उपेक्षित समुदायों का आत्म इतिहास / विष्णु महापात्र / पृष्ठ-3

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भूमिका

(4) इन लोकप्रिय पुस्तिकाओं में आपको आत्मकथाएँ नहीं मिलेंगी। आत्मकथाओं की जगह दलित नायकों, इतिहास पुरुषों एवं सन्तों की जीवनियाँ बहुतायत में छपती एवं बिकती मिलेंगी; सामाजिक आलोचना, भेदभाव एवं सामाजिक व्यवस्था को बेपर्द करने वाला साहित्य, नाटक एवं वैचारिक साहित्य इत्यादि इनमें शामिल है। आत्म चिन्ता की जगह सामाजिक एवं ऐतिहासिक चिन्ता दलित लोकप्रिय साहित्य की मूल प्रवृत्ति है। माइकल स्वारट्लर ने इन्हें ‘अछूतों के प्रतिरोध का साहित्य’ कहा है। इन लोकप्रिय पुस्तिकाओं में सबसे ज्यादा जातीय इतिहास, दलित संघर्ष एवं संत गुरुओं की ऐतिहासिक जीवनियाँ मिलती हैं। नीचे दिये गए टेबुल के आँकड़ों से ये बात पुष्ट हो जाती हैं।


लेकप्रिय दलित/बहुजन साहित्य का प्रकाशन

अनुक्रम

प्रकाशक प्रकाशन का स्थान प्रकाशित एवं संकलित पुस्तिकाओं की संख्या इतिहास केन्द्रित पुस्तिकाएँ
लक्ष्य संसाधन प्रकाशन बहराइच 22 16
कल्चरल पब्लिशर्स लखनऊ 33 22
अंबेडकर मिशन प्रकाशन पटना 22 14
आनन्द साहित्य सदन अलीगढ़ 13 9

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इससे साफ जाहिर होता है कि इतिहास पुस्तिकाएँ विशेषकर जातीय अस्मिता से जुड़े नायक, नायिका एवं जातीय इतिहास का प्रतिशत इन लोकप्रिय साहित्य के गुच्छे में सर्वाधिक है। इस लोकप्रिय इतिहास लेखन में अकादमिक इतिहास लेखन की शुष्क शैली से इतर लोकायनों, लोक गीतों, इत्यादि का भी सहारा अपने वृत्तान्त को रोचक एवं जनग्रह्य बनाने के लिए किया जाता है। अनार्य वंश कथा, मूल वंश कथा, मानव चरित मानस, वीरांगना झलकारी बाई, बुद्ध गीतांजलि, अंगुलिमाल डाकू क्यों बना, राम राज्य न्याय, पासी साम्राज्य, कुर्मी समाज इत्यादि ऐसी ही इतिहास केन्दि्त लोकप्रिय पुस्तिकायें हैं।

