अमरूद / अपनी रामरसोई / सुशोभित
सुशोभित
अगर आप उज्जैन से देवास की ओर बस में यात्रा करें तो नानाखेड़ा से कोई आध घंटे बाद एक हांक आपको सुनाई देती है-
‘नरवल का पेड़ा’, ‘नरवल का पेड़ा’।
आप चौंकते हैं कि पेड़ा यहां कहां? देवास से भोपाल जा रहे हों और सोनकच्छ में कहीं मावाबाटी की हांक सुनाई दे जाए, तो भी एक बार समझ आए।
महू से अकोला जा रहे हों और छोटी लाइन पर फतियाबाद में आपको गुलाब जामुनों की हांक सुनाई दे जाए, तो भी एक बार समझ आए।
तब दिल्ली-रास्ते के मथुरा की बात तो रहने ही दें, जहां रेलगाड़ी के रुकते ही सबसे पहले ‘मथराजी के पेड़े’ की पुकार सुनाई देती है। आप तब नींद में डूबे हों तो भी इस पुकार का मतलब समझ सकते हैं।
कि अगर मथुरा के टेसन पर पेड़े नहीं मिलेंगे तो और कहां मिलेंगे?
लेकिन ये नरवल का पेड़ा क्या बला है?
वास्तव में, ये पेड़ा है ही नहीं, ये तो अमरूद हैं, जो उज्जैन-देवास सड़क मार्ग पर स्थित गांव नरवर में इफ़रात में उगते हैं। इधर मालवे में नरवर के अमरूद मशहूर हैं। वे इतने मीठे होते हैं कि पेड़े कहलाते हैं। यह लोकशैली की एक सुपरिचित अतिशयोक्ति है, जो कभी शहतूत को शहद बतलाती है तो कभी दशहरी को जलेबी।
एक बार एक फल वाले ने मुझे हापुस बेचने के बाद पूछा था कि हमारे यहां के गुलाब जामुन खाए या नहीं? गुलाब जामुन? ये मिठाइयों की दुकान थी या फलों की? मैं कुछ कह पाता, उससे पहले ही उसने काले अंगूरों का एक गुच्छा मुझे थमा दिया। वो इन अंगूरों को गुलाब जामुन कहता था। ग़नीमत है कि वो जामुनों को गुलाब जामुन नहीं कहता था!
तो साहब, नरवर के अमरूद बड़े मशहूर हैं।
जैसे कि फ़र्रुख़ाबाद के मशहूर हैं, क़ायमगंज के मशहूर हैं, और इलाहाबाद के अमरूदों की तो बात ही क्या। इलाहाबाद के अमरूद तो विश्वविजेता हैं।
नरवर के पास ही और एक गांव है, जिसका नाम है कचनारिया झाला। ये झाला ठाकुरों का गांव है। ठाकुरों में गांव का नाम गोत्र-बहुमत के आधार पर रखने की एक परम्परा है। बहुधा वे अपने नाम में उपनाम की भांति गांव का नाम जोड़ लेते हैं, बहुधा गांव के नाम में ही जोड़ देते हैं गोत्रनाम!
कचनारिया सुनकर अगर आप सोचें कि शायद यहां कचनार के दरख़्त हों तो यह भूल होगी। वहां तो ग्रामसीमाओं पर बंधे हैं ईख के खेत! यहां के गन्ने बहुत मीठे होते हैं। शायद इधर की मिट्टी में ही शर्करा घुली होगी, जो इतने मीठे ईख और अमरूद उपजाती है।
सुना है, गाडरवारा के पास एक शक्कर नदी बहती है, जिसके किनारे उगने वाले खरबूज़े शक्कर की तरह मीठे होते हैं। सुना ही है, कभी चखा नहीं।
गैब्रियल गार्सीया मार्केज़ की एक पुस्तक का शीर्षक ही है- ‘अमरूद की गंध’।
कहते हैं कि एक बार मार्केज़ एक कहानी लिखना बीच में ही छोड़कर रुक गए थे, क्योंकि वे यह भूल चुके थे कि अमरूद की गंध कैसी होती है। उस गंध की याद के बिना वो कहानी लिख नहीं सकते थे।
अमरूद की गंध को मैंने भी बहुत आत्मीयता से अनुभव किया है। सालों पहले की बात है। बारिशों के दिन थे। एक शहर में अपनी रोज़ी-रोटी का इंतज़ाम हुआ, लेकिन रहने को कोई ठिकाना नहीं था। तब एक सज्जन ने सदाशयतापूर्वक अपना घर मुझे रहने को दिया। जब हम अपना सामान-असबाब लेकर वहां पहुंचे तो अंधकार में अमरूदों की गंध ने मेरा स्वागत किया। मन में कौतुक कि यह अमरूदों की गंध कहां से आ रही है। भोरवेला में यह रहस्य खुला।
वास्तव में उस घर के आंगन में अमरूद का पेड़ था। उस पर ख़ूब मीठे अमरूद फलते। लेकिन आख़िर कोई कितने अमरूद खा सकता है? फिर ज़्यादा जामफल खा लें तो नज़ला ना हो जावै? लिहाज़ा बहुतेरे अमरूद डाल से टूटकर आंगन में धप्प से गिर जाते और वहीं पड़े रहते।
कोई छह महीना मैं उस घर में रहा, वे छह महीने अमरूदों की गंध से भरे थे।
अभी पिपलानी हाट में लाल सुर्ख़ अमरूद देखे तो वो दिन याद हो आए। वे सेब की तरह लाल अमरूद थे। कह लीजिए कि अमरूद ग़रीबों का सेब है। सेब की तुलना में औने-पौने दाम पर मिल जाता है।
अनुप्रस्थ काट से इसको काटकर, कभी यों ही तो कभी नमक-मिर्च लगाकर जनवृंद इसका सेवन करते हैं। भीतर से लाल अमरूद निकल जाए तो लोगबाग चहक उठते हैं। यों भीतर से लाल अमरूद स्वाद में अधिक मीठा भी हो, यह आवश्यक नहीं, किंतु उसका एक कौतुक होता है, कच्ची लाल इमली की तरह। कैरम में जैसे लाल रंग की गोटी रानी कहलाती है, वैसे ही लाल अंत:स्तल वाला अमरूद स्वत: ही नृपेन्द्र स्वीकार कर लिया जाता है। राजा फल!
