उपेक्षित समुदायों का आत्म इतिहास / विष्णु महापात्र / पृष्ठ-2

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भूमिका

उत्तर प्रदेश एवं बिहार के अनेक छोटे-छोटे शहरों, कस्बों एवं जिला मुख्यालयों में 100 से ज्यादा प्रकाशक दलितों की ऐसी पुस्तिकाएँ प्रकाशित कर रहे हैं। ये पुस्तिकाएँ सस्ते अखबारी कागज पर बिल्कुल सामान्य स्तर पर छपाई एवं साज-सज्जा में प्रकाशित होती हैं। 40 पृष्ठ से लेकर 100 पृष्ठों तक की ये पुस्तिकाएँ प्रायः डेढ़ से दो रुपये मूल्य में या थोड़े से ज्यादा मूल्य में बिक रही होती हैं। कुछ पुस्तिकाओं का मूल्य 10,20,30 रु. भी होता है। इनके लेखक प्रायः अर्धशिक्षित, कस्बों एवं छोटे-शहरों में वास करने वाले आठवें क्लास से लेकर एम.ए. पास, स्कूल मास्टर, वैद्य वकील, कुछ छोटे अधिकारी, बहुजन आन्दोलन से जुड़े सामाजिक एवं राजनीतिक कार्यकर्ता होते हैं। इनमें कई राजनीतिक रूप से सक्रिय होते हैं तो कई नहीं; लेकिन जो राजनीतिक रूप से सक्रिय नहीं होते हैं वे अपने को ‘बहुजन मिशन आंदोलन’ के प्रति समर्पित मानते हैं। यह जानना रोचक है कि वे प्रकाशक और लेखक जो बहुजन समाज पार्टी के बौद्धिक प्रकोष्ठ में सक्रिय होते हैं, वे भी अपने मिशन साहित्य के काम में संलग्न बताते हैं।

ये पुस्तिकाएँ एक उद्देश्य से लिखी जाती हैं। इनके लेखन के उद्देश्य लेखक अपनी पुस्तक में ही स्पष्ट कर देता है। वे कहते हैं कि ये पुस्तिकाएँ दलित एवं बहुजन के मध्य चेतना जागरण के उद्देश्य से लिखी गई हैं। इन लोकप्रिय पुस्तिकाओं का व्यापक असर दलित राजनीति के विकास एवं विस्तार पर पड़ा है, ये एक सक्रिय प्रभाव उत्पन्न करने वाली पुस्तिकाएँ हैं। जिन्हें अन्य प्रभावी कारकों के साथ मिलकर उत्तर प्रदेश की दलित राजनीति एवं समकालीन गोलबंदी की वैचारिकी के सात मजबूत किया ही हैं साथ ही साथ आम दलित जन के मध्य इन्हें प्रसारित कर उनके मध्य अस्मिता जागरण का महत्त्वपूर्ण कार्य भी सम्पन्न किया है। ऐसे प्रकाशक एवं लेखक यूं तो 1960 के बाद ही उत्तर प्रदेश में अपना प्रभाव सिद्ध कर चुके थे, किंतु 1984 के बाद इनकी सक्रियता काफी बढ़ गई। यह वही काल खण्ड था जब उत्तर प्रदेश की राजनीति में बी.एस.पी. का आगमन हो रहा था। बी.एस.पी. स्वयं भी अपने अनेकों ‘डाक्युमेंट्स’ में दलितों के जन स्तर पर ऐसे सचेत करने वाले साहित्य लिखने की अपील करती रही है। ऐसे साहित्य के निम्न लक्ष्य निर्धारित किए गए—

1. ऐसा साहित्य जो अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं पिछड़े उपेक्षितों की मानवीय त्रासदी एवं समस्याओं को सामने लाए। 2. जो साहित्य, समानता, न्याय, स्वतन्त्रता पर आधारित समाज बनाने में भूमिका निभाए। 3. जातियों एवं समुदायों के इतिहास को खोजकर एवं रचकर उनके मध्य आत्मसम्मान एवं आत्मविश्वास पैदा करे। 4. दलित जातियों के नायकों के जीवन चरित लिखे, प्रकाशित एवं प्रसारित करे ताकि दलित जातियाँ उनके संघर्ष एवं जीवन से प्रेरणा लेकर वर्तमान समय से अपनी बेहतरी के लिए संघर्ष कर सकें। इस प्रकार दलित के लोकप्रिय साहित्य का आधारभूत एजेण्डा दलितों के मध्य उनकी असमिता की रचना करना, उसे नई सामाजिक एवं राजनीतिक परिस्थितियों के अनुरूप पुनः संस्कार देना रहा है। इनका एक महत्वपूर्ण प्रयोजन दलित जातियों की अस्मिता रचना के लिए ऐसे साहित्यिक एवं बौद्धिक संस्रोत उपलब्ध कराना ताकि वे अपनी रचना के लिए ऐसे साहित्यिक एवं बौद्धिक सम्पदाओं द्वारा निर्देशित न हों एवं दूसरों के द्वारा आकार दी गई अस्मिताओं को नकार कर अपनी आत्म छवि खोज एवं रच सकें। ऐसे साहित्य का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य ब्राह्मणवादी साहित्य के ‘प्रति साहित्य’ की रचना भी है।

