खिचड़ी / अपनी रामरसोई / सुशोभित
सुशोभित
खिचड़ी के बारे में चिंतन करने पर मुझे सबसे पहले सत्यजित राय की फ़िल्म ‘अपराजितो’ का एक दृश्य याद आता है-
शस्य श्यामल बंगभूमि के ग्राम निश्चिंदपुर से विस्थापित होकर अपु का परिवार बनारस चला आया है। यहां अंधकार और सीलन से भरी एक चॉल में सर्बजया बाड़ा धो रही है। हरिहर सौदा-सुलफ़ करने चौक-बाज़ार के लिए निकलता है, तो सर्बजया कहती है- सुनो, अगर थोड़ा पैसा हो तो माष-भात ले आना। इधर दो तीन दिन से अपु खिचड़ी खिचड़ी कर रहा है। हरिहर मुस्कराकर कहता है, पैसों की चिंता क्यों करती हो, अवश्य ले आऊंगा।
वह दृश्य देखकर मैं तीन बातें सोचने लगा।
अव्वल तो यही कि अरे, खिचड़ी भी रसना की लालसा का वैसा आलम्बन हो सकता है क्या कि बच्चे खिचड़ी खाने का हठ करें! क्योंकि जहां तक मुझे स्मरण आता है, बचपन में जब भी खिचड़ी पकाई गई, हमने नाक-भौं ही चढ़ाई। तब भला वो बच्चे कौन से होंगे, जो खिचड़ी खाने का हठ करते होंगे? किस संसार के वासी होंगे?
ऐसा नहीं है कि खिचड़ी सुस्वादु पदार्थ नहीं है, किंतु उसके सुपाच्य होने की महिमा इतनी गाई गई है कि उसमें बहुधा यह ध्यान नहीं रहता कि खिचड़ी रसचर्वणा का भी निमित्त हो सकती है। भावना मन में यही बनती है कि यह तो बीमारों का भोजन है। या फिर यह कि आधे मन की रसोई है।
दूसरे, सर्बजया ने कहा था अगर गांठ में दमड़ी हो तो सौदा ले आना। दमड़ी यानी क्या? भला खिचड़ी कबसे धनिकों का देवद्रव्य हो गई! वह तो निर्धनों का पकवान है ना! क्या संसार में ऐसे भी निर्धन रहते हैं, जिन्हें खिचड़ी तक नसीब नहीं, जो अगर कभी बच्चे का मन हो गया तो, ये और बात है कि बच्चे का मन भला क्यों कर वैसा होने लगा?
और तीसरे, माषदाल? धत्तेरे की, तो क्या बंगाली लोग उड़द दाल की खिचड़ी खाते हैं?
क्योंकि हमारे यहां मध्यभारत में तो दो ही रीति-भांति से खिचड़ी पकाई जाती है-
एक, हरे छिलके वाली मूंग दाल के साथ, जो बहुधा रोगी का पथ्य होती है।
और दूसरे अरहर की दाल के साथ, जिसे आप दाल-भात का एक अधिक रेलमपेल वाला संस्करण कह सकते हैं।
अरहर की दाल वाली खिचड़ी में रुचि और अनुकूलता के अनुसार आलू, टमाटर और बटला भी पड़ता है, सहज सुलभ हो तो सब्ज़ियां भी। लेकिन तीखे गरम मसाले सामान्यत: नहीं पड़ते, यों खिचड़ी में तीखे मसाले नहीं पड़ सकते, ऐसा कोई नियम भी नहीं है।
यहां यह याद रहे कि पुलाव एक भिन्न पदार्थ है और खिचड़ी एक भिन्न वस्तु है. उनका गुणधर्म पृथक है। उनके प्रयोजन भी भिन्न हैं। फिर बिरयानी की बात तो यहां रहने ही दें। इसलिए नहीं कि वह प्रतिकूल आहार है। बल्कि इसलिए कि उसकी परियोजना खिचड़ी की अंतर्वस्तु से बहुत ही भिन्न है, धान का साम्य होने के बावजूद।
फिर एक होती है गौड़ वैष्णवों की खिचुरी, जिसमें कहीं कहीं गुड़ भी पड़ता है, किंतु वह सबको नहीं रुचता।
एक बार ऐसा हुआ कि ऋषिकेश में स्वामी विवेकानंद को ज्वर हो आया। उनके लिए खिचड़ी बनवाई गई, जो उन्हें भाई नहीं। खाते समय खिचड़ी में धागा दिखा तो उनका माथा ठनका। पूछने पर पता चला कि गुरुभाई राखाल दास ने खिचड़ी में एक डला मिश्री भी डाल दी थी। स्वामीजी ठहरे तीखी मिर्चों के शौक़ीन। गेरुआ चोगे में हरी चटनियां रखकर विलायत जाने वाले। यह मीठी खिचड़ी देखकर बहुत बिगड़े। राखाल दास को बुलाकर डांट पिलाई- धत्त्, खिचड़ी में भी भला कोई मीठा डालता है? तुझमें बूंदभर भी बुद्धि नहीं है रे!
