कृष्णवल्लभा / सुनो बकुल / सुशोभित
सुशोभित
क्या ही कौतूहल कि "श्रीमद्भागवत पुराण" के 12 स्कंध, 335 अध्याय और 18 हज़ार श्लोकों में कहीं भी "राधारूप" का वर्णन नहीं है!
"श्रीमद्भागवत पुराण" श्रीकृष्ण के लीला-स्वरूप का विश्वकोश है तो ऐसा कैसे संभव है कि उनकी प्राणसखी "राधा" का ही उल्लेख उसमें ना हो?
आचार्य विद्यानिवास मिश्र ने "श्रीमद्भागवत" को "कृष्ण युग" बताते हुए उसे हमारी संस्कृति की किशोरावस्था कहा है, वहीं "गीत गोविन्द" को "राधा युग" निरूपित करते हुए हमारी संस्कृति की प्रौढ़ावस्था।
कारण, बारहवीं सदी में जयदेव द्वारा "गीत गोविन्द" की रचना किए जाने के पश्चात ही "राधा-रूप" भारतीय जनमानस में प्रतिष्ठित हुआ है! "महाभारत" के कृष्ण योगी थे, कूटनीतिज्ञ थे, किंतु "गीत गोविन्द" के कृष्ण प्रणयानुरागी हैं, प्रेमी हैं।
"श्रीमद्भागवत" में राधा का नामोल्लेख भले ना हो, किंतु एक ऐसी गोपी का उल्लेख अवश्य है, जो श्रीकृष्ण की प्रीतिभाजन थी। "अनयाराधितो नूनं भगवान हरिरीश्वर:" : यह "श्रीमद्भागवत" का वर्णन है, जिसमें आराधिका के साथ राधिका का "श्लेष" है।
फिर दसवें स्कंध के बत्तीसवें अध्याय में उल्लेख है कि जहां अन्य गोपियों ने अंगस्पर्श के द्वारा श्रीकृष्ण से संबंध जोड़ा, वहीं एक गोपी ऐसी है, जो श्रीकृष्ण से भावरूप में एकात्म है। यही राधा हैं। जयदेव ने उन्हें आगे चलकर एक नाम-रूप की भंगिमा दी और उनके इर्द-गिर्द रागात्मकता का प्रणयानुकूल मिथक रच दिया, वहीं से राधारूप को "कनुप्रिया" और "कृष्णवल्लभा" की संज्ञा मिली, किंतु ऐसा नहीं कहा जा सकता कि "श्रीमद्भागवत" में वे अनुपस्थित थीं।
"राधाकृष्ण" की युति हिंदू मिथकों में वर्णित सभी युगलों में सर्वाधिक काव्य-संपन्न है।
जैसे "राम-जानकी" के युगल में तो "अभिधा" है। वे सिंहासन पर विराजित हैं और राम दरबार सजा है।
"अर्धनारीश्वर" के युगल में लक्षणा है। शिव और पार्वती एक हो गए हैं, लेकिन अपने-अपने पृथक स्वरूप को अभी उन्होंने त्यागा नहीं है।
इनसे कहीं उत्कट, कहीं प्रगल्भ, "राधाकृष्ण" का युगल है, जिसमें काव्य की ऐसी व्यंजना कि राधा कृष्ण के साथ "नित्य संयुक्त" भी हैं और "नित्य विमुक्त" भी। इन दोनों की प्रीति के तात्पर्यों को ठीक-ठीक तरह से उलीच सके, ऐसी तर्कणा नहीं मिलती। वे दोनों भावरूप में एक-दूसरे के पर्याय हैं।
"श्रीमद्भागवत" में कृष्ण की असंख्य गोपिकाओं के बीच जो अलक्षित है, "महाभारत" में कृष्ण की सहस्रों पटरानियों के बीच जो अनुपस्थित है, वही राधा है, श्रीकृष्ण की प्राणसखी। और कृष्ण के नाम में केवल राधा का नाम जुड़ सका है। रुक्मिणी, सत्यभामा या कालिन्दी का नाम उनके नाम में नहीं जुड़ा है। वे "राधाकृष्ण" ही कहलाए हैं।
श्रीकृष्ण श्यामवर्ण हैं। किंतु यह वर्ण मेघों का वर्ण है या तिमिर का वर्ण है?
"ऋग्वेद" के "नासदीय सूक्त" में कहा गया है कि सृष्टि के आरंभ में अंधकार एक और बड़े अंधकार से घिरा था। वहीं "मीमांसकों" का आग्रह है कि अंधकार प्रकाश का अभाव नहीं है, वह एक स्वतंत्र भावरूप पदार्थ है। आचार्य विद्यानिवास मिश्र ने श्यामवर्ण श्रीकृष्ण की कल्पना एक विशाल अंधकार के रूप में की है। एक उज्जवल अंधकार जिसमें मृगमदरस की गंध? और राधा को उन्होंने वैसा "वसंत" कहा है, जिसमें श्रीकृष्ण की गंध निमग्न है। मुझे नहीं लगता, राधाकृष्ण के युगल के बारे में इससे सुंदर कल्पना किसी और ने की हो। इसके सम्मुख "अर्धनारीश्वर" की "लक्षणा" भी निरी "अभिधा" लगने लगती है।
श्रीकृष्ण के व्यक्तित्व में जैसी उदासीनता है, जैसा निरुद्वेग और अनासक्ति है, क्या वह राधारूप के अक्षय प्रेम के आलम्बन के बिना संभव हो सकती थी?