शाकपात / अपनी रामरसोई / सुशोभित
सुशोभित
जाड़ों के मौसम में हरे साग का सुख है। यह ऋतु ही शाकम्भरी है। मुझ जैसे दुर्दम्य शाकाहारी के लिए तो उत्सव है!
मुझसे अकसर पूछा जाता है कि आपको खाने में क्या पसंद है। मैं कहता हूं, सभी कुछ। बशर्ते, शाकाहारी हो और सुरुचि से पकाया गया हो। एकबारगी तीखा हो तो चलेगा किंतु तामसी नहीं होना चाहिए। इतनी रीति-भांति की सब्ज़ी-तरकारियां हैं, साग-भाजियां हैं, इतने उपायों से वे पकाई जाती हैं कि जीवनचर्या के लिए वही अपरम्पार है। मैं सब्ज़ियां पकाए जाने के नानाविध उपायों पर अनुरक्त रहता हूं।
तिस पर भी भाजियां। जाड़ों के मौसम में सब्ज़ी मंडियां-- जिन्हें मैं देवस्थलों जितना ही पवित्र मानता हूं-- इन भाजियों से लद जाती हैं। मेथी, पालक, सरसों, बथुआ, चोलाई, चने की भाजियां। हमारे यहां मालवे में हौले या हरे छोड़ के साग को भात के साथ पकाया जाता है। तब वो अलनी भाजी कहलाती है। एक लाल भाजी भी आती है। इधर अफीम की भाजी भी ख़ूब खाई जाती है, मंदसौर के आसपास के क्षेत्र में। नाम पर ना जाइये, इस भाजी में नशा नहीं होता, जैसे पोस्ते के बीज खसखस में नशा नहीं होता। अफीम की तरंग तो डोडे के फल में बसती है। उसकी भाजी निर्दोष है।
फणीश्वरनाथ रेणु ने अपनी कहानी संवदिया में नाहक़ ही बथुआ साग का अपयश किया है। बड़ी बहुरिया हरगोबिन संवदिया से कहती है- बथुआ साग खाकर कब तक जीऊं? जैसे कि बथुआ साग कोई बुरी चीज़ हो! हां, यों ही उबालकर खा लिया जाए तो कोई भी साग बेस्वाद ही मालूम होगा। ऐसा भी नहीं है कि इनमें कोई सत्रह रीति के मसाले पड़ते हैं। किंतु सुरुचि से पकाए जाएं तो ये देवद्रव्य से कम नहीं। मूली का साग इधर गाहक लेते ही नहीं। मूलियां ले आते हैं, साग वहीं फेंक आते हैं। आपको मालूम है, एनसीसी के कैम्पों में नौजवान रंगरूट ये मूली का साग खाकर ही जीवन बिताते हैं। दिनभर की क़वायद के बाद तब यही साग कैसा अमृत-पदार्थ मालूम होता है, यह तो वे ही जानें, जिन्होंने सर्दियों में कैम्प किया हो।
पालक का साग बहुत सुंदर होता है। उसमें खनिज पाया जाता है। लोहा भी बहुत होता है। रक्त को वह शुद्ध करता है। पालक का साग हल्दी से बड़ी सुंदरता से हिल-मिल जाता है। किसी और साग में हल्दी की अनुभूति यों उज्ज्वल नहीं होती, ज्यों पालक में। वास्तव में इन सभी साग में एक तरह का वानस्पतिक तीतापन होता है। ये तनिक तिक्त होती हैं। आलुओं की तरह भोथरे और स्थूल स्वाद वाली नहीं होतीं। जिनकी जिह्वा पर आलू का स्वाद चढ़ा, उन्हें ये भला कैसे लुभाएं, किंतु ये भाजियां कम सुस्वादु नहीं। उनके स्वाद का आयाम अलबत्ता दूसरा है। फिर पोषक तो वो सभी होती हैं। जबकि आलू तो चर्बी की गठरी है!
