खरबूज़ा / अपनी रामरसोई / सुशोभित

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खरबूज़ा
सुशोभित


खरबूजे की मिठास इतनी सौम्य होती है, कि मानो वो कहना चाहता हो- "मुझमें माधुर्य नहीं!" किंतु इस कहन की मिठास से सशंक हो चुप लगा जाता हो!

खरबूजे की सुगंध भी वैसी ही भीनी है। मंडी की हांक से रसोई की संतुष्टि तक वह चुपचाप लिप जाती।

खरबूजे का रंग भी कैसा तो निस्संग। पवित्रता का राग जगाने वाला पीताभ वैष्णवी वर्ण।

कहते हैं खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है, जैसे खग ही जानता है खग की भाषा।

खगकुल की बात तो एक बार बूझ भी लूं, खरबूजे की बारहखड़ी कैसी होगी, यही सोचता रहता हूं। कभी मैं भी सुनूं तो बन सकूं उस जैसा, इतना गुणी!

रूप-प्रकार, भाव-धर्म में उससे विनयी कोई दूसरा नहीं। दिवस पर संध्याएं जैसे झुक आती हैं, वैसे ही यह हाट में चला आता है, वैसे ही किसी दिन चला जाता है, पदचिह्न तक पीछे नहीं छोड़ता।

निदाघ में तो यह उपहार है!

पुष्टिमार्गीय हवेलियों में गर्मियां लगते ही ठाकुरजी का राजभोग बदल जाता है तो थाल में खरबूजे का पना भी प्रस्तुत किया जाता है।

मैंने आम का पना बहुत पीया है, खरबूजे का पना कभी नहीं पीया। पीऊंगा भी कैसे? मैं देवता जो नहीं हूं! वैसे देवद्रव्य का मनोरथ तब कैसे बाँधूं?

किंतु अपने माधुर्य से ही वीतरागी जैसा वह है, वैसा सौम्य ही कभी बन सकूंगा, यह भी तो आकाश-कुसुम-सा दुष्कर!