इन इतिहास केन्द्रित पुस्तिकाओं में यहाँ हम जातीय इतिहास की पुस्तिकाओं का संकलन कर उनकी प्रवृत्तियों में आए परिवर्तन का अध्ययन करना चाह रहे हैं। भारत में उपनिवेशवादी सत्ता ने अपने शासितों पर सुचारु रूप से शासन करने के लिए ‘कॉलोनियल डाक्यूमेण्टेशन प्रोजेक्ट’ के तहत जनगणना एवं गजेटियर्स के माध्यम से भारतीय समाज में जातियों की सामाजिक अवस्थिति का सर्वे कर उन्हें लिखित कर एक अपरिवर्तनशील (फिक्सड) सामाजिक अवस्थिति में तब्दील करने लगी तो इस भय से कि जब एक बार जाति की जो हाइरेरकिकल अवस्थिति तय हो जाएगी, वह बदल नहीं सकती, अनेक जातियों ने अपनी नयी पहचान के दावे करने प्रारम्भ किए। जातीय अस्मिता के ये दावे इसलिए भी जगे थे क्योंकि अंग्रेजी साम्राज्य की कल्याणकारी सुविधाओं में से ज्यादा से ज्यादा हिस्सा प्राप्त किया जा सके। भारतीय अस्मिता के इन दावों के चलते अनेक जातियो में परस्पर वैमनस्य एवं टकराव पैदा हुआ। निचली जातियाँ जब अपने को उच्च कुलशील बताकर अपना संस्कृतिकरण कर ऊपर के क्रम में जाने की कोशिश करने लगीं तो पारम्परिक रूप से उच्च अवस्थिति पर बैठी जातियों को यह नागवार गुजरा और उन्होंने ऐसे दावों का विरोध करना शुरू किया। 1890 के बाद ऐसे अनेक जातीय दावों पर आधारित टकरावों की नामजद रिपार्ट दर्ज हैं। इसी प्रक्रिया में अनेक निचली, मध्य एवं ऊँची जातियों ने अपना जातीय इतिहास लिखा, जातीय पत्रिकाएँ निकालीं एवं जातीय संगठन गठित किए। भारतीय समाज में अंग्रेजियत पश्चिमी संस्कृति एवं ईसाईकरण के बढ़ते भय के कारण हिन्दू समाज के दायरे को विस्तारित रखने की वजह से इसी कालखण्ड के आस-पास उभरे सामाजिक आन्दोलन आर्य समाज ने अनेक अछूत, निचली एवं मध्य जातियों को उच्च कुलों एवं ब्राह्मण ऋषियों के गोत्रों से उत्पन्न बताकर ऐसे इतिहास रचने की प्रक्रिय को बढ़ावा दिया उन्होंने ब्राह्मण मूल्यों एवं परम्पराओं से समृद्ध सिद्ध कर यथा ब्राह्मण, क्षत्रिय इत्यादि प्रमाणित कर उनका संस्कृतिकरण किया जा सके।

यह जानना रोचक है कि इस कालखण्ड में निचली जातियों के ज्यादातर इतिहास जो रचे गए, वो उनके जातीय परिसंघों के साथ मिलकर आर्य समाजियों ने लिखे; जो आज भी दलित जातियों की असमिता के आधारभूत तत्त्व के रूप में उनकी पहचना की परिभाषा, में कहीं न कहीं शामिल है।

हालाँकि उपनिवेशवादी शासन की प्रतिक्रिया के पुनरुतपाद के रूप में ‘औपनिवेशिक प्रलेखन परियोजना’ ने ऐसी स्थिति पैदा की जिसमें निचली एवं पिछड़ी जातियों की अवस्थिति में गतिशीलता आई एवं वे अपने को उच्च क्रम में होने के दावे कर सके। सदियों से नीचे के पायदान पर ठिठके सामाजिक समूहों को अपने महत्त्व को सिद्ध करने का लगभग पहली बार मौका मिला था। हालाँकि यह देखना रोचक होगा कि निचली जातियों की इस आर्य समाजी परिभाषा ने उनके आज की अस्मिता के लिए क्या योगदान किया एवं क्या समस्याएँ पैदा कीं। 1907 ई. में प्रकाशित निषाद वंशावली प्रसिद्ध आर्य समाजी देवीप्रसाद द्वारा लिखी गई थी; 1912 ई. में आर्य समाजी मथुरा प्रसाद द्वारा रचित ‘महालोधि विवेचना’ नागपुर से प्रकाशित हुई।

1918 ई. में फरूखाबाद के सिकन्दरपुर के निवासी श्री सत्यव्रत शर्मा द्विवेदी जो इस क्षेत्र के जाने माने आर्य समाजी थे ने ‘तेलि वर्ण प्रकाश’ की रचना की जो इलाहाबाद से प्रकाशित हुई है। ‘नायि वर्ण निर्णय’ ज्वालापुर गुरुकुल महाविद्यालय के मुख्य अध्यापक श्री रेवती प्रसाद ने रचा था, जो खुद प्रसिद्ध आर्य समाजी थे। इस पुस्तक में नायि जाति को ब्राह्मण वंशी सिद्ध किया गया है तथा इसकी भूमिका एवं सम्पूर्ण पाठ में सनातन धर्मियों से विवाद किया गया है जो ब्राह्मण धर्म परम्परा पर एकाधिकार स्थापित कर बैठे हैं तथा अन्यों में ब्राह्मण धार्मित एवं सांस्कृतिक मूल्य अपनाने पर विरोध करते हैं।