पालक-पनीर करके एक चीज़ इधर दावतों और दस्तरख़्वानों में चलती है। मैं तो इसे पापकर्म ही कहूंगा। पनीर जैसी तामसी वस्तु के साथ कहां पालक की युति बनाते हैं। उसकी संगति में पालक का सत्व भी जाता रहता है। पालक को प्याज़ और हींग के साथ छौंक लगाकर भाजी बनाइये और उसका स्वर्गिक स्वाद देखिये। दिल करे तो इस साग में लहसुन-टमाटर भी मिला लीजिए। हज़ार कल्पनाएं सम्भव हैं, बशर्ते साग की युति आप सम्यक वस्तु के साथ जमाएं। दलिया के साथ साग खाएं। दालों में मिलाकर सींझा लें। आटे में गूंधकर पूरियां तल लीजिये। कोई एक उपाय हो तो कहूं।
मकई की रोटी और सरसों का साग : ये तो भई अब फ़ैशन बन गया। पंजाबी थाली में ये आता ही है। किंतु उसमें साग को वैसा महीन क्यूं पीस देते हैं? ग़रज़ ये कि चटनी बना देते हैं। उसे साग की भांति मोटा कतरकर ही खावैं तो सुख हो। सरसों के साग में बड़ी अनूठी ऊष्मा निहित होती है। जिह्वा और कंठ पर वह अनुभव होती है। मालूम होता है कि रुधिर में ताप आ रहा है। उसके स्वाद का वह बांकपन ही उसका प्राण है। उसे तो अक्षुण्ण ही रखना चाहिए।
मैं तो कहूंगा, सभी साग में सर्वोत्तम मेथी की भाजी है। सबसे सुस्वादु भी वही है। इधर तो यह अतिशय लोकप्रिय हो गई है। कई चीज़ों के साथ मेथी पकाई जाती है। आलू के साथ, दाल के साथ, और दूसरी बीसियों तरकारियों के साथ। उसकी संगति सबसे जम जाती है। वह सर्वानुकूल है। मेथी के परांठे भी बड़े स्वाद होते हैं। इधर कसूरी मेथी ऐसी चलन में आई है कि मठरी से लेकर खाकरे और थेपले तक, सब में वह पड़ती है। मेथी का वैसा चतुर्दिक यश देखकर मुझको सुख ही होता है। ऐसा लगता है, जैसे मेरे ही कुटुम्ब का कोई प्राणी कीर्ति अर्जित कर रहा हो। मैं मेथी को मन-प्राण से आशीष देता हूं।
अनेकानेक भाजियां ऐसी भी हैं, जिनके बारे में मैंने सुना ही है, कभी खाई नहीं। जैसे कि यही, कोलियारी की भाजी। यह सरगुजा के उधर पकाई जाती है। छत्तीसगढ़ में आदिवासी लोग करील का साग खाते हैं। मैं तो मध्यप्रांत का वासी हूं। मेरा पूरा जीवन इस पठार पर ही कट गया। पहाड़ों पर भी बीसियों साग होते होंगे, दक्खन में भी, सुदूर पूर्व में भी। मुझे सभी के बारे में थोड़ी ना मालूम है। उन देशों के जन ही उस बारे में बतलावैंगे। मैं तो उन्हीं की बात करता हूं, जो मेरे प्रांत की मंडियों में अवतरित होती हैं। ये सभी बड़ी सुंदर है। सात्विक हैं। ईश्वर का अंश भाजियों में होता है। सर्दियों में मोटा अनाज और भाजियां ही अधिक खानी चाहिए। ज्वार, बाजरे, मकई की रोटियां और बथुआ, चोलाई, सरसों का साग। तमस की वृत्ति वाले भोजन से दूर रहना चाहिए। वो कभी संतोष नहीं देता। केवल तृष्णा ही रचता है। मन को खिन्न करता है। चित्त को क्षुब्ध और उदग्र बनाता है। फिर ये साग गुणों की खान भी होते हैं। साधुभाषा में ही इनके गुणों के नानाविध बखान मिलते हैं- मिनरल, फ़ाइबर, विटैमिन्स, एंटीऑक्सीडेंट्स, फ़ाइटोन्यूट्रिएंट्स, और भी जाने क्या-क्या।
जैसा अन्न वैसा मन वाली बात फिर कोरी गप्प तो नहीं ही है। तिस पर परिश्रम किया हो और जठर के चूल्हे में ज्वाला हो तो यही भोजन फिर प्रसाद-स्वरूप मालूम होता है। देह पर लगता है। अन्नमय कोश भी उससे पुष्ट होता है। यों तो देह की सभी लीलाएं इसी लोक के हित हैं, दूसरे लोक में यह कुछ साथ नहीं जाएगा, किंतु यह मानना कठिन है कि जिस भावना से हमने आहार किया है, उससे निर्मित चित्त और अंत:करण लम्बी यात्राओं का पाथेय नहीं होगा। गांधी जी ने तो आहार-शुद्धि से ही देह-यंत्र को साध लिया था। मैं वैसा तपस्वी तो नहीं हो सकता, उससे प्रेरणा तो ले ही सकता हूं। आपके लिए भी वह सम्यक ही होगा। आहार ध्यान के समकक्ष है। भोजन प्रसादी से कम नहीं। किंतु अभी इतना ही।