इमली का बूटा / अपनी रामरसोई / सुशोभित
सुशोभित
बचपन के घर के भीतर इमली का एक पेड़ था।
इमली के पेड़ की छोटी-छोटी पत्तियां हवा में चक्कर काटते गिरती रहती थीं, धूप की पारदर्शी मीनार के भीतर!
इमली के फूल भी होते हैं। लाल शिराओं वाले पीले फूल।
यह तफ़सील उन्हें मालूम होती है, जिन्होंने इमली के किसी पेड़ को क़रीब से जाना हो और आंख दबाकर चबाए हों इमली के खट्टे फूल। क्योंकि मंडियों तक तो इमलियां ही पहुंचती हैं, बोरियों में लदीं। फूल इमली के पेड़ पर टंके रह जाते हैं।
बचपन के आंगन में कच्ची इमलियां गिर जाती थीं। कत्थई छिलके और हरी रंगत वाली इमलियां, जो दांत खट्टे कर देतीं। इमली का छिलका खाना तब काठ को कुतरने का सुख देता था। वो कहते हैं ना- काठ की लुटिया में जल रखो तो जल में काठ की गंध चली आती है, वैसी ही अनूठी गंध, और स्वाद।
तब लाल इमली मिल जाना किसी उत्सव से कम नहीं रहता था। पकी नहीं, कच्ची लाल इमलियां। जाने कौन-सा कौतुक होता था कच्ची लाल इमलियों में, लाल अंत:स्तल वाले अमरूद की तरह। स्वाद में वे दूसरी इमलियों जैसी ही होती थीं, फिर भी जिसे मिलतीं, उसे लगता जैसे उसके हाथ कोई लाल-जवाहर लग गए हों।
लाल इमली खाने वाले की अंगुलियों पर इमली का लाल रस लग जाता। नख के भीतर सूखकर जम जाता। रात को सोते समय तब उसके नाख़ूनों पर इमली का एक बूटा उग आता, और उसकी नींद में इमली के पीले फूल रात भर गिरते रहते।
क़िस्से-कहानियों के प्रेत इमली के पेड़ पर हमेशा डेरा जमाए रहते थे, किंतु सच तो यही है कि वे कभी नज़र नहीं आए।
बचपन के ही दिनों का वो लोकप्रिय गीत था- "इमली का बूटा, बेरी का पेड़। इमली खट्टी, मीठे बेर।"
अलबत्ता, बेर इतने मीठे तो कभी नहीं थे, अधिक से अधिक खटमिट्ठे ही थे। किंतु इतना अवश्य था कि सरकारी स्कूल के बाहर चाहे जो ठेले लगे हों- घंटी बजकर होने वाली छुट्टी की प्रतीक्षा करते हुए, उनमें भुने चने एक बार न हों, अंगुलियों में पहनने वाले फ़िंगर्स तक न हों, किंतु ऐसा तो हो ही नहीं सकता था कि इमली और बेर के बिना उनकी बात बन पाती।
कह लीजिए कि इमली और बेर, ये बचपन के दिनों के फल हैं, कि ये लड़कपन का स्वाद हैं। परिष्कृत नहीं हैं, किंतु जैसा अनगढ़ बचपन होता है, वैसा ही रस उनके भीतर भी बसता है।
जिन्होंने बचपन के दिन इमली और अमचूर खाकर सड़कों पर टायर दौड़ाते हुए बिताए हों, वे अनेक बरसों बाद फिर हवाई जहाज़ों में निहायत ऐहतराम से इमली की कैंडीज़ पेश किए जाने पर क्या महसूस करते होंगे?
क्या वे मन ही मन मुस्करा नहीं देते होंगे?
क्या उनके भीतर का बालक अतीत की स्मृति से भींज ना उठता होगा?
