नौका में तरबूज / अपनी रामरसोई / सुशोभित

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नौका में तरबूज
सुशोभित


नौका में तरबूज़ों की लदान के उस चित्र ने मुझे बहुत संतोष दिया। तस्वीर मेरी नहीं थी। जिसने खींची, उनका सौभाग्य कि वे वहां उपस्थित थे। जो दानिशमंद लोग होते हैं, उनके बारे में कहा जाता है कि वो अपनी पीठ से भी देख लेते हैं। लोगों का तो मालूम नहीं, मोबाइल फ़ोन ज़रूर पीठ से देखता है। उसी की कृपा है कि अब सभी के हाथों में कैमरा आ गया है। और अगर एक रम्य दृश्य प्रस्तुत हो तो दृश्य की अन्विति समझने वाले उसको तुरंत क्लिकियाने में विलम्ब नहीं करते। उसी रीति से यह छायाचित्र अस्तित्व में आया। छायाचित्रकार को फिर भी साधुवाद।

आकाश में स्याही। ठीक वही रंगत नदी के जल की भी। नदी का जल बहुधा आकाश का प्रतिबिम्ब बन जाता है। उसकी धूप-छांहें नदी में चली आती हैं। तरबूज़ के खेत समीप ही मालूम हो रहे हैं, हवा में इसकी गंध व्याप्त है! ताज़ा फ़सल आई है। काठ की नौका नदी में है। तरबूज़ लादे जा चुके हैं। जो शेष रहे, वे या तो अगली खेप या दूसरी नौका से उस पार भेजे जावैंगे। उस पार से ये तरबूज़ फिर मंडी पहुंचेंगे। सौदा-सुलफ़ होगा। जो तरबूज़ ना बिकेंगे, वो ढोर-ढंगर की राम-रसोई बन जावैंगे। सोचता हूं, जिन्होंने एक भाव पर बीस रुपैय्या किलो में तरबूज़ लिया था, वो उसकी यह दुर्गति अगर जानते, तो पंद्रह रुपैय्ये में लेने का उपक्रम अवश्य करते। बात केवल तरबूज़ों की नहीं। ये संसार ही विचित्र है। यहां अनेक वस्तुओं के मूल्य बहुधा इतने ऊंचे होते हैं कि आप प्राण देकर भी चुका ना सकेंगे। और अगले ही क्षण, तात्कालिक का इंद्रजाल टूटने पर वे बेभाव हो जाएंगी, यह भी सम्भव है कि कुपात्रों के हत्थे चढ़ जावैं, जिन्हें उनकी तृष्णा ही नहीं। ख़ैर!

किंतु उस चित्र से मेरी नज़र नहीं डिग पाई। धारियों वाले तरबूज़। मैं चाहे जितना याद करूं, बचपन के दिनों में वैसे तरबूज़ों की स्मृति नहीं आती। स्केच पेन में जो गहरा हरा वाला रंग होता है, उसी रंग के तरबूज़ मेरे बचपन के दिनों में भरे थे, और गेंद की तरह गोलमटोल। इधर मैंने भोपाल में लम्बोतर तरबूज़ अधिक देखे, पूछो कहां से लाए तो उत्तर मिलेगा, रायपुर से! ये लम्बोदर, गोल तरबूज़ों से कम सुंदर और मीठे-रसीले होते हों, वैसा नहीं है। जो भी हो, इस चित्र में जो तीतरबानी मौसम है, जो धूपछांहीपन है, जलथल का जो जगर-मगर है, उसमें ये धारीदार तरबूज़ ही प्रकाश-योजना में उचित मालूम होते हैं। यह संध्या का अनुकूल आलोक है। गहरे रंगों वाले तरबूज़ दृश्य को सघन बना देते! छायाचित्रकारों को मालूम होगा, यह चित्र ठीक इसी तरह से भर दुपहरी में नहीं लिया जा सकता था। उसके जलरंग तब वैसे गीले नहीं मिलते।

