कुमारिल का शोक / सुनो बकुल / सुशोभित

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कुमारिल का शोक
सुशोभित


इन दिनों मुझे "कुमारिल भट्ट" रह-रहकर याद आते हैं!

वही "कुमारिल" :

जो मंडन मिश्र के गुरु थे!

जो "मीमांसा दर्शन" के "भाट्टमत" के प्रतिपादक थे!

और जो थे "श्लोकवार्तिक" के यशस्वी रचयिता!

कुमारिल के ग्रंथ उतने लोकप्रिय नहीं हैं, जितनी प्रचलित हैं कुमारिल की किंवदंतियां। लोकश्रुतियों में अशेष स्थान है कुमारिल का।

किंतु मुझे इन दिनों कुमारिल रह-रहकर याद क्यों आते हैं?

इसके पीछे बौद्धाचार्य धर्मपाल और कुमारिल की कथा है।

कुमारिल कट्टर "मीमांसक" थे।

कहते हैं उन्हें उन्हीं के सेवक "धर्मकीर्ति" ने शास्त्रार्थ में पराजित कर "बौद्ध मत" स्वीकार करने को बाध्य कर दिया था। फिर वे "नालंदा" के बौद्धाचार्य धर्मपाल के मठ में रहकर बौद्ध दर्शन का अध्ययन करने लगे।

एक दिन की बात है!

तथागत बुद्ध से लेकर वसुबंधु, नागार्जुन और इधर दिंग्नाग तक जो परंपरा रही थी, उसी के अनुरूप आचार्य धर्मपाल "वैदिक दर्शन" में निहित दोषों का उद्घाटन कर रहे थे।

आचार्य धर्मपाल के भीतर स्वभावगत रूप से "कटाक्ष" की वृत्त‍ि बहुत सघन थी, अतएव वे नाना प्रकार से वैदिक दर्शन पर कटाक्ष भी करते जा रहे थे।

कुमारिल अब भले ही बौद्ध मत स्वीकार कर चुके हों, लेकिन उनका मीमांसक मूल इससे आहत हो गया। उनकी आंखों से आंसू फूट पड़े।

कुमारिल अपने आचार्य से बोल पड़े : "आप क्या जानें वेद-विद्या की श्रेष्ठता!" आचार्य को क्रोध आ गया। उन्होंने अपने शिष्यों से कहा : "इस मूढ़ को पर्वत शिखर से नीचे धकेल दो, देखते हैं कौन-सा वेद इसकी रक्षा करता है!"

कुमारिल को पर्वत शिखर पर ले जाया गया। शिखर से नीचे धकेले जाने से पूर्व कुमारिल ने प्रार्थना की : "यदि वेद प्रमाण हैं तो मेरे प्राण बचे रहें!"

कुमारिल बच गए, किंतु अपने वाक्य में "यदि" लगा देने के कारण उनकी एक आंख फूट गई!

इन दिनों मुझे कुमारिल भट्ट रह-रहकर याद आते हैं!

दो तरह की "कुमारिल अवस्थाएं" इन दिनों मुझे द्योतक होती हैं :

एक तो, शोक और रुदन से भरी वह करुणार्त अवस्था, जो कहती है, "आप क्या जानें वेद-विद्या की श्रेष्ठता!"

दूसरे, संशय से भरा वह "यदि", जो फोड़ देता है एक आंख!

और एक तीसरी अवस्था भी है, जिसमें फूटी आंख वाले कुमारिल ने अंतत: आचार्य धर्मपाल से शास्त्रार्थ किया था और उन्हें परास्त कर दिया था, जिसके बाद आचार्य धर्मपाल ने आत्मदाह कर लिया!

वर्तमान प्रसंगों में यह तीसरी अवस्था अभी उपस्थित होना शेष है!

अनेक सज्जन बौद्ध धर्म को "शील" का धर्म समझते हैं और कहते हैं कि अगर आप बौद्ध होकर भी करुणावान नहीं हैं तो पाखंडी हैं। यद्यपि वैसा अनिवार्य नहीं है। बौद्ध धर्म का मूल "वेद-विरोध" है, "नित्य तत्व" का नकार है, "आत्म तत्व" का निषेध है, और वह "प्रतीत्य समुत्पाद" है, जो चेतना को अनेक बिंदुओं की एक विश्रृंखला की तरह देखता है, सातत्य की तरह नहीं। किसी भी बौद्धाचार्य के चरित्र का निर्धारण "करुणा" के आधार पर ना करें। उल्टे अगर वह धर्मपाल की तरह आपको पर्वत शिखर से नीचे फेंक देने को उद्यत दिखाई पड़ता है, तो उसके बौद्ध चिंतन में पारंगत होने की संभावनाएं अधिक हैं!