राजा लंगड़ा है / अपनी रामरसोई / सुशोभित
सुशोभित
आम भले ही मौसमी फल हों, आमों का तआर्रुफ़ ज़रूर सदाबहार है। ग़ालिब जैसे आला दर्ज़े के शाइर आमों के दीवाने थे और गुलो-बुलबुल, लबो-रुख़सार पर शे’र कहने के उस ज़माने में आमों की सिफ़त पर शे’र कहा करते थे। आम चीज़ ही ऐसी हैं। यह भारतीय मन की आस का फल है। उसके लिए परिपूर्णता और परितोष का सजीव विग्रह। इनमें भी मौसम के सबसे आख़िर में आने वाले लंगड़ा आम की बात निराली है।
पूछ लीजिए कि फलों का राजा आम होता है, लेकिन आमों का राजा कौन है?
सभी के अपने-अपने जवाब होंगे। मुझसे पूछो तो मैं कहूंगा कि भई राजा तो ‘लंगड़ा’ है।
मेरी इस बात से मेरे बनारसी यार-दोस्त ख़ूब ख़ुश हो जाएंगे।
अलबत्ता चंदौली के ठाकुरबाग का ‘लंगड़ा’ आम खाने का अवसर कभी नहीं रहा, फिर भी जितना जैसा जो भी आम खाया है, उसमें लंगड़ा ही प्रात:स्मरणीय है।
‘लंगड़ा’ चीज़ ही ऐसी है। दरख़्त पर डाल पका शहद का छत्ता। हरे के लिहाफ़ में केसरिया राजभोग।
लेकिन बहुत मुमकिन है ऐन इसी नुक़्ते पर मेरे महाराष्ट्र के यार-दोस्त आएं और कहें कि ‘हापुस’ कभी चखा न होगा, इसलिए ‘लंगड़े’ के गुण गा रहे हो। तो उन दोस्तों से मैं अर्ज़ करूं कि ‘हापुस’ भी खाया है, गंध उसकी मतवाला-मदहोश कर देने वाली है, पर ‘रसो वै स:’ की पदवी तो ‘लंगड़ा’ को ही दूंगा।
तिस पर, हो सकता है मेरे महाराष्ट्र वाले मित्र कहें, अजी कौन-सा ‘हापुस’ खाया है आपने, ‘हापुस’ केवल रत्नागिरी-देवगढ़ का होता है, बाक़ी तो बस कैरियां हैं।
अब जाकर मैं हार मानूं और कहूं कि भई, रत्नागिरी-देवगढ़ का कोंकणी हवाओं में पका ‘हापुस’ तो नहीं खाया। ऐसा नहीं कि उसके लिए कोशिशें नहीं कीं। लेकिन 800 टका दर्ज़न के भाव देखकर हिम्मत नहीं हुई।
जीवन में कभी अवसर रहा तो लगाएंगे ‘हापुस’ का भी भोग, अभी तो नहीं वो अपने बस का रोग!
इस साल माघ के मास में ही आन पहुंचे थे आम।
जाने कौन जल्दबाज़ी रही होगी!
मुझे याद है, शीत में दंतवीणा के निनाद वाली वह संध्या, जब शहर के उस मोड़ पर एक सुपरिचित सिंदूरी ललाई को चीन्हकर ठिठक गया था और बोल पड़ा था बरबस- जनवरी में लालबाग आम!
तब फलमंडी के उस सौदागर ने मुस्कराते हुए कहा था- मौसम की मेहर है साहब, आप तो चिंतन-मनन-कौतूहल छोड़िए और इस मिष्ठान का सेवन कीजिए। बताइए कितने सेर तौल दूं?
और इस तरह मौसम का पहला आम चखने का आयोजन हुआ था!
फिर धीरे-धीरे आए केसर, बादाम और तोतापुरी। जब तप रहा था निदाघ, तब ऐन गर्मियों के बीच में आए हापुस- गंधवाह, कांतिमान और प्रभामयी! वैष्णवी वैभव का उत्सव!
और जब, धूप की हड़ताल टूटी और आषाढ़ का मास लगा तो फलमंडियों में चौतरफ़ा छा गए दशहरी, चौसा और सफ़ेदा!
और तब, सबसे आख़िर में आया लंगड़ा!
लंगड़ा था ना!
कहते हैं पानी पड़ने के बाद आम नहीं खाना चाहिए, कि आषाढ़ में आम का भोग पित्त करता है।
बड़े-बुज़ुर्गों की बात है, सही ही होगी, लेकिन तब इसका क्या करें कि हस्बेमामूल सबसे उम्दा और सबसे लाजवाब आम पानी पड़ने के बाद ही आते हैं : लंगड़ा, दशहरी और चौसा। यह गोलचौकी के मुहाने पर खेलने वाली फ़ुटबॉल की आक्रमण पंक्ति की तरह है। आपको लगता है कि आक्रमण पंक्ति यहां समाप्त हो रही है, जबकि वहां पर वह शुरू हो रही होती है।
हमारे इधर यानी मालवा में आमों का मौसम शुरू होते ही जो पहला फल सर्वत्र दिखाई देता है, वह है लालबाग। लाल छींट वाला आम। इसको सिंदूरी भी कहते हैं। बहुत ख़ुदमुख़्तार और दानिशमंद फल। सिफ़त में यह लंगड़े का छोटा भाई है। स्वाद में मिठास के साथ ही तनिक तुर्शी। वो आम ही क्या, जो मीठाचट हो। जिसमें तनिक तुर्शी ना हो, तेवर ना हो। मीठे में शाइस्तगी होती है, लेकिन तुर्शी में एक शोख़ी है, क़िरदार है!
