मैसूर पाक / अपनी रामरसोई / सुशोभित

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मैसूर पाक
सुशोभित


मैसूर पाक में बेसन भौतिक-रूप होता है, घी उसमें अंतर्भाव है। घी का रचाव उसमें कुछ वैसा रहता है कि प्रत्यक्ष में बेसन की भावना खिल उठे। उसके तत्व में बड़ा ही गझिन परिमार्जन आ जावै। ऊपर से वह बेसन की चक्की दिखलाई दे, जैसे मोहनभोग, किंतु भीतर उसमें घृत और शर्करा की बड़ी ही महीन अन्विति हो। उसे खाने पर घी और शर्करा की ही अनुभूति भी जिह्वा को मिले। बेसन तब निमित्त मात्र रह जावै। हम कहें कि हमने बेसन का कोई पकवान खाया था, किंतु स्मृति जिसकी शेष रहे, वह घृत ही हो। कथा सुनने के बाद वाला प्रभाव।

कैसे कृष्णराजा वोडयार ने अपने खानसामे को कोई नया पकवान पकाने का हुक्म दिया था और कैसे कुछ और नहीं सोच पाने के कारण वह घी में बेसन रचाकर यह चक्की बना लाया और कैसे वह मैसूर पाक कहलाकर दशहरे के पर्व और कर्नाटकी-संगीत के बाद यक्षगान वाले कन्नड़-प्रदेश की तीसरी सबसे प्रसिद्ध वस्तु बन गई, वह सब तो अब किंवदंतियों में शुमार है। किंतु भोजन-कौतूहल जैसा ग्रंथ रचने वाले क्षेमेश्वर के इस प्रांत में अगर उत्तर-भारत से पेड़ा पहुंचकर धारवाड़-पेड़ा कहलाया तो मैसूर पाक ने भी फिर विंध्य-सह्याद्रि की मेखलाओं को लांघकर उत्तर दिशा में मैसूर प्रांत का यश पहुंचाया है, और पेड़ों का ऋण भी उतारा है-- इसमें संदेह नहीं किया जाना चाहिए।

भारतीय मिठाइयों में अगर खोवा या छेना नहीं है, या गोरस का कोई पदार्थ नहीं है, तो वह मिष्ठ ही नहीं हो सकता, वैसी मान्यता है। बर्फ़ियों की अनंत क़िस्में तब उत्पन्न हुईं, जो कालांतर में अपनी कल्पनाशीलता गंवा बैठीं। मिल्क केक कहलाकर अपनी अभिधा पर रोईं। पेड़ा अवश्य अपनी आसंदी पर बैठा रहा। बासुंदी महाराष्ट्र में इठलाई। खीर दूर-दिगन्त में पायेस कहलाकर गौरवान्वित हुई। गुलाब जामुन बंगभूम में जाकर पन्तुआ बन गया। रोशोगुल्ला और खीरमोहन का तब क्या वृत्तांत करें? रबड़ी-रानी के क्या गुण गावैं? जो कलाकन्द है, वही उन्हेल-महिदपुर में दूधपाक कहलाया है। किंतु है तो दूधपाक ही ना? क्षीर-तत्व बिना मुक्ति नहीं।

यों घृत भी गोरस ही है। माखन के उपादान भी उसी श्रेणी में आएंगे। किंतु जहां खोवा या छेना या दूध-तत्व का साक्षात विग्रह ना हो, वहां मैं यह मानने को तत्पर होता हूं कि अब यह वैसी मिठाई है, जो मुख्यधारा के समान्तर है। उसमें अपनी कुछ मौलिकता है। इसमें आप गिन लीजिये, जलेबी, हलवा, पेठा, बेसन की बूंदी, बालूशाही, घेवर और मोहनभोग को। बनारस की लवंग-लतिका, बंगभूम का मूंगेरनाडू और सोन्देश, दिल्ली की पिन्नी और सोन पापड़ी और दक्खन की मैसूर पाक जैसी मिठाइयां तब इसी श्रेणी में आवैंगी। जो गोरस के पदार्थ से उकता जाते हैं, उनमें फिर इन द्रव्यों की सुरुचि विकसती है। ये जल्दी ख़राब नहीं होते। इनको भेंट करने में भी सुभीता रहता है। नहीं तो आप तोहफ़े में किसी को चमचम भेजिये, और समूचा यात्रावृत्त अगर शर्करा के रस से मचमच ना होने लगे तो फिर कहियेगा।