निचली जातियों की अमिता निर्माण की यह प्रक्रिया जो आरंभ हुई, वह बाद में चलकर कुछ दशकों के लिए थम-सी जाती है। आजादी के बाद जब उपेक्षित समुदायों का नये बन रहे भारतीय राज सत्ता से मोहभंग हुआ तो ये अपनी अस्मिता के दावे कर आजाद भारतीय राज्य से अपने पिछड़ेपन को दूर करने के लिए माँग करने लगी। 1960 के बाद पुनः ऐसे जातीय इतिहास दलितों एवं पिछड़ी जातियों में फिर से रचे जाने लगे। मण्डल आयोग के लागू होने एवं आरक्षण के प्रश्न पर भारतीय समाज में छिड़े एक नए विवाद के आलोक में निचली एवं पिछड़ी जातियों की अस्मिता का प्रश्न फिर एक बड़ा सवाल बन कर उनके खुद के सामने उठ खड़ा हुआ। फलतः जातीय इतिहास फिर रचे-सुने कहे जाने लगे। 1984 में उत्तर प्रदेश में बी.एस.पी. के गठन के बाद एवं बहुजन आन्दोलन के नव उभार के असर के कारण भी बड़े पैमाने पर निचली जातियों ने अपने जातीय इतिहास लिखे। फर्क यह था कि पूर्व में जहाँ उनके जातीय इतिहास पर आर्य समाजियों एवं औपनिवेशिक नृत्तत्त्व शास्त्रियों ने किया था, वहीं इस बार वे खुद उन्हीं के समुदायिक बुद्धिजीवी उनका इतिहास रच रहे थे।


(5)


इस संकलन में निचली जातियों के जातीय इतिहास के तीनों कालखण्डों एवं प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व आपको दिखाई पड़ेगा। 1891 के बाद निचली जातियों के इतिहास में प्रायः उन्हें उच्च ब्राह्मणीय सांस्कृतिक मूल्यों से युक्त महाकाव्यों के ऋषियों एवं नायकों के वंश से जोड़कर संस्कृतिकरण की प्रवृत्ति दिखाई पड़ती है। 1923 में प्रकाशित ‘नायिवर्ण निर्णय’ इसका एक नमूना है। इसमें यह भी दिखाई पड़ता है कि किस प्रकार आर्य समाजी व्याख्याएँ सनातनधर्मी परिभाषाओं से लड़ते हुए निचली जातियों को ब्राह्मणीय मिथक, प्रतीक, संस्कृति एवं इतिहास से जोड़ रही थीं। 1960 के बाद रचे गए जातीय इतिहासों में निम्न जातियों के गौरव इतिहास में ब्राह्मणीय मिथक, प्रतीकों एवं परम्पराओं के साथ-साथ उनकी अपनी लोक-स्मृतियों से उपजा लोक-इतिहास जुड़कर उनकी असमिता के वृक्ष को और ज्यादा मजबूत करता है। साथ ही इस वक्त उनकी अस्मिता की परिधि में ब्रह्मणीय एवं गैर-ब्रह्मणीय पहचानों में संघर्ष दिखाई पड़ने लगता है। दुसाधों के बीच उनके उच्च कुलशील उद्भव एवं दलित गरिमा के बीच उभरे विवाद ने उनके मध्य दो गुट बना दिए; इससे जाहिर होता है कि निचली जातियों में दलित गरिमा एवं गौरव की एक नई आत्म अस्मिता इस कालखण्ड में ही उभरने लगी थी। इस संकलन में संकलित दुसाध जाति एक समीक्षा इसी कालखण्ड में ही उभरने लगी थी। इस संकलन में संकलित दुसाध जाति एक समीक्षा इसी कालखण्ड में बनी रही उनकी अस्मिता की प्रक्रियाओं का खुलासा करता है।

