चाय / अपनी रामरसोई / सुशोभित
सुशोभित
दूध के त्याग के बाद मेरी चाय का रंग नित्य-श्यामवर्णी हो गया है। शर्करा का माधुर्य भी उसमें से जा रहा। किन्तु दूध-शकर की चाय त्यागने के बाद अब पत्ती का स्वाद खिलकर आता है। अब आप पत्ती को पत्ती से अलगाकर पहिचान सकते हैं कि दस प्रकार की पत्ती एक-दूसरे से कैसे फ़र्क़ है। यों चाय का सुरुचि से बड़ा नाता है। इसी का थोड़ा सुख लेने के लिए मैं अकसर चाय-पत्ती की बढ़िया दुकानों पर चला जाता हूँ। वहाँ हज़ार क़िस्म की चाय मिलती है। एक तो खुली पत्ती, वो भी भाँति-भाँति की। फिर डिब्बाबंद हरी और काली चाय। एक धौली चाय भी इधर दिखाई दी। फिर हरी कॉफ़ी और क़हवा। उनके भी अनेक रूप। कोई रोस्टेड, तो कोई डिटॉक्स, कोई मसाला तो कोई मिक्स।
चाय-पत्ती की दुकानों पर जाकर दुकान-मालिक से मैं यों बतियाता हूँ, जैसे पूरा जीवन ही चाय के शोध में बिताया हो। वह भी प्रभावित होता है। हमें 'टी-कनशियर' समझता है, यानी मिज़ाजी चायख़ोर। अनेक रीति-भाँति के चाय-उत्पादों का मुआयना करता हूँ। उनके विवरण पढ़कर मुझको कविता के 'प्रिसाइस डिक्शन' जैसा सुख मिलता है। इन उत्पादों के डिब्बों पर अमूमन टी-एस्टेट, इंस्टैंट मिक्स, हर्ब्स, स्पाइसेस, अरोमैटिक, ब्लेन्ड, ब्रू, फ़्लैवरी ऐसे शब्द लिखे होते हैं। अरोमैटिक यानी गंधवाही। स्पाइसेस यानी मसालेदार। फ़्लैवरी यानी स्वादिष्ट। चाय जब पीएँगे, तब पीएँगे। अभी तो ये ब्योरे ही लुत्फ़ देने वाले हैं।
इसमें एक रीति देसी क़हवे की है, जो कश्मीरी क़हवे से फ़र्क़ होता है। कश्मीरी क़हवे में तो मेवे की गिरी भी पड़ती है। जबकि देसी क़हवे में केसर-बादाम छोड़कर वो तमाम मसाले होते हैं, जो 'क़हवोचित' हैं। अंग्रेज़ी में ये सिनेमॅन, कार्डामम, क्लोव, नटमेग, जिंजर, पेप्पर कहलाते हैं। जाड़ों में क़हवे के एक उम्दा प्याले का सेवन कानों की लवें लाल कर देने में सक्षम है, किंतु ये ब्योरे भी कम दिलअफ़शां नहीं।
बचपन में हम चाय को मीठे की तरह वापरते थे। एक चाय कड़क-शकर। यानी ढेर सारी चीनी, ढेर सारी पत्ती, ढेर सारा दूध, ऊपर से मलाई। फिर इसमें इलायची और अदरख़। मिज़ाज हो तो जाफ़रान। नज़ला हो तो काली मिर्च। अब इसको आँख मूँदकर पी जाइये और विधाता को दुआएँ दीजिये। ये हिन्दुस्तानी क़िस्म की चाय है। एक स्टैंडअप-विदूषक ने इस पर कहा था- "चाय माँगोगे तो खीर देंगे!"
फिर उम्र के साथ हम धीरे-धीरे इंग्लिस्तानी चाय पीने लगते हैं। इसकी शुरुआत चीनी कम से होती है। फिर दूध साहब प्याले से रुख़सती लेते हैं। एक समय ऐसा आता है जब आप गर्म पानी में टी-बैग डिप करके चाय का आनंद लेने लगते हैं। हरी या काली, जैसी रुचे। हरी चाय पीना रईसी की निशानी है। रईस लोग सेहत को लेकर फ़िक्रमंद रहते हैं। ग़ुरबत के पास और हज़ार हादिसे हों, चाय पीकर बीमार पड़ जाने की फ़िक्र नहीं होती। काली चाय इंटेलेक्चुअल्स की शोभा है। उसमें भी सूरमा हों तो डार्क एक्सप्रेसो कॉफ़ी।
तब भी, भाप से भरी चाय का प्याला दुर्भागे जीवन में एक राहत है, हौसला है, एक उम्मीद भी है। चाय अब एक अहसास बन चुकी है। लोग ऐसे चाय पीते हैं, मानो चाय पीते ही सबकुछ दुरुस्त हो जाएगा। बस एक प्याला चाय भर मिल जावे! जाड़े के दिनों में तो यह वो प्रकाश-स्तम्भ है, जो राह भटके नाविक के दिल में रौशनी जगाता है। बीरबल ने दीये से खिचड़ी पका ली थी, हम लोग चाय पीकर जीवन बिता रहे हैं। चाय हम सबकी ज़ाती ज़िंदगी का एक ब्रांड है।
सर्दियाँ हों, इतवार हो, साथ में कोई किताब हो, तो चाय ज़रूर बनेगी। किताब चाय के साथ ही पढ़ी जाएगी। यह चाय के साथ अख़बार पढ़ने से फिर भी बेहतर है। चाय की पत्ती हमारे भीतर अपनी अनुभूति की एक मीनार बुनेगी। हम उस मीनार की छत पर चढ़कर सुस्ताएँगे। हम ख़ुद से कहेंगे, यह सुख है। सुख हो ना हो, इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है? ज़िंदगी में इतनी मोहलत मिल जाए कि हम रुककर एक प्याला चाय पी सकें तो यह भी कम नहीं।
चाय आदत है। शगल है। चाय का प्याला किसी दरख़्त से कम नहीं, जिस पर पीठ टेककर हम थोड़ी देर ठहरते हैं। ज़िंदगी मील के पत्थरों से बनी है। कहीं प्याऊ, कहीं सराय, कहीं पेड़, कहीं छाया के बिना यह काटे नहीं कटती। चाय से प्यार करने वाले इन तमाम शै को 'माय कप ऑफ़ टी' कहकर पुकार लेते हैं। ग़रज़ ये कि चाय ही सराय है, चाय ही छाँव है। हमारे जीवन की कहानी चाय के अनगिनत प्यालों के पुल पर लिखी गई है!