उपोद्घात / अपनी रामरसोई / सुशोभित

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उपोद्घात
सुशोभित


भारत में भोजनरति का सुदीर्घ सांस्कृतिक इतिहास रहा है। भोजनभटों की यहां कमी नहीं। जरूरी नहीं कि भोजन में रस लेने वाला उसका वैसा बखान भी करे कि उसे लेखों में संजोया जाए। किंतु अगर किसी भोजनरसिक का मन हो आए तो उसे इससे रोका भी कैसे जाए? सुंदरता के सभी स्वरूपों की स्तुति मनुष्य ने की है, भोजन सुंदर हो तो उसका गुणगान करने में कैसी हानि ?

इसी तृष्णा ने इस पुस्तक को लिखवा लिया। यह किसी रसोइये के अनुभवों का संसार नहीं है। यह भोजन के सामाजिक इतिहास का दस्तावेज भी नहीं। इसे लिखने वाला पाकविद्याविशारद नहीं, आहार-चिंतन में प्रवीण भी नहीं। बस एक मौज में आकर ये चीजें एक-एक कर लिखी गईं। लिखते समय मन में कौतूहल का भाव था। लोकरंजन की वस्तु ये सिद्ध हुईं। ये सभी लेख पुस्तकाकार छपेंगे, यह सोचा नहीं था। किंतु अनेक वर्षों के क्रम में यहां-वहां वो प्रकाशित हुए और पाठकों का असीम आशीष उनको मिलता रहा। एक अनुरक्ति ने दूसरी को पहचाना। इसी से एक कल्पना भी उभरी। जब मित्रों ने भी कहा कि इन सबको संकलित कर पुस्तकाकार छपवाना चाहिए तो संकल्प पुष्ट हो गया। इस तरह अब यह पुस्तक आपके हाथों में चली आई है।

भोजन से हमारे समाज का जो निजी रागात्मक सम्बंध है, उसकी सम्पूर्ण विवेचना होना अभी शेष है, किंतु उसके कुछ चित्र इस पुस्तक में उभरे हैं। अन्न को ब्रह्म कहा गया है और अन्नमय कोश का हमारी चेतना की निर्मिति में योगदान भी बताया है। यह पारस्परिकता, यह अनुग्रह और अपने पर्यावरण से वैसा हेल-मेल भारत-भूमि की विशेषता है। तब बतला दूं कि यह पुस्तक एक पेटू ने नहीं लिखी, किंतु उसने अवश्य लिखी है, जिसके लिए थाली में जूठा छोड़ना पाप है और बिना स्नान ध्यान के भोजन को हाथ लगाना अभद्रता। अपने भोजन से प्रेम करने वाले, उसे आश्चर्य से देखने वाले, उससे सरस परितृप्ति पाने वाले एक भारतवासी की रामरसोई का यह सुस्वादु प्रतिफल है।

मन हुआ था कि इसे एक मिठाईलाल की बही पुकारूं। फिर सोचा पाणिनि के पकवान कहूं, तो कैसा रहे। अंत में अपनी रामरसोई पर निश्चित हुआ हूं। अब इसी शीर्षक से यह पुस्तक पाठकों के हाथों में जा रही है। आशा है पाठकों को एक अभिनव दिशा में किया गया यह विनम्र प्रयास रुचिकर मालूम होगा और भोजन से भजन की तुक मिलाने वाला समाज इस पुस्तक का वैसी ही ऊष्मा से स्वागत भी करेगा। इति नमस्कारान्ते ।

- सुशोभित