बुद्ध और आनंद / सुनो बकुल / सुशोभित

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बुद्ध और आनंद
सुशोभित


बौद्ध परम्परा के अनुसार हर बुद्ध के दो प्रमुख शिष्‍य और एक परिचारक होता है।

गौतम बुद्ध के दो प्रमुख शिष्‍य सारिपुत्‍त और मौदगल्‍यायन थे, आनंद उनके परिचारक थे।

लेकिन बुद्ध के प्रमुखतम शिष्‍यों में आनंद अकेले ऐसे थे, जो स्‍थविर ही थे, अर्हत नहीं थे। स्‍नेह के सूत्र से उनसे बंधे थे।

'सुत्‍तपिटक' के 'अंगुत्‍तर निकाय' में तथागत के शिष्‍यों का विस्‍तृत वर्णन किया गया है। आनंद का उल्‍लेख इसमें पांच बार हुआ है, किसी भी अन्‍य से अधिक। स्‍वयं तथागत की शिक्षाओं में अगर उनके किसी एक शिष्‍य का नाम सबसे अधिक बार आता है तो वे आनंद ही हैं। आनंद थे ही इतने विलक्षण।

अपनी तीव्र स्मृति, बहुश्रुतता तथा देशानुकूलता के लिए आनंद भिक्षुसंघ में अग्रगण्य थे। स्‍मृतिधर थे, कोई 84000 बुद्धवचन उन्‍हें कंठस्‍थ थे। 487 ईसा पूर्व में बुद्ध निर्वाण के बाद राजगृह में हुई प्रथम धम्‍म-संगीति में महाकाश्‍यप ने आनंद से ही धम्‍म की प्रामाणिकता की पुष्टि की थी।

वे लगभग हर समय छाया की तरह तथागत के साथ रहते। उनकी सेवा-टहल करते। कुशीनारा के शालवन में दो शालवृक्षों के बीच जहां तथागत का परिनिर्वाण हुआ, वहां आनंद ने ही उत्‍तर दिशा की ओर सिरहाना करके मंचक बिछाया था।

अकसर लगता है कि आनंद तथागत की अंतिम आसक्ति थे। तथागत के दास और तथागत के सखा। बुद्ध से बड़ा निर्मोही कौन हुआ है और बुद्ध से अधिक करुणा भी किसमें रही? आनंद का मन कोमल था। संघ में स्त्रियों को प्रवेश देने के लिए तथागत को आनंद ने ही राज़ी किया था। इसी के बाद महाप्रजापति गौतमी को संघ में प्रथम भिक्‍खुनी के रूप में प्रवेश मिला। तथागत ने आनंद के बारे में कहा था कि अगर आनंद अर्हत (मुक्‍त) हुए बिना भी मृत्‍यु को प्राप्‍त हुए, तब भी अपने हृदय की शुद्धता के कारण वे देवताओं शास्‍ता होंगे।

तथागत के महापरिनिर्वाण पर आनंद के आंसू न थमे। अनासक्ति का उपदेश ज्‍यूं उन्‍हें छू भी न पाया हो। 'थेरीगाथा' में आनंद के विलाप और संताप का वर्णन है। पहली संगीति से पहले तो यह प्रस्‍ताव भी रखा गया था कि आनंद को उसमें प्रवेश न दिया जाए, क्‍योंकि वे अभी अर्हत नहीं हुए थे। तब जाकर आनंद ने कठोर साधना की और संगीति से पहले संबोधि को प्राप्‍त हुए।

तथागत का संघ सम्बोधि अर्जित करने का एक महाआयोजन था। वहां अकेले आनंद ही ऐसे थे, जो मुक्ति की तृष्‍णा से नहीं बल्कि तथागत के प्रति अपने प्रेम से बंधे थे।

तथागत और आनंद एक ही दिन जन्‍मे थे। एक ही लोक (तूसीत) से एक ही कुल (शाक्‍य) के एक ही वंश (बुद्ध और आनंद के पिता भाई थे) में अवतरित हुए थे। 25 वर्षों तक आनंद तथागत के निष्‍ठावान परिचारक रहे। बुद्ध अनासक्ति का उपदेश देते, आनंद लगभग स्‍त्रीभाव से उनकी सेवा करते। निस्‍संगता के उस महासंघ में मैत्री, स्‍नेह और प्रेम का यह सम्बंध अनूठा था।

बुद्ध निर्वाण के बाद आनंद और 40 वर्षों तक जीवित रहे, जैसे एक भव्‍य सूर्यास्‍त के बाद पश्चिम में पटाक्षेप का मंच देर तक रक्तिम रहता है, फिर जैसे क्षितिज के पटल पर तिमिर का परदा गिर गया।