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राजवैद्य माता प्रसाद सागर, जी.पी. प्रशान्त, हंस, भवानीशंकर विशारद, राजकुमार पासी ऐसे अनेक लेखकों की सस्ती पुस्तिकाएँ मेलों, फुटपाथों दलितों की राजनीतिक रैलियों में बिकती मिल जाएँगी। लक्ष्य संधान प्रकाशन, बहराइच, सागर, प्रकाशन, एटा, कुशवाहा प्रकाशन, इलाहाबाद आनन्द साहित्य सदन, अलीगढ़, अम्बेडकर मिशन प्रकाशन, पटना, कल्चर पब्लिशर्स, लखनऊ लोकप्रिय दलित साहित्य छापते एवं बेचते रहे हैं। कई शहरों में तो ‘बहुजन चेतना मंडप’ बने हैं। जहाँ सिर्फ दलित लोकप्रिय साहित्य ही बिकता है। इन ठेलों, चेतना मंडपों पर आपको हमारे प्रतिष्ठित दलित साहित्यकारों की रचनाएँ न के बराबर दिखेंगी। वहीं इन प्रकाशकों की पुस्तिकाएँ आपके बडे़ शहरों के बड़े प्रकाशकों के स्टालों एवं दुकानों पर देखने को नहीं मिलेंगी। इस संबंध में ऐसी पुस्तकाओं के एक प्रकाशक एवं लेखक बुद्ध शरण हंस का कहना है कि ज्यादातर बड़े प्रकाशक एवं वितरक बिंदू एवं ब्राह्मणवादी मानसिकता के हैं वे उन्हीं के हितों की रक्षा करने वाले साहित्य छापते एवं बेचते हैं। वे हमारा साहित्य अपने स्टाल पर नहीं रखना चाहते। फिर भी ऐसी लोकप्रिय पुस्तिकाएँ बड़े पैमाने पर बिकती हैं। इन्हें अपना एक बड़ा पाठक वर्ग भी विकसित किया है। किसी किसी पुस्तिका के तो 10-10 संस्करण 5-6 वर्षों में ही छप जाते हैं। एक-एक संस्करण 5-5 हजार से कम के नहीं होते। ऐसा साहित्य न केवल बी.एस.पी. जैसे दलित राजनीति से जुड़े कार्यकर्ता पढ़ते हैं बल्कि आम मध्यवर्गीय, निम्नवर्गीय, शिक्षित दलित जन ऐसे लोकप्रिय साहित्य का एक बड़े वर्ग के रूप में एवं उनके लिए एक प्रतिबद्ध बाजार के रूप में सामने है। यह आमदलित पाठक वर्ग इन पुस्तिकाओं को इसलिए भी पढ़ता है क्योंकि इनमें अत्यन्त रोचक वृत्तान्तों के माध्यम से बातें कही जाती हैं। इनके प्रकाशकों एवं लेखकों का मानना है कि 1984 में उत्तर प्रदेश में बी.एस.पी की गतिविधियाँ बढ़ने के बाद ऐसी पुस्तिकाओं की बिक्री बढ़ी है। पहले हिन्दी में जो दलित वैचारिक एवं अन्य प्रकार का साहित्य उपलब्ध था वह मराठी का कठिन हिन्दी अनुवाद होता था। जिसकी शैली लोकप्रिय होती ही नहीं थी। फलतः आम पाठक इन्हें नहीं खरीदता था। किन्तु हिन्दी पट्टी में उभरे इन लेखकों ने पहले तो मराठी दलित लेखन की शैली की अनुकृति की किन्तु बाद में इन्हें महसूस हुआ कि अपनी बातों को लोकप्रिय शैलियों एवं स्मृतियों से जोड़ने की जरूरत है तभी उनकी पुस्तिकाएँ आम लोगों तक पहुँचेंगी एवं वे उनकी बातों को ग्राह्य भी कर पाएँगे। फलतः उन्हें इन लोकप्रिय पुस्तिकाओं में अनेक लोक वृत्तान्त शैलियों का उपयोग किया। मूलवंश कथा जिसमें दलित दृष्टिकोण से भारत के प्राचीन इतिहास को लिखा गया है में सत्यनारायण व्रत कथा की शैली को अपनाया गया है। यह रोचक है कि ब्राह्मणीय कर्मकाण्डी वृत्तान्त की शैली का उपयोग किया गया है। इसमें महाभारत की कथा शैली भी प्रयुक्त हुई है। वहीं ‘अछूत वीरांगना नाटक’ में नौटंकी शैली में बातें कही गई हैं। इनकी लोकप्रियता का दूसरा कारण यह है कि ये दलितों की लोकप्रिय स्मृतियों में बसे नायकों एवं संतों की शिक्षापरक जीवनियाँ भी प्रकाशित करती हैं जिसे देखते ही पाठक की लोकप्रिय स्मृतियाँ जाग जाती हैं। जो उसने इन्हें खरीदने के लिए प्रेरित करती हैं। तीसरे, राजनीतिक चेतना के विस्तार एवं शिक्षित साक्षर दलित पाठकों के विचार ने भी इन्हें लोकप्रिय बनाया है। साथ ही सर्वथा सुलभ उपलब्धता, कम मूल्य एवं सही पाठक समूह की पहचान एवं उन तक पहँचने की प्रतिबद्ध लालसा भी जिन्हें लोकप्रिय बनाने में मददगार साबित हुई है।