ढालू के फल / अपनी रामरसोई / सुशोभित
सुशोभित
बिज्जी की कहानी "दुविधा" में बड़ा ही सजीव दृश्य आया है।
दूल्हा दुलहन को ब्याहकर ला रहा है। सज्जित बैलगाड़ी रास्ते में रुकी है। जेठ की लू से जंगल चीत्कार कर रहा है। दुलहन परदा हटाकर देखती है तो नज़र टिक जाती है। हरे-भरे कैरों पर सुर्ख़ ढालू दमक रहे थे। सुहाने और मोहक!
दुलहन दूल्हे की बांह पकड़कर बोलती है, ये ढालू कितने सुंदर हैं! ज़रा नीचे जाकर दो-तीन अंजुरी ला दो। दूल्हा हिसाबी-किताबी है। बही-खाते से नज़र नहीं उठती है। बोलता है, ये ढालू तो ठेठ गंवारों की पसंद है। तुम्हें इसकी ख़्वाहिश कैसे हुई? खाने की इच्छा हो तो गांठ खोलकर छुहारे दूं, नारियल दूं? मखाने खाओ, बताशे खाओ।
दुल्हन कहती है, मुझको तो ढालू ही खाना है और स्वयं गाड़ी से कूद पड़ती है। बिज्जी का बखान है कि उसके बाद दुलहन तितली की तरह कैर-कैर पर उड़ती रहती है।
क्या ही सजीला चित्र खींचा है कि मन जुड़ा गया। पलभर में बिज्जी ने अपनी कथा की स्त्री और पुरुष के चित्त का वर्णन कर दिया। स्त्री का मन यों भी खटमिट्ठी चीज़ों में रमता है। बिज्जी की कथा का पुरुष रूखा-सूखा है। सोचता होगा चोरी-छुपे खा लें तब भी ठीक, किंतु यों दिनदहाड़े कौन गंवारों की तरह जंगली फल खाता है? और वो भी नई-नवेली दुलहन?
यही तो बात है ना कि दुलहिन अभी नई है। अभी उसका लड़कपन मरा नहीं है। इसमें ज़रा समय लगेगा। पर अभी तो बैलगाड़ी से कूदकर जंगली फल चुनने में उसको लज्जा नहीं है। परिणीता का कंगन भी पृष्ठभूमि का सितार ही है।
संसार में प्रचलित और परिष्कृत क़िस्म के बहुतेरे स्वाद होते हैं। वही सब, दूल्हे के शब्दों में, छुहारे और नारियल, मखाने और बताशे। फिर आते हैं अप्रचलित और जंगली क़िस्म के स्वाद। जैसे बेरियां हो गईं। इमली की चटनी हो गई। अमियां हो गईं। नीम्बूड़ा हो गया। अमरूद की फांक हो गई। कैर का अचार हो गया। आम का मुरब्बा हो गया। ढालू के फल हो गए।
ग़रज़ ये कि हर वो चीज़, जो गला पकड़ती हो, जिसे उचड्डपन की निशानी समझा जाता हो, जिसमें कच्चापन हो, देहातीपन हो, जिसका स्वाद कसैला, खट्टा, खारा हो, छप्पन पकवान छोड़कर उसमें रस लेना- ये एक स्त्रियोचित अभिलाषा है। और पुरुष में हो, तो वह भी उस एक पल में रसप्रिया होता है।
मुझे अपने बचपन के दिनों की वो लड़कियां याद आती हैं, जो स्कूल से लौटकर बेरियां खाती फिरती थीं और ऊंचे सुर में बतियाते उसकी गुठलियां थूकती थीं- यूनिफ़ॉर्म बदले बिना। जो नंगे पांव ही छत पर चली आती थीं और दुपट्टा लेना भूल जाती थीं। जो दोने में कबीट की चटनी लेकर चटखारा लेती थीं। पकी इमली को नमक-मिर्चों के साथ लटपटाकर चखती थीं। जीभ को तालू से लगाकर कट्ट की ध्वनि निकालती थीं। एक आंख दबाकर मुस्कराती थीं। चाट-पकौड़ी पर मधुमक्खी की तरह मंडलाती थीं। जो शरारत और अठखेलियों की सजीव प्रतिमा थीं।
फिर वो ब्याह करके घूंघट में चली जातीं। नंगे पांव पर जूतियां जगर-मगर होतीं। जो मन चंचल था, वह आंचल ओढ़ लेता। बदन चुराने की अदा चली आती। अभी जो कल तक शोख़ थी, अब अचानक सयानी हो जातीं।
तब मुझको बिज्जी की उस नायिका को देखकर सुख हुआ, जो ढालुओं पर रीझ गई थी। हठ कर बैठी थी। नहीं माने जाने पर डोले से उतरकर आंचल में बेरियां बीन लाई थी। इस चित्र का सजल रंग मुझको बहुत सुहाया।
मेहंदी लाल होती है। बेरियां भी सुर्ख़ लाल। एक रंग बंधन का होता है, एक रंग अभिलाषा का। इमली के बीज थूककर खिलखिलाने वाला मन इतनी आसानी से बूढ़ा नहीं हो सकता, किंतु संसार में कठिन तो कुछ भी नहीं। बिज्जी की कहानी का दृश्य कितना तो आकस्मिक और अकारण था, किंतु मुझको कहां से कहां लिए जाता है!