भारत-भूमि में मिठाइयों की राष्ट्रीयता में कहीं कोई संकोच नहीं, इसलिए मैसूर पाक अब पूरे देश में लोकप्रिय है। जिसमें इतने घृत के उपभोग का सामर्थ्य हो, तब वही इस दिशा में प्रवृत्त हो। मुझे बचपन के दिन याद आते हैं, जब मेरी मां और नानी डालडा घी से मैसूर पाक बनाती थीं, और वह भी कोई साधारण विलास नहीं था। एक बार मैसूर पाक बन जावै तो फिर उस माह दाल-बाटी की छुट्‌टी हो जाती थी, उतना घी ही हंडिया में फिर शेष नहीं रहता था। वनस्पति घी का वह मैसूर पाक फिर ठंडा होकर पत्थर की तरह ठोस हो जाता। उसे खाना नाकों चने चबाने जैसा रहता। शर्करा उसमें ख़ूब पड़ती, जैसा कि निर्धनों की रसोई में होता है। मानो मैसूर पाक क्या है, बताशा कह लीजिये।

वह दिन है और आज का दिन है, जब एक मेहरबान दोस्त ने बेंगलुरु से मैसूर प्रांत का यह राज-मिष्ठान्न स्नेह से भेजा है और मैं उसे चखकर निहाल हुआ हूं। तीन दिन पहले अपने ठिकाने से चली यह भेंट है, किंतु घृत की अनुभूति उसमें सजल है। देसी घी जो पड़ा है। मेवे से गरिष्ठ हो रहा है, सो अलग। स्वाद में दक्खनी अहसास है। ये हमारे मध्यप्रांत का ज़ायक़ा नहीं मालूम होता। उसमें खांड की मिक़दार उतनी ही है, जितनी होनी चाहिए, किंतु इसका ये अर्थ नहीं कि एक बार में पांच चक्कियां भकोस लें। मैसूर पाक के साथ चलन में आया हुआ वाक्य है, मुंह में आते ही घुल जाना। मैं उसको यहां भला क्यों दोहराऊं। किंतु मैंने मित्र को मन ही मन धन्यवाद कहते हुए बहुत हर्ष से यह खाया और बचपन के दिनों वाले डालडा के पकवान को याद किया। निर्धन के लिए तो चना-चिरौंजी और धानी-बताशा भी मिष्ठान्न है, गुड़ की राब भी देवद्रव्य है, यह उन दिनों से चलकर यहां तक पहुंचा मैं भला कैसे भूलूं।

मित्र को धन्यवाद ज्ञापित करता हूं। उन्होंने मूंग हलवे की प्रशस्ति पढ़कर होड़ में यह मिठाई भेज डाली कि हमारे यहां का मैसूर पाक भी तो खाकर देखिये। मैं यह भेंट पाकर निहाल हुआ। मेरे देश के हर प्रांत के वासी अपने यहां की मिठाइयों के गौरव की इसी रीति से मुझ पर पुष्टि करने पर आमादा हो जावैं तो मेरे जैसा मिठाईमोहन मिश्र तो मधुमेह से ही खेत रहे। तो मैं उसकी आशा भी क्यूं करूं? अभी तो मेरे लिए बेसन-घी के अद्वैत वाले इस पदार्थ का रसपरिपाक ही बहुत है। इति।