ककड़ी / अपनी रामरसोई / सुशोभित

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ककड़ी
सुशोभित


ककड़ी को खीरा भी कहेंगे, किंतु चैत्र के तपते हुए दिनों में जो पतली-दुबली ककड़ियां सिधारती हैं, वे खीरा नहीं कहलातीं, ककड़ियां ही कहलाती हैं।

खल्वाट गंजे सिर वाले फेरीवाले तब ठेलों पर हरी-हरी ककड़ियों का संजाल सजाए घूमते हैं, रह-रहकर उसे जल का छींटा देते रहते हैं। जो मोल लेने आए, उसे तपस्वी की-सी तन्मयता से तराज़ू पर तौलकर देते हैं। साथ में नमक-लवण भी, अगर आवश्यकता हो तो।

नन्हीं, दुर्बल, विनयी ककड़ियां। ईश्वर के संसार की निर्दोष संतानें।

समूची सृष्टि ही जल से बनी है, ककड़ियां भी जल से बनती हैं। किंतु जल का अंश उनमें अन्य से अधिक। वस्तुत: वे जल का ही फल हैं। उनके अंत:स्तल में नमी और खटाई से भरा बीजों का देश होता है। ग्रीष्म ऋतु में तो यह पदार्थ देवद्रव्य से कम नहीं। किंतु श्रावण में भी ककड़ियां उत्सव ही कहलावैंगी। चैत्र वाली ककड़ियां न सही, ठोस और पुष्ट खीरे ही सही, उनका तत्व तो एक ही है।

जैसे तरबूज़ और ख़रबूज़े मिट्टी से शकर खींच लेते हैं, वैसे ही ककड़ियां और खीरे धरती से सोख लेते हैं जल। इतना जल! मिट्‌टी के घड़े में चार घड़ी रखा खीरा खा लो तो कंठ में शीत लग जावै, ज्वर हो आवै! इतना जल!

आकाश से कैसे बरखा होती है। बरखा का जल कैसे धरती को सींचता है। वह सिंची हुई धरती फिर कैसे खीरों और ककड़ियों, तरबूज़ों और ख़रबूज़ों से लद जाती है, अनंतकाल तक अगणित जन्म लेने के बावजूद मैं इस रहस्य से कभी पार ना पा सकूंगा!

बहरहाल, एक नाम तो हुआ खीरा, दूजा नाम हुआ ककड़ी। और?

‘त्र’ से त्रिशूल होता है, ‘त्र’ से त्रिकोण। ‘त्र’ से त्रयोदशी का चंद्रमा भी। अगर मैं कहूं ‘त्र’ से ‘त्रपुष’ होता है, तो कई लोग कंधे उचका देंगे। कि अब ये त्रपुष क्या बला है?

खीरा कहूं तो सब समझेंगे। ककड़ी कहूं तो बच्चे भी बूझ जाएंगे। ककड़ी-भुट्‌टा कहकर पानी बाबा को याद करेंगे। ‘त्रपुष’ कौन बूझेगा? जी हां, यह खीरे-ककड़ी का तीसरा ना है- ‘त्रपुष।’ बड़ा ही भारी-भरकम शास्त्रीय नाम है!

जब ‘त्रपुष’ को ही कोई नहीं बूझेगा तो फिर ‘वनत्रपुषी’ की बात क्या करें? जैसे वनकपास को चरक संहिता में ‘भारद्वाजी’ कहा है, इलायची को ‘कपोतवल्ली’ कहा है, उसी तरह खीरे को ‘त्रपुष’ कहा है। जंगली खीरा हो तो ‘वनत्रपुषी।’

जब काव्य की पुस्तकों से ऊब जाएं तो ‘चरक संहिता’ खोल लेना चाहिए, ‘निघंटु आदर्श’ के पन्ने उलटने में भी रस है, वनस्पतियों की पारिभाषिक उपाधियां भी काव्य-सा ही सुख देती हैं। एक-एक शब्द बेध देता है आखेट के कपोत-सा। अन्यथा कौन कहता है इलायची को ‘कपोतवल्ली?’

वैद्य को ‘कविराज’ यों ही तो नहीं कहा जाता!

खीरा और ककड़ी के अलावा इधर एक और चीज़ पाई जाती है, और वो है- ‘बालम ककड़ी।’

‘बालम ककड़ी’ यानी बड़ी-सी ककड़ी। बहुधा तो तीन से चार सेर की एक।

सैलाना-रतलाम में इनकी बहुत फ़सल होती हैं। इनका अंत:स्तल केसरिया होता है, फलों की तरह मृदुल और किंचित मधुर। नर्म, मुलायम, जल से भरपूर।

मालवा के शहरों में श्रावण के पश्चात इधर-उधर बालम ककड़ी की ढीग लिए सैलाना के आदिवासी आपको बैठे नज़र आ ही जाते हैं।

कवि चंद्रकांत देवताले ने बालम ककड़ियों पर एक कविता लिखी है। मुझे नहीं मालूम कितनों ने वह कविता पढ़ी होगी। किंतु वैसी सुंदर कविताएं आपको अधिक नहीं मिलेंगी।

कविता में यही चित्र कि आदिवासी लड़कियां भोरे-भोरे उठी होंगी, उनींदी ही चली आई होंगी नगर तक, बालम ककड़ियों की ढीग लिए बैठी रहेंगी संध्या तक, इतनी निर्दोष और निकलंक कि टेर लगाने की कला भी उन्हें नहीं मालूम, कि डाक लगाकर वस्तु का विक्रय कैसे होता है, पता नहीं, भयभीत चिड़ियों-सी गाहकों का रस्ता तकती होंगी, जो हज़ारपती-लखपती लोग हैं, वे पैसे-पैसे के लिए उनसे मोल-तोल करेंगे, बीस पैसे में पूरी ढीग ले जावैंगे, तब सांझढले थानेदार उन्हें खदेड़ने आ पहुंचेगा, ककड़ियां ज़ब्त कर लेगा, थानेदार की बीवी फोकट की ककड़ियां खाएगी, ज़ब्ती की ककड़ियां भेंट में संभाग से आगे रजधानी तक जाएंगी, किसी को नहीं याद आएंगी भयभीत चिड़ियों जैसी वे आदिवासी लड़कियां।

ककड़ियों पर भी कविता लिखी जा सकती है, बालम ककड़ियां बेचने वाली वनवासी कन्याओं पर भी। भींजने वाला हृदय चाहिए, उसी जल से, जो धरती के भीतर होता है, जो ककड़ियों की शिराओं को पोसता है।

हृदय का रक्तफल!

जिस धरती ने ककड़ियों जैसे वरदान रचे हों, उसके सम्मुख विनय के वितान में सिर ही नवा देना चाहिए।