1984 के बाद रचे गए निम्न जातियों के जातीय इतिहास की मूल प्रवृत्ति दलित गौरव को स्थापित करना तथा राष्ट्र निर्माण में उनकी अनेकशः कुर्बानी के बाद भी उच्च जातीय षड्यन्त्रों का शिकार हो पीछे रह जाने की पीड़ा का एवं अपने अतीत की उच्च स्थिति से षड्यंत्र कर विकास के दौर में अपदस्थ कर लिए जाने का बार-बार हवाला दे अपनी जाति के लिए किए जाने वाले आरक्षण की सुविधा का पक्ष तैयार करना तथा भारती राष्ट्र के लिए अनेक विशेष सुविधाओं एवं राष्ट्र निर्माण में अपनी भूमिका का इतिहास, सत्ता में उचित हिस्सेदारी की माँग इत्यादि मूल प्रवृत्तियाँ रही हैं। इन पुस्तिकाओं में आर्य समाज व्याख्याओं द्वारा रचित उनकी अस्मिता के कुछ निर्णायक तत्वों का इस्तेमाल सबवर्सिव (उच्छेदक) तरीके से किया गया है। आर्य समाजी प्रभावों के तहत लिखित जातीय इतिहासों में उच्च महाकाव्यात्मक वैदिक एवं ब्रह्मणीय प्रतीकों का इस्तेमाल निम्न जातियों को वैदिक ब्राह्मणीय संस्कृति से जोड़ने के लिए किया गया है। वहीं मंडल आयोग द्वारा ‘आरक्षण’ लागू करने के बाद उभरी परिस्थिति एवं बहुजन आन्दोलन के प्रभाव में रचित इन जातीय इतिहासों में उनमें से अनेक महाकाव्य पौराणिक एवं उच्च ब्राह्मण ऋषियों के साथ उनके सम्बन्धों के उपयोग का तर्क दलित गौरव गाथा के लिए किया गया है। दलित जातियों की अनार्य अवैदिक व्याख्याएँ तो इतिहास के पाठों में मिलती हैं। साथ ही वैदिक पौराणिक एवं महाकाव्यात्मक पाठों का उच्छेदक पुनःपाठ से भी दलित दृष्टिकोण से भारतीय समाज की व्याख्या कर उनमें उपेक्षित निचली एवं दलित जातियों का स्थान, भूमिका एवं संघर्ष की रोचक कथाएँ रची गई हैं। वहीं औपनिवेशिक नृत्तत्त्वशास्त्रियों द्वारा गढ़ी गई एवं प्रलेखित अपनी अस्मिता के कुछ तत्त्वों का इस्तेमाल भी अपने गौरव के इतिहास का पक्ष प्रस्तुत करने के लिए इनमें किया गया है। वर्ण व्यवस्था और कुलील वंश, हेला की कहानी, निषाद वंश के कुल गौरव, मेहतर जाति का इतिहास हाल-हाल में निचली जातियों द्वारा खुद रचे गए अपने इतिहास के नमूने हैं। इस सन्दर्भ में एक महत्त्वपूर्ण तथ्य की ओर इशारा करना चाहूँगा। उत्तर प्रदेश में जो दलित जातियाँ संख्याबल में महत्त्वपूर्ण हैं, जो साक्षरता एवं शिक्षा के दायरे में प्रवेश करती जा रही हैं, जिनके मध्य राजनीतिक नेतृत्व विकसित हो रहा है, उनमें जातीय असमिता को गौरवान्वित करने के लिए, आत्मसम्मान की प्राप्ति के लिए जातीय इतिहास रचने, लिखने एवं उन्हें प्रकाशित कर अपने जाति गौरव के पक्ष में प्रमाणस्वरूप प्रस्तुत करने की प्रवृत्ति बढ़ी है। इस प्रकार जातीय इतिहास निचली एवं उपेक्षित जातियों के नवनिर्मित जातीय अस्मिताओं के मूलादार एवं प्रमुख निर्णायक तत्त्व है और अस्मिता एवं आत्मसम्मान की राजनीति का प्रमुख तर्क। वहीं उत्तर प्रदेश में लगभग 33 से ज्यादा छोटी-छोटी निचली जातियाँ हैं जो मूलतः दस्तकार समुदाय से जुड़ी रही हैं यथा—ततवा, रंगरेज, डफाली, जोगी, नट इत्यादि। जो लोकतंत्र राजनीति में अभी दवाब समूह के रूप में नहीं उभरी हैं। जिनमें शिक्षा एवं साक्षरता का प्रसार अभी हो नहीं पाया है, जिन्होंने अपनी असमिता के लेखक अभी पैदा नहीं किए हैं। जिनके मध्य अभी राजनीतिक नेतृत्व नहीं उभरा है, उनमें लिखित रूप से जातीय इतिहास का अभाव मिलता है। हालाँकि ऐसा नहीं है कि उनका अपना इतिहास नहीं है। उनके पास भी अपना इतिहास है जो उनकी स्मृति एवं मौखिक परम्पराओं में प्रवाहित होता रहता है। अत्यन्त विनम्रता के साथ मैं यह स्वीकार करना चाहूँगा कि संकलन में निचली जातियों के मौखिक इतिहास पर जोर दिया गया है, यह एक बड़ा काम है जो अलग से ही सम्भव हो सकता है। इस संकलन का उद्देश्य सामाजिक-विमर्श, अस्मिताओं के टकराव, आत्मसम्मान की राजनीति की एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिय पाठकों के सामने लाना है। इसका एक और लक्ष्य शोधार्थियों के लिए इन्हें संस्रोत के रूप में भी उपस्थित करना भी है। अपना रोचक कथात्मक शैली एवं वृत्तांतों के कारण यह संकलन आम पाठकों को भी पसंद आएगा, ऐसी हमारी आशा है। भूल चूक हो सकती है, उसके लिए क्षमायाचना। आपके हरेक सुझाब एवं प्रतिक्रियाएँ अनखोजे अस्मिताओं के वृत्तान्तों को खोजने में हमारी मदद करेंगी। इस संकलन की और कोई सार्थकता हो या न हो मेरे लिए तो सबसे बड़ी सार्थकता यह है कि हेला एवं मेहतर जैसी जातियाँ भी यहाँ अपना ज्ञानकोष खुद रचती हैं, अपनी परिभाषाँ खुद गढ़ती हुई मिलती हैं।