मन में कोई इच्छा नहीं थी, चाय की तलब तक नहीं, फिर भी उस रात अंधकार के वृत्त के बीच बिजली के लट्टुओं के आलोक में जब बस रुकी तो उनींदी आंखें लिए उतरा और इमली की गोलियां देखकर रुक गया।
चमचमाती पन्नियों में इठलाती हुईं इमली की गोलियां। जिनका नाम इमली की गोलियां तक नहीं था। अब उन्हें साधुभाषा में कहा जाता था- टैमरिंड कैंडीज़।
टैमरिंड। अंग्रेज़ी का यह लफ़्ज़ अरबी के तमार-उल-हिंद से बना है। अरबी में इमली को यही कहते हैं।
मारुति चितमपल्ली ने मुझको बतलाया था कि इमली के तीन नाम और हैं- तिंतिडी, चिंच और अम्लिका। मराठी में इसे चिंच कहते हैं। विदर्भ में इमली के अनगिन बिरछ हैं। महाराष्ट्र में इमली कल्पवृक्ष कहलाता है।
मारुति यों तो पक्षीशास्त्री हैं, किंतु दरख़्तों से कम प्यार नहीं करते। उन्होंने वास्तव में इमली पर एक पूरा लेख ही लिख मारा है। लेख में एक बहुत सुंदर दृश्य उन्होंने प्रस्तुत किया। उन्होंने बतलाया कि इमली के पेड़ में टहनियों और पत्तियों का संजाल इतना सघन होता है कि इस पेड़ पर चढ़ना मनुज तो मनुज, सांप जैसे प्राणी के लिए भी कठिन होता है। इससे इमली पर बसेरा करने बहुत पक्षी आते हैं, क्योंकि यह पेड़ उनके लिए एक दुर्ग की तरह है।
महाराष्ट्र में सारंगागार पक्षियों के लिए इमली के पेड़ स्वर्ग से कम नहीं। बगुले या ढोकरी जैसे पक्षी भी इमली के सिवा किसी और पेड़ पर बसेरा नहीं करते। ये और बात है कि इसके बावजूद इन पक्षियों की प्राण-तुला सदैव दोलती ही रहती है।
इस पर मारुति ने चुटकी लेकर तेरहवीं सदी के जैन मुनि हंसदेव द्वारा लिखे ग्रंथ "मृगपक्षीशास्त्र" की वह उक्ति सुनाई, जिसमें बतलाया है कि वृक्ष के शीर्ष पर बैठा पक्षीदल भी सिंह की गर्जना से उतना ही भयाक्रांत हो जाता है, जैसे थलचर जीव! अब शेर भला कैसे पेड़ चढ़ सकेगा?
उस रात, बस स्टॉप पर वो टैमरिंड कैंडीज़ देखीं तो यह सब याद हो आया, और सबसे ज़्यादा याद आया बचपन के घर में उगा इमली का वो पेड़।
क्या अब भी वह पेड़ अपनी जगह पर उगा होगा?
इमली का पेड़ बहुत उम्रदराज़ होता है। अगर काट नहीं दिया गया हो तो निश्चय ही, वो आज भी वहीं होगा।
किंतु मैं तो उस घर और उस शहर से कितना दूर चला आया। क्या वो पेड़ अब भी उन्हीं दिनों के भीतर ठहरा होगा, दिन जो अब मर गए।
टैमरिंड कैंडीज़ का वो बक्सा उस रात मुझे इतनी दूर ले गया था, जितनी दूर वो बस बीस साल तक दौड़ने के बावजूद नहीं पहुंच सकती थी।
उनींदी आंखें लिए उतरा और मोल ले लीं इमली की गोलियां, शकर के सफ़ेद चूरे में लिपटीं, जैसे हिम, जैसे चांदनी।
और तब मैंने सोचा कि अगर ईश्वर से कोई प्रार्थना की जा सकती है, तो वो यही होगी कि- देर रात, दुःस्वप्नों से उठकर इमली की गोलियां मोल ले सकूं, इतनी भर मोह-माया बची रहे मेरे पास- नींद, थकान और जाड़ों के क्लेश के बावजूद!
हे ईश्वर, बस इतना ही!