पेड़े / अपनी रामरसोई / सुशोभित

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पेड़े
सुशोभित


पहले हमें लगता था कि दुनिया पेड़े की तरह चपटी है। यह तो बाद में पता चला कि दुनिया तो लड्‌डू की तरह गोल है!

किंतु इससे पेड़ों की कीर्ति पर कोई अंतर नहीं पड़ा। पेड़ों की इससे अधिक अपकीर्ति तो ‘प्रसादी’ के अनुप्रास ने की। ‘पेड़ा-प्रसादी’। इस शब्द-बंध से कुछ ऐसी ध्वनि निकलती है, मानो पेड़ा प्रसादी हो, मिष्ठान नहीं। कि मानो मंगलवार को हनुमानजी की आरती करने के पश्चात वितरित करने के निमित्त से ही पेड़ों की परिकल्पना की गई हो।

इस अनुप्रास ने पेड़ों के साथ वही किया है, जो नुक़्ती के साथ नुक्ते ने किया था। नुक़्ती नुक्तों की मिठाई जैसे ही मान ली गई गई, लोक की आकांक्षाओं से वो स्वत: दूर हो गई और बूंदी के लड्‌डुओं के नए और उद्धत रूप दुकानों में सज गए। अनेक तरह की कल्पनाएं हमारे सामूहिक अवचेतन को ऐसे ही छलती रहती हैं।

बहरहाल, पेड़ों का क़िस्सा-कोताह यह है कि एक दफ़े एक ‘बनारसी’ ने हमसे वायदा किया कि वो हमें बनारस के लाल पेड़े खिलवाएगा। वो वायदा उसने कभी पूरा नहीं किया, किंतु मन में कामना के एक नक्षत्र की तरह वह पेड़ा ऊगा और देर तक किसी लाल सितारे की तरह वहीं टिमटिमाता रहा।

फिर एक दिन अपने शहर में टहलते हुए हमें दिखाई दी ‘बनारसी’ मिठाइयों की दुकान! मन में कौतुक जगा। हम वहां पहुंचे। पूछा कि भाई यहां मालवे में यह बनारसी मिठाई कैसे? दुकान-मालिक मिठाई मोहन मिश्र ने बताया कि हम कनपुरिये हैं और यहां बनारसी कारीगरों को लेकर आए हैं। आपको यहां मिठाई का ठेठ बनारसी ज़ायक़ा ही मिलेगा। हमने कहा, भई वा!

वहां ‘लौंगलता’ नहीं थी, किंतु ‘लाल पेड़ा’ अवश्य पूरी धज के साथ मौजूद था।

हमने पावभर पेड़े तुलवाए और खाए। पेड़े जैसा ही पेड़ा था, कोई लाल-जवाहर उसमें नहीं लगे थे, किंतु मन की एक साध पूरी हुई! मन के किसी कोने में हमने लाल पेड़े के आगे नीली स्याही का निशान लगा दिया कि चलो यह भी खा लिया।

शुक्लपक्ष में चंद्रमा की उत्तरोत्तर कलाएं होती हैं : द्वितीया का चंद्रमा, सप्तमी का चंद्रमा, चतुर्दशी का चंद्रमा।

वैसे ही पेड़ों की भी उत्तरोत्तर कलाएं होती हैं : सफ़ेद पेड़ा, पीला पेड़ा, लाल पेड़ा!

सफ़ेद पेड़ा बहुत ही निर्दोष और निरापद होता है। पीले पेड़े में केसर की गंध और अरुणिमा होती है। लाल पेड़े में जैसे दाह का आलोक।

कहते हैं पेड़े में सेंक का बड़ा महत्व होता है। कि पेड़े की सेंकाई कैसे की गई है, इस पर ही निर्भर करता है कि उसके स्वाद की प्रत्यंचा जिह्वा पर कितनी खिंचेगी।

जैसे मथुराजी का पेड़ा।

अवध में ऐसी मिसाल दी जाती है कि ‘मथुरा का पेड़ा’, ‘आगरे की सौंठ’, ‘लखनऊ की जूती’, ‘बरेली का सुरमा’ और ‘मगही का पान’ - ये पांच पदार्थ इहलोक में जीवन व्यतीत करने की कठिनाइयों में हमारी सहायता करते हैं।