बादाम आम ग़रीब-ग़ुरबों की मिठाई है। हापुस और दशहरी एक जात के फल हैं : बिन रेशे वाले और ख़ूब मीठे, अलबत्ता दशहरी क़दकाठी में किंचित लम्बोतर होता है। इन आमों की तुलना लखनवी सफ़ेदे से करें, जिसमें रेशा ही रेशा होता है, गूदा क़त्तई नहीं। रेशा और रस। वह रसवंत आम है।
लालबाग-लंगड़ा, हापुस-दशहरी की ही तरह एक और जोड़ चौसा और केसर का बनता है। दोनों के स्वाद में अपूर्व माधुर्य के साथ ही एक ख़ास वानस्पतिकता। हरी गंध से भरे आम हैं ये। तोतापुरी का गूदा ठोस होता है, अलबत्ता रस उसमें नहीं। तीखे नाक-नक़्श वाला फल : नोंकदार और चोंचदार। दिखने में चौसा और लंगड़ा लगभग एक-से लगते हैं, दोनों ही हरेकच्च, लेकिन एक फ़र्क़ है- लंगड़े के छिलके पर कत्थई चिकत्तियां होती हैं। छींट से भरा सुडौल फल, जिसे सहलाना भी सुख।
लालबाग की ही एक क़िस्म को विकसित कर गुलाबखास बना लिया जाता है। कुछ आमों के नाम बड़े ही सुंदर होते हैं- जैसे केसरलता, आम्रपाली, मल्लिका, किशनभोग, सुवर्णरेखा, नीलम इत्यादि। मल्लिका का अफ़साना यह है कि ये कोई आध किलो का एक आम होता है। चौकोर गुठली वाला फल। जबकि कुछ आमों की गुठलियां गेंद की तरह गोल होती हैं। बहुतेरे आम ऐसे होते हैं, जो इलाक़ाई सिफ़त के होते हैं और ख़ास आबोहवा में ही फलते हैं, जैसे दीघा का मालदा, चंपारण का जरदालू, काकोरी का दशहरी, सहारनपुर का हाथीझूल, दक्खन का बैंगनपल्ली। कहते हैं अकेले मलीहाबाद में ही आम की सात सौ क़िस्में होती हैं, कभी तो तेरह सौ होती थीं।
लेकिन ये तक़रीर आमों पर नहीं, लंगड़ा आम पर है।
लिहाज़ा हम अपने नुक़्ते पर लौट आते हैं।
जब लाहौर और इलाहाबाद एक ही मुल्क़ यानी हिंदुस्तान में थे, उन दिनों का अफ़साना है।
अल्लामा इक़बाल लाहौर रहते थे और हर शाइर की तरह आमों के आशिक़ थे। इधर इलाहाबाद में अकबर इलाहाबादी रहते थे, जिनके आम के कई बाग़ थे।
उन्होंने एक बार लंगड़े आमों का एक टोकरा तोहफ़े के तौर पर इक़बाल के लिए लाहौर भिजवाया। उधर से अल्लामा का रुक़्क़ा आया, जिस पर यह शेर था-
‘मसीहाई की तेरी दाद देता हूं मैं ऐ अकबर, इलाहाबाद से लंगड़ा चला लाहौर तक पहुंचा!’
चुनांचे लंगड़ा था तो मौसम की इब्तिदा में अगर्चे चला होगा तो धारासार वर्षा के अवगुंठन खिंच जाने तक ही लाहौर पहुंचा होगा, लेकिन पहुंचा ज़रूर था!
बनारस में दो अफ़साने चलते हैं।
कोई कहता है कि कोई लंगड़ा साधु तो कोई कहता है कोई लंगड़ा हाजी लंगड़ा आम की पैदाइश के लिए ज़िम्मेदार था, लेकिन इतना ज़रूर है के ये अफ़साना दो-अढ़ाई सदी पहले का है!
काकोरी ज़िले के दशहरी गांव में दशहरी आमों की पैदाइश हुई थी और हरदोई ज़िले के चौसा गांव से निकला था चौसा आम तो लंगड़े जैसा रसवंत आम भी किसी रसपूर्ण नगर से ही उपजेगा ना! यूं भी कहते हैं कि दोआब में दो ही रस हैं : हाथरस और बनारस।
शेष नीरस हैं!