ऐसे ही एक बार गुरुदेव रबींद्रनाथ ठाकुर भी गुजरातियों की मीठी दाल खाकर वितृष्णा से भर गए थे, फिर भानुसिंह की पत्रावली में उसका वर्णन किया था! ये और बात है कि उन्होंने अंतत: मीठी दाल से सामंजस्य बैठा ही लिया था, उसे खाकर उखड़े नहीं थे। शायद इसका एक कारण यह भी रहा होगा कि गुरुदेव के लिए वह दाल कुछ अबोध बालक बनाकर लाए थे और गुरुदेव उनके स्नेह की अवमानना कैसे कर सकते थे?
लेकिन सत्य तो यही है कि बंगाली लोग यूं तो मिठाइयों के बहुत प्रेमी होते हैं और कलकत्ते में गली-गली में मिठाइयों की दुकानें आपको मिल जाएंगी, लेकिन रसोई के बीच वे मीठा पसंद नहीं करते! फिर भोजन पश्चात भले ही खा लें चोंद्रपुली।
एक खिचड़ा भी होता है, जो महाअष्टमी के दिन पकाया जाता है। मुझे नहीं मालूम कहां-कहां यह पकता है, किंतु जिस परम्परा से मैं आया हूं, उसमें तो साल में एक दिन इसी खिचड़े को समर्पित होता था और वह महाअष्टमी का ही दिन होता था। खिचड़ा इसलिए कि इसमें धान के साथ ही जौ, गेहूं, चना दाल भी पड़ते हैं। कह लीजिए खिचड़ी अगर स्त्रैण है तो खिचड़े में पौरुष होता है। कम से कम, नामसंज्ञा तो यही सूचना ज्ञापित करती है।
एक मुहावरा है- ‘दाल भात में मूसलचंद’।
यहां पर मूसलचंद वह व्यक्ति है, जो किसी कार्य में बीच में नाहक़ दख़ल देता है।
लिहाज़ा, मुहावरों को अगर हम मूसलचंद मानें तो इस खिचड़ी-वृत्तांत में एक और क्षेपक जोड़ते हुए हम कह सकते हैं कि रसोई में हो न हो, लोकोक्तियों में खिचड़ी अवश्य अतीव लोकप्रिय है।
‘कुछ न कुछ खिचड़ी पक रही है’, इतना भर इंगित करके आप बहुत कुछ जतला सकते हैं।
बशर्ते वह ‘बीरबल की खिचड़ी’ न हो, जिसके पकने में सुबह की सांझ हो जाए।
और अगर यह खिचड़ी अगर माषदाल वाली हो तो ‘दाल में कुछ काला’ भी हो सकता है!
बेतरतीब हुलिये वाले मनुज की ‘खिचड़ी दाढ़ी’ वृत्तांतकारों की एक टेक रही है। पात्र परिचय में और कुछ ना सूझे तो यही एक ब्योरा कि उसकी खिचड़ी दाढ़ी थी।
सन् सतहत्तर में जब संपूर्ण क्रांति ने इंदिरा राज का अंत कर दिया था और जनता सरकार की प्रतिष्ठा हुई थी तो उस आंदोलन में निहित विरोधाभासों को लक्ष्य करते हुए कवि नागार्जुन ने कहा था- ‘खिचड़ी विप्लव देखा हमने!’
यानी, कहीं भी अगर कुछ मिला-जुला और रेलमपेल जैसा हो तो उसे खिचड़ी कह देने का एक रिवाज़ मुहावरों में रहा है। और अगर यह हेलमेल मन का हो तो इसे भी वे कुछ खिचड़ी पकना ही कहेंगे।
बहरहाल, लोक में खिचड़ी के पांच रूप रूढ़ हो चले हैं!
1) पथ्य : कि भाई यह तो रोगी का राजभोग है!
2) ग्लानि : कि दिन में गरिष्ठ भोजन हुआ था, तो अभी संध्यावेला हल्का आहार ही!
3) अनिश्चय : कि और कुछ सूझ नहीं रहा तो चलो यही सही!
4) प्रमाद : कि कौन बेले रोटियां, कौन सिंझाए तरकारी, तो खिचड़ी पका लो!
5) दैन्य : कि बंधु, हम दीन-दुःखियारों के लिए तो एक यही अन्नकूट है!
और ऐन इन्हीं कारणों से हम कह सकते हैं कि खिचड़ी भारत का राष्ट्रीय पकवान है, क्योंकि ग्लानि, अनिश्चय, प्रमाद और दैन्य, यह भारत-भावना के भी तो प्रतिनिधि स्वर हैं!
और लघुता में संतोष!
कि कढ़ाह में सींझे भात हैं, विविधवर्णी दालें उसमें लटपटा गई हैं, और हल्दी, सरसों, लवण की मिली-जुली गंध का भपका उठता है। उदर में क्षुधा का जठर है। ताप से भरी खिचड़ी का एक-एक कौर फूंक-फूंककर उठाया जाता है, तो ऐनक पर उसकी भाप जम जाती है। कंठ को ऊष्मा से सहलाते हुए खिचड़ी जब धीरे-धीरे उदर में पहुंचती है तो जैसे मन-प्राण से परितृप्ति और परितोष का आशीष उठता है!
उपनिषदों में यूं ही नहीं कहा गया है- अन्नमय प्राण!
अस्तु, खिचड़ी सचमुच ही भारत भूमि की राम-रसोई है!