रसगुल्ले / अपनी रामरसोई / सुशोभित

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रसगुल्ले
सुशोभित


वास्तव में बांग्ला मिष्ठान के प्रति मेरे मन में ललक के अनेक प्रतिरूप हैं।

मिसाल के तौर पर, ‘पथेर पांचाली’ का यह दृश्य याद कीजिए- अपु और दुग्गा घर में बनी कोई सस्ती मिठाई मन मारकर खा रहे हैं कि तभी घंटियों की आवाज़ सुनाई देती है। चिनीबास मिठाईवाला आया है। दोनों बच्चे दौड़ पड़ते हैं और देहरी पर खड़े होकर ललक से टुकुर-टुकुर उसे ताकते रहते हैं। उनके पास मिठाई ख़रीदने के पैसे नहीं हैं। चिनीबास मिठाइयों के नाम ले-लेकर बच्चों को लुभाने का प्रयास करता है : ‘की खोकी, खाबै ना? भालो ‘शोरभाजा’, ‘मुंगेरनाडू’, ‘चोंद्रपुली’, ‘खीरेर चाप’, ‘कांचागुल्ला’?

वह दृश्य देखकर मैं अचरज में पड़ गया था।

मैंने इनमें से किसी भी मिठाई के नाम नहीं सुने थे।

मैं तो केवल ‘रोशोगुल्ला’, ‘सोन्देश’ और ‘मिष्टी दोई’ के ही बारे में जानता था।

यह तो मुझे बाद में मालूम हुआ कि जिसको हम यहां ‘खीर’ बोलते हैं, उसी को बंगाली लोग ‘पायेश’ कहते हैं। जिसको हम ‘गुलाब जामुन’ बोलते हैं, उसको बंगाली ‘पन्तुआ’ कहते हैं। जिसको हम लोग यहां ‘बूंदी का लड्डू’ बोलते हैं, उसको बंगाली ‘दरबेश’ बोलते हैं। ‘मूंग का लड्डू’ ही वहां पर ‘मुंगेरनाडू’ कहलाता है। और ‘चोंद्रपुली’ हमारे यहां की गुझिया जैसा चंद्राकार व्यंजन होता है। खोये से बनाई जाने वाली गुझिया का ही एक प्रकार बनारस से लेकर बंगाल तक प्रचलित है, जिसको वो लोग ‘लवंगलता’ कहते हैं। और हमारे यहां जो ‘जलेबियां’ खमीर वाले मैदे से बनती है, उसको वे लोग वहां छेने से बनाते हैं और ‘छानार जीलपी’ कहते हैं।

अभी कुछ समय पूर्व बंगभूम और उत्कल प्रदेश के बीच जो झगड़ा हुआ, वो भी तो इसी बात का था कि जिसको बंगाली ‘रोशोगुल्ला’ बोलते हैं, उसको उत्कलप्रदेश के वासी ‘खीरमोहन’ कहते हैं और उनका दावा है कि वे ऐसा कई सालों से कहते आ रहे हैं, बंगालियों से बहुत-बहुत पहले।

और मज़े की बात है कि जिस छेने से रसगुल्ला बनता है, वह ना तो बंगालियों की ईजाद है और ना ही ओडिशियों की।

छेना बनाने की विद्या तो चंदननगर, गोविंदोपुर, बर्दवान और कलकत्ते में डच और पुर्तगाली कारीगर अपने साथ लेकर आए थे, जिसको बाद में हुगली के हलवाइयों ने लपक लिया, और भारतीयों की सुपरिचित अनुसंधान-वृत्ति के चलते उसके स्वाद के साथ नानारूप प्रयोग करने लगे।

इतिहासकारों का मत है कि अठारहवीं सदी से पहले तक भारत में कहीं भी छेना से निर्मित किसी व्यंजन का उल्लेख नहीं मिलता है। जिस ‘ज्योग्रफ़िकल इंडिकेशन कमेटी’ ने रसगुल्ले के आविष्कार का श्रेय ओडिशा के बजाय बंगाल को दिया है, वो अगर छेने की उत्पत्ति के ‘जुगराफ़िए’ की पड़ताल करने में अगर मसरूफ़ हो जाए, तो उसे दूर-दिगन्त में कहां तक यात्रा करनी पड़ेगी?