बनारस कई चीज़ों के लिए मशहूर है।
अव्वल तो बनारस बनारस होने के लिए मशहूर है।
दूसरे, बनारस मशहूर होने के लिए मशहूर है!
और जो, इन दोनों से फ़ारिग़ हो जाए तो फिर बनारस गणिकाओं, सांडों, सीढ़ियों, साड़ियों, संन्यासियों, पहलवानों, ज़र्दा, मिठाइयों और लंगड़ा अाम के लिए भी मशहूर है!
यहां पर एक और इत्तेला ये कि पारसी थिएटर के सरताज आग़ा हश्र कश्मीरी भले ही नाम में कश्मीरी तख़ल्लुस लगाते हों, लेकिन वे बनारसी थे और यार लोग उनको भी ‘बनारस का लंगड़ा’ कहकर पुकारते थे। क्यों पुकारते थे, ये तो अल्लाहतआला ही जानें!
ख़ैर, वो आषाढ़ के दिन थे, जब मंडी में लंगड़ा आमों की आमद हुई, और अब ये श्रावण के भींजे हुए दिवस हैं। सेरे लग चुके हैं। उज्जयिनी नगरी में राजाधिराज नगर का फेरा लगाने लगे हैं। पूर्वा भाद्रपद नक्षत्र अब कितना दूर होगा?
कहते हैं आम का पेड़ पूर्वा भाद्रपद नक्षत्र का रूप होता है और इस नक्षत्र में जन्मे लोग आम के पेड़ की उपासना करते हैं।
मैं आम्र-पूजक जाने किस नक्षत्र में जन्मा होऊंगा?
श्रावण में आकाश को निर्निमेष देखते रहो तो पर्जन्य मेघ की कालिमा क्षितिज से क्षितिज तक दिखती है। अपराह्न होते होते यह कालिमा जैसे सम्पूर्ण वायुमंडल में पसर जाती है।
अभी चंद रोज़ पहले फलमंडी में लंगड़ा आमों को देखा तो उनके हरेकच्च छिलकों पर कत्थई छींट के साथ ही कालिमा की एक परत दिखाई दी। दिल धक्क से रह गया!
तो क्या ये विदाई का संकेत है?
लंगड़ा आमों पर कालिमा की परत चढ़ जाए तो मानिए यह आख़िरी खेप का फल है।
कि अब चला-चली की वेला है।
कि आज है, कल नहीं।
कुम्भ का मेला उठने पर जोगी-जंगम-संन्यासी कहते हैं ना- कड़ी-पकौड़ी बेसन की, राह पकड़ो टेसन की!
कुल वही आलम है!
इस साल माघ के मास में ही आन पहुंचे थे आम। जाने कैसी जल्दबाज़ी थी! और अब, जब माधुर्य की चौंसठ कलाएं दिखाकर मौसम का आख़िरी आम भी विदा हो रहा है, तब भी मन में वही टेक है कि भला ऐसी भी क्या जल्दी है!
अव्वल तो लेटलतीफ़ी, तिस पर जल्दबाज़ी। लंगड़ा भाई, ये बात दुरुस्त नहीं है!
क्योंकि, रात्रिभोज के पश्चात सुगंधित द्रव्य वाला पान खाएं या नहीं, मिट्टी के घड़ों में रखे आमों का सेवन इधर आषाढ़ से ही बिलानागा किया है। शायद देह पर मेद भी आ गया हो। रक्त में मधु का संचार बढ़ गया हो। किंतु शीत, माधुर्य और मिट्टी की गंध की वह त्रिवेणी, जो लंगड़ा आमों की शिराओं तक में पैठ जाती थीं, उन्होंने मन में संतोष की कैसी प्रतिमा रची है, यह नाशपातियों और आलूबुख़ारों का यह पनीला मौसम भला क्या जाने!
एक कवि ने लंगड़ा आमों को श्यामा की उपमा दी थी। कहा था- जैसे श्यामा का तन श्याम होता है और मन वैष्णवी, ऐसे ही यह लंगड़ा आम है! कि ठाकुरजी की हवेली का अन्नकूट है। और मेरे लिए तो छप्पन मिष्ठान एक तरफ़ और गाछ पर पका यह राजभोग दूसरी तरफ़। मजाल है जो तराज़ू का कांटा उस तरफ़ डिग जाए!
इसीलिए तो, लंगड़ा आम को अलविदा कहना हमेशा हृदयविदारक होता है!
फिर भी, जाओ मेरे भाई, आहिस्ते आहिस्ते ही जाना, लेकिन अगले साल वक़्त पर लौट आना!
जैसे इलाहाबाद से लाहौर चले गए थे लंगड़ाते, ऐसे ही श्रावण से आषाढ़ चले आना!
ऋतु से रस तक, शाख़ से फल तक, डाल से मंडी तक, दीठ से जिह्वा तक, यूं ही चलते रहना अविराम!
शहर के उस मोड़ पर भारी मन लिए ही अब बदलूंगा अपनी राह, जब तक तुम फिर लौट नहीं आते, मेरे भाई लंगड़ा आम!
ऐहतराम, ऐहतराम!