जानने वाले जानते हैं कि मिट्ठू का चखा हुआ अमरूद सबसे मीठा होता है। वैसा कुतरा हुआ अमरूद मिल जाए तो उसे लेने में लज्जा नहीं करना चाहिए। स्वयं भगवान ने भी तो जूठे बेर खाए थे!
ज्ञानरंजन ने अमरूदों पर एक कहानी लिखी है- ‘अमरूद का पेड़।’
मुझे याद है, ज्ञान जी ने उसमें अमरूद के पेड़ को हरा छाता कहकर पुकारा है। उसमें भी ललछर चित्तियों वाले अमरूद का बखान किया गया है। यों वो कहानी इस बारे में है कि अमरूद के पेड़ को क्यों अशुभ माना जाता है। लोगों का क्या है, वो किसी भी चीज़ को शुभ और किसी को भी अशुभ मान बैठते हैं। किसी भी दिन, रंग, पेड़ या जगह को।
जैसे हमारे मालवे में एक देपालपुर क़स्बा है। यारों ने इस क़स्बे को ही असगुनिया मान लिया है। वो इसको ‘खोड़ला गांव’ कहते हैं। बस में बैठकर कोई देपालपुर जा रहा हो तो इस गांव का नाम नहीं लेता, इशारे से बताता है कि खोड़ला गांव जाना है।
बहरहाल, संस्कृत में अमरूद को अमृतफल कहा गया है। हो ना हो, ये अमरूद उस अमृतफल का ही अपभ्रंश हो। मुझे अमरूद का यह नाम सुनकर बारम्बार संस्कृत के एक गीतिकाव्य ‘अमरूशतकम्’ का ध्यान आता है। इस काव्य के रचयिता अमरु पेशे से सुनार थे। उन्होंने रस-परिपाक से भरे वे सौ श्लोक कहे।
कोई अमरूदों का दीवाना किसी दिन ठान बैठा तो अमरूदों पर भी सौ दोहे या शे’र कहकर ही मानेगा। चाहे तो वह उसको ‘अमरूदशतकम्’ कहकर बुला सकता है, कोई हर्ज़ नहीं है।
ठंडी तासीर का यह फल इतने सम्मान का हक़दार तो है ही कि उस पर काव्यरचना की जावै।
उस दिन हाट में उन लाल अमरूदों को देखकर मैं जाने कहां से कहां चला गया। मुझे याद आया, कितने ही दिनों से अमरूद नहीं खाया था, इसलिए सेर भर तुलवाकर ले आया। बहुत ही मीठे जाम थे। उनका वो स्वाद मुझमें भीतर से उमग गया।
अमरूदों की गंध फिर से रंध्रकूपों में भर गई।
मन अमरूद के रूख़ की तरह उन्मन होकर लहराने लगा।
बचपन से हमने यही वर्णमाला पढ़ी है कि अ अनार का, आ आम का।
आ आम का हो, कोई हर्ज़ नहीं, क्योंकि आम तो राजा है! और अनार के लाल रंग पर मैं कम अनुरक्त नहीं हूं, ये और बात है। किंतु मैं तो अ अमरूद का ही कहूंगा। फिर चाहे जो हो।
कुछ चीज़ें मन के क़रीब होती हैं, उनसे एक दूसरा ही राब्ता होता है। बचपन से लेकर अब तक, स्कूल से लेकर संसार तक अमरूद का फल किसी ना किसी रूप में यों मेरे साथ रहा है कि अगर वर्णमाला का पहला अक्षर उसके नाम कर दूं तो यह उसके प्रति मेरी कृतज्ञता का ज्ञापन ही होगा। कम ही होगा, अधिक नहीं।