हंस और खंजन / सुनो बकुल / सुशोभित

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हंस और खंजन
सुशोभित


दादा अमृतलाल नागर ने एक उपन्यास गोस्वामी तुलसीदास के जीवन पर लिखा है, दूसरा महाकवि सूरदास के जीवन पर।

गोस्वामी जी के जीवन पर आधारित उपन्यास का शीर्षक है- "मानस का हंस।"

सूरदास जी के जीवन पर आधारित उपन्यास का शीर्षक है- "खंजन नयन।"

"सूर सूर तुलसी शशि!" - ये उक्ति तो बहुत प्रचलित है।

यानी सूरदास जी सूर्य हैं तो तुलसीदास जी चंद्रमा हैं।

भारत का साहित्याकाश इन दोनों की ही आभा से दीप्त है। और एक अकेले दादा अमृतलाल नागर ही ऐसे रचनाकार हैं, जिन्होंने दोनों के ही जीवन में अवगाहन करके उनकी कथा-गाथा बांची है।

किंतु इन दोनों पुस्तकों के शीर्षक में दादा ने जिस रूपकात्मकता का निर्वाह किया है, वह मेरे लिए सदैव ही प्रमोद, औत्स्युक्य और रोमांच का विषय रहा है।

"मानस का हंस" - इस शीर्षक की उत्पत्ति इस तथ्य से हुई है कि गोस्वामी जी "मानसकार" थे। उन्होंने भारतभूमि का प्रात:स्मरणीय महाकाव्य "रामचरितमानस" रचा है।

"मानस" का एक अर्थ मनुष्य की चेतना होती है तो दूसरा अर्थ "मानसरोवर" भी होता है।

"मानसरोवर" में "राजहंस" होते हैं तो मनुष्य की चेतना को भी "हंस" की संज्ञा निर्गुणोपासकों ने दी है- "चल हंसा वा देस।"

काव्यार्थ में डूबी इस अप्रतिम रूपकात्मकता से भरकर दादा अमृतलाल नागर ने अपनी पुस्तक का वह शीर्षक रचा- "मानस का हंस।"

गोस्वामी जी पर लिखने के बाद दादा ने सूरदास जी पर लिखने का मनोरथ बांधा।

वे पारसौली में जा बसे और महामहोपाध्याय पं. गोपीनाथ कविराज के "श्रीकृष्णप्रसंग" में अवगाहन करने लगे।

पारसौली यानी सूरदास जी का गांव। यों सूरदास जी रूनकता में जन्मे थे, किंतु गोवर्धन पर्वत की तलहटी में बसे गोवर्धन ग्राम से लगभग एक सवा मील की दूरी पर स्थित पारसौली ग्राम में ही उन्होंने अपना जीवन बिताया।

गोकुल के सिवा सूरदास जी का भला और कहां ठिकाना होता? "जहाज़ के पंछी" की तरह उनका बसेरा तो वहीं था।

इसी पारसौली गांव में सूरदास जी ने पदावली गाते-गाते प्राण त्यागे।

उनका अंतिम पद था-

"खंजन नयन रूप रस माते,

अतिशय चारु चपल अनियारे

पल पिंजरा न समाते।"

यहीं से दादा को अपनी पुस्तक का शीर्षक सूझा- "खंजन नयन।"

"खंजन नयन" यानी, वह जिसके नयन खंजन पक्षी के जैसे सुंदर हों।

और खंजन पक्षी कौन? वह पक्षी, जिसकी आंखें इतनी कजरारी हैं कि मालूम होता है, जैसे काजल से आंजी गई हों।

खग का "ख"।

काजल का "अंजन"।

इस तरह उस पाखी का नाम हुआ- "खंजन"।

और सूरदास? वे तो जन्मांध थे ना? उनके नेत्रों में तो ज्योति ही नहीं थी। जन्मांध को सूरदास कहने की परम्परा ही उनके बाद चली।

उन्हीं नेत्रहीन सूर को दादा अमृतलाल नागर ने "खंजन नयन" कहकर पुकारा, तो जैसे एक दूरस्थ प्रतीकात्मकता की लौ क्षितिज से क्षितिज तक जल गई।

ऐसा नहीं कि खंजन से सूरदास जी का ही सम्बंध था, तुलसीदास जी ने भी खंजन को अपने रचनाकर्म का विषय बनाया है-

"जानि सरद रितु खंजन आए।

पाइ समय जिमि सुकृत सुहाए।।"

आकाश में अगस्त्य तारा उगे, धरती पर कांस के फूल फूले और हमारे नगर में खंजन पक्षी चले आएं तो समझ लीजिए कि वर्षा ऋतु अब समाप्त हो रही और शरद ऋतु आ गई है।

"सूर सूर तुलसी शशि" - यह उक्ति दादा अमृतलाल नागर से पहले प्रचलित थी।

उन्होंने वे दो अनूठी पुस्तकें लिखकर इसे "खंजन सूर हंस तुलसीदास" कर दिया।

वैसे भी भारतीय कल्पना में श्रीराम का चरित्र "मानस के हंस" जैसा ही धवल और निष्कलुष है ना, जैसे कि श्रीकृष्ण की शोभा "खंजन" के जैसी अभिराम और मनोहारी।

"श्रीरामकथा" और "श्रीकृष्णलीलाचरित" के अप्रतिम अनुगायकों पर लिखी इन दो पुस्तकों के नामकरण में निहित रूपकात्मकता बहुत-बहुत दूर तक जाती है, बंधु।

ऐसी पुस्तकें रचने वाले दादा अमृतलाल नागर जैसे विरल मनीषी को मेरा विनम्र नमन।