्रगण्य हैं- "श्रीरूपगोस्वामी" (1392-1476)।

"श्रीहरिभक्तिरसामृतसिंधु" में "श्रीरूपगोस्वामी" ने न केवल भक्तिरस का प्रतिपादन किया, बल्कि उसका श्रेणीकरण भी कर दिखाया।

उनके मतानुसार भक्तिरस के पांच रूप थे-

शांति,

प्रीति,

प्रेय,

वत्सल

और मधुर।

फिर अपने ग्रंथ "श्रीउज्जवलनीलमणि" में उन्होंने इन पांच में से भी विशेषकर "मधुररस" का विस्तारपूर्वक विवेचन किया। उसे "रसराज" तक की संज्ञा दे डाली।

अक्तूबर 1953 में "आलोचना" पत्रिका में पं. रमाशंकर तिवारी का एक निबंध इसी "मधुररस" के निरूपण पर आया था।

बाद में इस निबंध को आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के सम्पादन में मई 1958 में प्रकाशित "हिंदी अनुशीलन" ग्रंथ में स्थान दिया गया।

हालांकि पं. रमाशंकर तिवारी का वह निबंध "श्रीउज्जवलनीलमणि" पर एकाग्र था, किंतु उसे पढ़ते समय मैं यह देखकर चकित रह गया कि उसमें कहीं भी "मधुराष्टकम्" का उल्लेख नहीं था।

"मधुराष्टकम्" की रचना महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्यजी ने की थी। मुझे नहीं मालूम यह रचना किस छंद में निबद्ध है, किंतु यह इतनी प्रभावी कृति है कि इसका सस्वर पाठ आपको सम्मोहित कर सकता है। मैंने तो इसे सदैव अनुभव किया है-

"अधरम् मधुरम् वदनम् मधुरम्, नयनम् मधुरम् हसितम् मधुरम्।।

हृदयम् मधुरम् गमनम् मधुरम्, मधुराधिपतेरखिलम् मधुरम् ॥१॥"

"मधुराधिपतेरखिलम् मधुरम्"- हे मधुरता के अधिपति, आप अखिल और सर्वांग मधुर हैं!

और तब अचरज होता है कि "कृष्ण यजुर्वेद" शाखा के जिस "तैत्तिरीय उपनिषद" ने ही परमात्मस्वरूप की संज्ञा "रसो वै स:" के रूप में दी, उसकी भक्ति को एक रस के रूप में स्वीकारने में पंडितों को इतनी शताब्दियों तक संकोच होता रहा था!