जैसे आलू सबसे पहले जहांगीर के राज में यूरोपियन भारत लेकर आए, वो लातीन अमरीका में ही उगता था, जैसे छेना और पनीर डच और पुर्तगाली साथ लाए, जैसे अंगूर और अनार ईरानी है, वैसे ही कहते हैं तरबूज़ कंधारी है। कुछ कहेंगे ये अफ्रीकी है। जो भी हो, क्या फ़र्क़ पड़ता है। पूरी दुनिया ही अपनी है। दुनिया के बाहर क्या है? "विश्व-नागरिक" होने का लाभ यह है कि कोई आपको यह बोलकर बहका नहीं सकता कि ये आलू और पनीर और तरबूज़ तो बिदेसिये हैं, ये अपने देस में कहां होते? तिस पर आप कहें कि दीठ जहां तक जाती हो, वहां तक अपना देस है। जगत ही जागीर है। पासपोर्ट में तो केवल मेरा छायाचित्र है, मेरा आत्मचेतस थोड़े ना उससे बंध गया? वसुधा-भाव!

यों भी, तरबूज़ के सार्वभौमिक सुख को कैसे सीमाबद्ध करें। यह कोई साधारण फल थोड़े ना है, यह आशीष के पुण्य में रचा-बसा जलपिंड है। ईश्वर ने निदाघ का ताप इसीलिए रचा था कि तरबूज़ों की लीला हम बूझ सकें और उन्हें नमन कर सकें। असीम संतोष है! वो संतोष प्राणतत्व के साथ इतना नालबद्ध कि तरबूज़ों से निजी रागात्मक लगाव मालूम होने लगता है। गर्मी और उमस और तपन में शीतगृह में रखा तरबूज़ ज्यूं मीठे पानी का कुंआ बन जाता है। संसार की कोई सम्पदा उसका मोल नहीं चुका सकती! दुआएं दिए बिना आप उसका रसभोग नहीं कर सकते। आंखें मुंद जाती हैं। कंठ में शीत लगता है। मस्तक प्राणवन्त हो उठता है।

जितना निदाघ, जितना ज्येष्ठ, जितनी तपन, उतना ही यश तरबूज़ के पिंड में फलीभूत होता है। जो सुख के लोलुप हैं, वो दशहरी आमों की ओर दौड़ेंगे। किंतु जिनका चित्त दैन्य से व्याकुल हो निरे निपट संतोष में रच-बस गया, वे क्यारी से चुनेंगे अपने लिए तरबूज़ का वर्तुल। पृथिवी जितना बड़ा और गोल। क्षुधा से त्रस्त होंगे तो यों ही फोड़ खाएंगे और धरणी को धन्यवाद देंगे। किंतु धैर्य का धन गांठ में होगा तो तनिक रुककर, शीतल जल में रखकर, काट-तराशकर, नून-लवण लगाकर खाएंगे। उदरपूर्ति में यह भरपूर सक्षम है, किंतु प्राणों में संतोष के जो भूखे हैं, उनके अभिप्रेत तो और ही हैं ना! कि तरबूज़ खाना भी एक सिफ़त है, तपस्या से झुलसा मन लेकर जीना यों भी सरल नहीं। फिर वो तप वैशाख के दिनमान में न्यस्त दाह का ही क्यों ना हो।

वह चित्र सचमुच सुंदर था। नौका में तरबूज़ लदे थे, नौका नदी में थी। संसार की समस्त वस्तुएं अपनी ठीक जगह पर थीं। अचरज नहीं था, अधूरापन नहीं, विस्मय तंद्रा को विचलित नहीं करता था। दृश्य सम्पूर्ण था। दृश्य में असीम संतोष था। विनयी तरबूज़ों ने अपने उदात्त गुणों से इस दृश्य-बिम्ब को भी आप्लावित कर दिया। तराज़ू का कांटा डिगता नहीं, थिर हो गया। जल में भले हर्ष से हिलती रहे काठ की नौका! वो उसकी मौज है! मेरी तरह वह भी तो विभोर!