प्रक्कथन एवं आभार

समुदायों में अस्मिता की हमेशा रही है। अस्मिता की चाह का एक तात्पर्य है, अपने को भिन्न दर्शाना। किंतु अस्मिता की यह चाह निरपेक्ष नहीं होती वरन् सत्ता एवं शक्ति के सन्दर्भ में में इन्हें नया रूप मिलता है। कई बार तो यह कहने का मन करताहै कि अस्मिता की चाह समुदायों के माध्य राज्य सत्ता द्वारा समय-समय पर उपलब्ध कराए जाने वाले विकास के अवसरो में से अधिकाधिक हिस्सा प्राप्त करने के लिए निरन्तर चल रही प्रतिद्वंद्वात्मक आकांक्षाओं में बलवती होकर नवीन रूप लेती है। यह रूढ़ न होकर नए संन्दर्भों में निरंतर परिवर्तनशील है। यह सदैव नये रूप से अपने को, अपनी सहायक एवं विरोधी शक्तियों को परिभाषित करती रहती है। इसलिए यह जरूरी हो जाता है कि सामाजिक विकास के क्रम में हम समय-समय पर इसका प्रलेखन करें।

अस्मिता अमूर्त है किंत उसकीचाह की एक मूर्त भाषा होती है जो हमारे वाचिक, धव्न्यात्मक, दृश्यपरक, लेखन एवं बॉडी लैंग्वेज में अभिव्यक्त होती रहती है। कई बार तो लगता है कि हमारे अधिकांश कालरूप हमारी तरह-तरह की अस्मिताओं की ही अभिव्यक्ति हैं। साथ-सात रहते हुए अस्मिताएँ हमें एक-दूसरे से फर्क करती हैं। फर्क का यही भाव हमारे कला व्यक्तित्व को सृजित करता है। लोक समाज को जो सरल समाज रहा है की सामूहितक अस्मिता बोध के साथ विखण्डित होती जाती है। किंतु यह विखंडन भी विभिन्न इकाइयों कारूप लेकर उनके भीतर संगठित रूप में वास करता है।

भारतीय समाज में जातीय अस्मिता जातियों की एक प्रकार से सामूहिक एवं सामाजिक अस्मिता के रूप में ही रही है। भारतीय समाज में जातीय इतिहास लेखन ते शुरुआती दौर में जहाँ अमन्यों से संवाद की प्रवृत्ति रही है, वहीं बाद में इस दौर में इमने टकरावों का स्वर उभरता दिखता है। किंतु इन टकरावों में भी एक प्रकार का संवादी ढाँचा उभरता है।