कहवा / अपनी रामरसोई / सुशोभित
सुशोभित
सिनैमॅन और कार्डामॅम, इन मसालों के ये नाम किन्हीं कवियों ने ही रखे होंगे। जैसे कोई मक़बूल जोड़ियां हों- मिसौरी और मिसिसिपी, दज़ला और फ़रात, सिंधु और सरस्वती की तरह। कि ये नाम ही महकते हैं।
हिंदी में सिनैमॅन और कार्डामॅम को कहेंगे- दालचीनी और इलायची। इनके मणिकांचन संयोग से देह-मन में क्या चमत्कार होते हैं, इसका बखान तो नाड़ी परखकर नुस्ख़ा देने वाले वैद्यगण ही कर सकेंगे, किंतु इतना अवश्य है कि ये दोनों जहां एक साथ पड़ जाएं, वहां इनकी महक और तासीर सात सूबे फ़तह कर आती है।
सिनैमॅन और कार्डामॅम में क्लोव यानी लौंग और जुड़ जाए तो इनके मेल से अब जो चाय बनकर तैयार होगी, वो मामूली चाय नहीं है। उसको क़हवा कहते हैं। कश्मीर की सर्दियों में तो ये आबे-हयात और आबे-जमजम से कम नहीं। कश्मीरियों की रगों में जितना लहू है, उससे कम क़हवा ना होगा।
समोवार में खौलता क़हवा तो कभी पिया नहीं, लेकिन चाय का यह नायाब फ़ॉर्मूला जिसने बनाया होगा, वह मुबारकबाद का हक़दार ज़रूर है- हरी चाय, केसर, दालचीनी, लवंग, इलायची, शहद और सबसे अंत में ऊपर से बुरके गए सूखे मेवे, ख़ासतौर पर बादाम! रोमकूपों तक को महक और ऊष्मा से भर देने वाली चाय है ये, जब जाड़ों में मुंह से निकलने वाली भाप समोवार की सांसों से होड़ लगा बैठती हो।
क़हवे वाली चाय में दूध नहीं पड़ता। पड़ना भी नहीं चाहिए। चाय के नाम पर खीर पीने की एक आदत हम हिंदुस्तानियों ने डाल रखी है। यों उसका अपना मज़ा और ज़ायक़ा और मौसम और रंगतें हैं, ख़ासतौर पर पठार के किंचित क़ाहिल लोगों के लिए, और यह तो मैं कभी ना कहूंगा कि इंग्लिस्तानी चाय पी जाए। लेकिन एक सीमा के बाद जब गोरस से मन घबड़ा उठे तब मेवों और मसालों के ज़ायक़े वाले क़हवे को आज़माना बुरा नहीं होगा।
इधर मुझे क़हवे का ही चस्का लगा है। और अलबत्ता सालों की लत के बाद अब काली चाय ना पीयो तो दोपहर होते-होते मगज चढ़ जाता है और ज़ेहन में गांठ-सी बंधी मालूम होती है, तब भी मौक़ा मिलने पर क़हवे का ही सेवन किया जाता है। इधर बाज़ार में एक और नई चीज़ आई है- ग्रीन कॉफ़ी, जिसमें कॉफ़ी के बीन्स को रोस्ट नहीं किया गया हो और उनके एंटी-ऑक्सीडेंट्स अभी बचे रहे हों। कहते हैं ग्रीन कॉफ़ी के एंटी-ऑक्सीडेंट्स तेज़ी से ग़ैरज़रूरी चर्बी गलाते हैं। धीरे-धीरे यह अपनी ज़मीन पुख़्ता कर रही है। और जो पैराडाइम अभी-अभी ग्रीन टी पर शिफ़्ट हुआ चाहता था, अचरज नहीं वो अगर फ़ौरन से पेशतर ग्रीन कॉफ़ी पर जा सिमटे।
काली, धौली, हरी, कश्मीरी, ये चार तरह की तो चाय ही हो गई। जिंजर और दार्जीलिंग टी को अलग-अलग नहीं गिन रहा। तिस पर कैफ़े कॉफ़ी डे की टी-वेंडिंग मशीन की मेहरबानी से चार तरह की कॉफ़ी भी चौबीस घंटे मुहैया हो गई- एस्प्रेसो, कपूचीनो, लेत्ते और अब यह ग्रीन कॉफ़ी। जाड़ों के दिन हैं। जो शराब नहीं पीते, और इश्क़ से महरूम हैं, वे अपनी ज़िंदगी इनके बिना तो नहीं ही काट सकते। हम तो हरगिज़ नहीं। यों भी वैसा राइटर होने का क्या लाभ, जब आप यह गप्प तक नहीं मार सकते कि मुझे जब-तब माइग्रेन हो आता है और तब मग भरकर ब्लैक कॉफ़ी के सेवन से ही उसका उपचार होता है।
पुराने वक़्तों के शाइर मदिरा पीकर मरते थे, अभी काली चाय और कॉफ़ी और क़हवे से कलेजा जलाने से काम चल जाता है। जैसे भी हो, कलेजा कोयला होना चाहिए, सो अब यही सही। ख़ुशामदीद।