आमेर की गुंजी / अपनी रामरसोई / सुशोभित
सुशोभित
पेड़ों की कलाएं भारतभूमि में यत्र-तत्र दिखाई देती हैं- मथुरा में, बनारस में, धारवाड़ में।
किंतु जयपुर में? आप कहेंगे, जयपुर की मिठाई तो गुझिया है, घेवर है, मावा-मिश्री है, और निश्चय ही, पेड़ा भी है। किंतु मैं जिस पेड़े की बात कर रहा हूं, उसको वो पेड़ा नहीं, "गुंजी" कहते हैं, और यह केवल आमेर में मिलता है।
वास्तव में गुंजी मिठाई नहीं, एक भोग-प्रसादी है, जो आमेर राजवंश की कुलदेवी शिलादेवी को अर्पित होती है। आमेर के क़िले में उनका मंदिर है। राजा मानसिंह शिलादेवी की प्रतिमा को बंगाल के जैसोर से लाए थे और आमेर में प्रतिष्ठापित किया था।
शिलादेवी के विधिवत पूजन के लिए राजा मानसिंह अपने साथ दस वैदिक बंगाली ब्राह्मणों को भी लाए थे। विद्याधर भट्टाचार्य इन्हीं के वंशज थे। तब कौन जानता था कि मानसिंह के बंगाली ब्राह्मणों का एक वंशज स्वयं मानसिंह के वंशज सवाई जयसिंह के लिए एक भव्य नगर का निर्माण करेगा!
जयपुर लिट्रेचर फ़ेस्टिवल से ऊबकर मैंने रिक्शा वाले को कहा, बनी पार्क में मेरा होटल है, उसके आसपास कोई अच्छी मिठाई की दुकान हो तो ले चलो। उसने कहा सिंधी कैम्प पर रावत वाले की दुकान मशहूर है, वहां चलो। मैंने कहा, चलो। किंतु उसे रास्ते में कान्हा स्वीट्स दिखाई दी तो वहीं उतार दिया। कहा, यहां की मिठाइयां भी कम नहीं हैं।
मैं भीतर गया। रबड़ी-घेवर खाया। रसमलाई खाई। मिश्री-मावा चखा। भली मिठाइयां थीं। मन मगन हुआ। लौट आया। किंतु मुझे लुभाने में तो आमेर की गुंजी ही सफल हुई।
कहने वाले कह सकते हैं, जयपुर में इससे अच्छी मिठाइयां आपको मिल सकती हैं। सम्भव है। किंतु घृतवन्त पेड़ों से इतनी गहरी सम्पृक्ति है कि आमेर की गुंजियों से ही तृष्णा शांत हो सकी। आमेर वाले भले उसे पेड़ा ना कहें, आकार में भी वह पेड़े जैसी ना लगे, मिठाई तक ना वो कहलाए और पूजन-प्रसादी मानी जाए, अंतर्मन तो उसका पेड़े का ही है। उसी रससिक्त अंतर्मन से अपनी मैत्री हो सकी थी।
उज्जैन में "कार्तिक चौक" नामक पंडों की बस्ती में जीवन के दस साल बिताने का ही यह परिणाम है कि खोये की ना हो तो उसे हम मिठाई ही नहीं मानते। गोरस ना हो तो उसे मिष्ठान्न ना कहेंगे। घेवर और बालूशाही को मैदा कहकर नकार देंगे। अब वैसे ही संस्कार बन गए हैं, वो छूटने से रहे। मां शिलादेवी गुंजी की मिठाई की अनंतकाल तक रक्षा करें, यही प्रार्थना है। इति।