कमल ताल / सुनो बकुल / सुशोभित
सुशोभित
नीले फीते सी नदी तो सर्पिल गति से सम्मोहन की लय में बहती है।
इसी नदी पर बांध बांध दो तो सूत के फटे अंगोछे सा जहां तहां फैल जाता है उसका जल।
कहीं पोखर, कहीं दलदल, कहीं डबरी, कहीं तलैया रचने वाले बांध के इस जल में खिल जाता है कमल ताल- किनारों पर बांसवन के बंधान वाला।
मेरे शहर इन्दौर के पास ऐसा ही एक कमल ताल है।
नदी है गम्भीर। इसलिए नहीं कि प्रगल्भ वेग से बहती है। उसका नाम ही वही है।
बांध है यशवंत सागर, जिसका नाम इन्दौर के होलकर महाराजा के नाम पर रखा गया था, तीस के दशक में।
कमल ताल है हातोद के आगे गांव गुलावट में।
यह देपालपुर में पड़ता है। ओह, मैंने तो नाम ले लिया। देपालपुर को इधर मालवे में खोड़लागांव कहते हैं, उसका नाम लेने की मनाही है।
किंतु कमल अभी कहां?
कमल तो क्वांर-कातिक में खिलेगा।
उस मास में यह समूचा जलथाल मानो एक सजीव "पद्मपुराण" का पृष्ठ बन जावैगा।
किंतु अगस्त की मेंहभरी दोपहर मैं उस कमल ताल में क्या करने गया था? क्या देखने गया जलकुमुदिनी की पुरइन? वैसी भी क्या अधीरता?
अधीरता के बारे में बाद में बतलाऊं, पहले तो यह कि बरखा के इस दिन मैंने जलदेश में दो चित्र देखे-
एक तो यह कि नलिनियों की पुरइन पर ज्यूं रत्नों का जड़ाव हो, वैसी सजी थीं नन्ही, निष्कलुष बूंदें।
दूसरा यह कि वेणुवन का विटप इतना सघन था कि बरखा का प्रवेश तक उसके भीतर वर्जित, फिर चाहे दावानल ही क्यों न हो।
और इनके बीच, मैं रक्तकमल की लालसा मन में लिए घूम रहा था, नील उत्पल कौन जाने इस जीवन में देखने को मिले या नहीं।
इन्दौर के इस शहर में कितने धूपधुले, उजले-निखरे, उमगे-हुलसे दिन बिताए, केवल इसीलिए कि अगस्त की बरखा के दिनों में एक दिन वे दिन बिला जाएं?
कमल तो क्वांर-कातिक में खिलेंगे, सावन-भादो में वहां क्यों कर गया था मैं?
इसीलिए तो नहीं कि क्वांर-कातिक में भला वहां कौन जा सकेगा, जो यह देश ही छूट गया।
कहीं यही तो अधीरता के उत्सव का प्रयोजन नहीं था?
विदाई का शोक कोई अपने मन में रोपे तो वैसे रोपे, जैसे काठ की नौकाएं पोखर में रोपती हैं जलकुमुदिनी का स्वप्न।
और बरखा के चन्दोवे तले जैसे चुपचाप जलता है बांसवन, अंतस में विदा के शोक से मौन होकर कोई जले तो यों जले।