चूंकि छेना कभी भी परंपरागत भारतीय नैवेद्य नहीं था, इसलिए हिंदू देवताओं को प्रसादी स्वरूप अर्पित किए जाने वाले छप्पन भोग में छेने से निर्मित मिठाइयों का उपयोग नहीं किया जाता था। हिंदू लोग दूध को गोरस और देव-द्रव्य मानते हैं और दूध फाड़कर बनाई जाने वाली मिठाई को नैवेद्य के लिए अनुपयुक्त मानते हैं। जगन्नाथ पुरी मंदिर में आलू का उपयोग इसलिए नहीं किया जाता है, क्योंकि वह एक विदेशी खाद्य पदार्थ माना जाता है, जबकि छेने से निर्मित ‘खीरमोहन’ को ‘पहला रसगुल्ला’ कहकर लोकश्रुति के अनुसार कम से कम तीन सौ सालों से तो वितरित किया ही जा रहा है। यह भारतभूमि में निहित अनेकानेक विरोधाभासों में से एक है।

बहरहाल, रसगुल्लों को ‘नरमपाक’ मिठाई कहा जाता है। बहुधा मुझको यह भी लगता है कि रसगुल्ला चंद्रमा की संतति है। कि वह धरती पर चंद्रमा का अंश है। वैसा ही शीतल, गौर, धवल, कोमल और निष्कलुष। यह मिष्ठान इतना मुलायम और निष्कलंक है कि यह बरबस ही हमारे मन में उदात्त भाव जगा सकता है। विश्वास कीजिए, मेरा घोर मत है कि मिठाइयों में दैवीय तत्व होता है।

मद्रास में बैठी ‘ज्योग्रफ़िकल इंडिकेशन कमेटी’ ने बंगाल के पक्ष में फ़ैसला इसीलिए सुनाया, क्योंकि बंगालियों का रसगुल्ला श्वेत-धवल होता है। उन्होंने उत्कलप्रदेश वालों से कहा, ‘जो सफ़ेद ही नहीं, वो काहे का रसगुल्ला? आपका दावा ख़ारिज़ किया जाता है।’

यह सुनकर वैकंुठ में विराजे नोबीन चंद्र दास मारे ख़ुशी के कितने लटपटाए होंगे? सन् 1868 में कलकत्ते के बाज़ारबाग़ में इन्हीं नोबीन बाबू ने रसगुल्लों की ईजाद की थी और आज उनकी ‘दासबाड़ी’ को ‘रसगुल्ला भवन’ कहकर ही पुकारा जाता है।

मेरा बचपन शरच्चंद्र के उपन्यास पढ़कर बीता, जिनमें जब-तब ‘सोन्देश’ मिठाई का उल्लेख आता। मन में कौतुक जगता कि ये ‘सोन्देश’ क्या बला है। आज से बीस-पच्चीस साल पहले तक इधर मालवा में बंगाली मिठाइयों का इतना चलन नहीं था। तब शादी-ब्याह में बूंदी और खोपरापाक ही परोसे जाते थे। मिठाई की दुकानों पर बर्फ़ी, लड्डू और गुलाब-जामुन इफ़रात में मिलते थे। और घर में हलवा और खीर ही मिष्ठान के रूप में पकाए जाते। मुझे याद है, वर्ष 1991 में जब मेरे शहर में एक सेठ ने नया सिनेमाघर ख़रीदा और इसके जश्न में दावत दी तो अपनी रईसी की धाक जमाने के लिए दावत में ‘रसमलाई’ परोसी गई। हममें से कइयों ने तब जीवन में पहली बार ‘रसमलाई’ चखी थी। अब तो ‘चमचम’ और ‘चंद्रमुखी’ से मिठाई बाजार पट गए हैं।

साल 2008 में मेरा एक कवि-मित्र कलकत्ता गया तो कवि चंद्रकांत देवताले ने उससे ‘खजूर का गुड़’ मंगवाया और मैंने ‘सोन्देश’ मंगवाया। हेमंत बाबू दोनों वस्तुएं लेकर लौटे। चंद्रकांत देवताले ने कटाक्ष किया : ‘मैं तो ग़रीब किसान का बेटा हूं, गुड़ खाकर ही संतुष्ट हो जाऊंगा। ये साहब राजाबाबू हैं, वे ‘सोन्देश’ से कम पर क्या मानेंगे!’ हम सबों ने ठहाका लगाया। निश्छल अट्टाहास से भरे वे दिन जाने किन पंचांगों में खप रहे हैं, दरख़्तों की गिलहरियों को चौंका देने वाले वे ठहाके!

बहरहाल -

प्रश्न ये नहीं है कि धरती गोल क्यों है। प्रश्न ये है कि रसगुल्लों में वैसी मनोरम गोलाइयां कहां से आती हैं।

प्रश्न ये नहीं है कि पृथिवी पर कितना जल है। प्रश्न ये है कि रसगुल्लों में इतना रस कहां से भर जाता है।

और प्रश्न ये नहीं है कि मई में ताप कहां से आता है, प्रश्न यह है कि रसगुल्ले की मिठास इतनी मार्मिक क्यों होती है।

रसगुल्लों की उत्पत्ति पर भले ही लड़ते रहें बंगभूमि और उत्कलप्रदेश के जनवृन्द, हम तो इस ‘लघुचंद्र’ के अपूर्व वैभव के सामने विनत-चकित, मुदित-प्रसन्न बने रहेंगे, उसी तरह ललक और कौतुक से भरे हुए, जैसे कि निश्चिंदीपुर गांव के अपु और दुग्गा।