ऐसा हुआ कि एक बार हम दिल्ली की सैर पर गए। उज्जैन से चले तभी से मन में कौतूहल का मृग कुलांचे भरने लगा कि मथुरा स्टेशन आएगा तो पेड़े लेंगे। किंतु मथुरा स्टेशन अभी कहां? शाम सात बजे उज्जैन से चले, देर रात चार बजे मथुरा स्टेशन आया। किंतु हम जाग रहे थे। स्टेशन से ही पेड़े लिए गए और ब्रह्ममुहूर्त में जूठे मुंह उनका भोग लगाया गया। आशा है इसके लिए बांकेबिहारी हमें क्षमा कर देंगे।

यूं तो भारतवर्ष के हर शहर में मिठाई की दुकानों पर ‘मथुरा पेड़े’ मिलते हैं किंतु ऐन मथुरा के ही पेड़े खाना है, वह हठ था, सो उस भोर वह पूरा हुआ। लौटते समय इधर फिर आधी रात के बाद मथुरा स्टेशन आया। हम इस बार भी जाग रहे थे। इस बार तीन पाव पेड़े अपने साथ बंधवा लिए और उज्जैन ले गए। फिर वहां आगामी एक सप्ताह तक मनता रहा ‘अन्नकूट’ का उत्सव।


मथुरा शैली का शिल्प समादृत है।

मथुरा पेड़ों की तरह।

बनारस के घाटों का बड़ा महात्म्य है।

बनारसी पेड़ों की तरह।

ऐसे ही धारवाड़ का संगीत जगविख्यात है।

धारवाड़ पेड़ों की तरह।


‘पेड़ा’ इन तीनों में समान अंतर्धारा की तरह उपस्थित है।

बहुधा मैं सोचता हूं कि उत्तर का पेड़ा दक्षिण में कैसे चला गया? इसका उत्तर मुझे मिलता है कि ठीक वैसे ही, जैसे उत्तर का संगीत दक्षिण चला गया और दक्षिण का उत्तर में आ गया।

क्योंकि किराना घराना तो उत्तर प्रदेश में है, किंतु किराना घराने की सबसे बड़ी चौकी तो दक्खन में धारवाड़ में ही है।

किराना घराने के प्रथम पुरुष उस्ताद अब्दुल करीम ख़ां साहब की पेढ़ी मैसूर में थी। वे ‘कर्नाटकी’ और ‘हिंदुस्तानी’ संगीत के बीच अनजाने ही एक पुल बना रहे थे। ‘अभोगी’ जैसे कर्नाटकी राग को वे उत्तर में ले आए थे। क्या ही अचरज कि कालांतर में किराना घराने के बहुतेरे गवैये धारवाड़ में ही जन्मे : सवाई गंधर्व, बासवराव राजगुरु, गंगूबाई हंगल, भीमसेन जोशी। यानी धारवाड़ किराने से भी बड़ा किराना घराना बन गया!

ज्यूं अवध की ख़याल गायकी का बूटा दूर दक्खन में रोप दिया गया हो, अवध का पेड़ा भी दक्खन में वैसे ही पहुंचा होगा और धारवाड़ का पेड़ा कहलाकर उसने अपनी एक निजी आभा पाई होगी, ऐसा मैं बहुधा सोचता हूं।

जो भी हो, किंतु पेड़ा निश्चय ही मिष्ठान के मनोहारी संसार का सबसे विनयी नागरिक है।

खोये से बनाई जा सकने वाली वो पहली इकाई है। हर्ष के अवसर पर बांटी जाने वाली वो पहली मिठाई है। हमारे बचपन के दिन पंद्रह अगस्त को स्कूलों में बांटे जाने वाले पेड़ों और होली के दिन ठंडाई के साथ खिलाए जाने वाले पेड़ों से भरे हुए हैं। जैसे कि बचपन के वो दिन कोई अंतरिक्ष हों और वे सभी लाल, पीले, सफ़ेद पेड़े नक्षत्रों की तरह उनमें व्याप गए हों।

मिठाइयों का संसार चाहे जितनी दूर दिशाओं में छिटक जाए, उसका प्रारम्भ हमेशा ही लघु, सुधीर, संयत और विनत पेड़ों से ही होगा, ऐसा मेरा विनम्र अभिमत है।

यों तो मिठाईलाल की बही का कोई अंत नहीं है, किंतु ज़माना ही ऐसा है कि ज़्यादा मीठी बातें भी हमें मधुमेह से ग्रस्त कर सकती हैं, इसलिए इसी बिंदु पर इस बही को समाप्त करता हूं। मीठे की मरीचिका और मिष्ठान की माया अनंत तक अनवरत रहे।

इति नमस्कारान्ते!