रबड़ी रानी / अपनी रामरसोई / सुशोभित

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रबड़ी रानी
सुशोभित


रबड़ी के बारे में क्या कहूं? रबड़ी तो मिठाइयों की रानी है।

एक बार ऐसा हुआ कि महेश्वर नगरी में अपना चिमटा गड़ा। क़िला-सड़क चौक बाज़ार में मिठाइयों की एक पुरानी दुकान देखते ही अपने राम बोले, ‘यहां मिलेगी असली चीज़।’ वैसा ही हुआ भी!

तो साहब, क्या ही उम्दा रबड़ी उनके यहां से बरामद हुई। दोनाभर के खाने भर से आत्मा तृप्त हो गई। चेतना में आलोक हो गया। मन के क्षितिज पर अदम्य संतोष का ध्रुवतारा उगा और वहीं का वहीं ठहर गया। वो क्या है कि उम्दा रबड़ी बनाना अब एक जाता हुआ हुनर हो गया है।

क्योंकि आज के हलवाइयों के हाथ में ही वो कस नहीं रहा। मैंने महलों जैसी मिठाई की दुकानें देखी हैं किंतु रबड़ी जैसे कि राख! मतलब, अगर सुरुचिपूर्ण रबड़ी ही नहीं बना सकते तो काहे की मिठाई दुकान! भाई, मंगल करो ना अपनी पेढ़ी!

अब तो इधर मालवे में भी ऐसी दुकानें कम ही रह गई हैं, जहां रबड़ी जैसी रबड़ी बनती है। एक उज्जैन के पानदरीबे में है, एक इंदौर में रणजीत हनुमान के सामने, और फिर, महेश्वर के काकाजी का वह रामपदारथ! अहा, गोरस का वैसा परिष्कार!

इधर एक दावत में हमने सीताफल की रबड़ी देखी। मन में कौतूहल जगा कि भई, अब ये क्या नई क़यामत है। लेकिन रबड़ी चखने के बाद दुविधा मिट गई। साीताफल की वो रबड़ी वास्तव में एक बहुत ही सुंदर सृष्टि थी।

इसके दो कारण हैं। अव्वल तो ये कि रबड़ी ठंडी सिफ़त की मिठाई है, और शरीफ़ा यानी सीताफल भी ठंडी तासीर का ही फल है। लिहाज़ा, क़ुदरतन ही दोनों की आपस में ख़ूब बनती है। दूसरे, शरीफ़े का गूदा भी अपनी रंगत और मुलायमियत में मलाइयों के लच्छे से कमतर नहीं होता। उसकी मिठास भी नर्म मिज़ाज वाली मिठास है। इसलिए सीताफल की रबड़ी एक उम्दा प्रयोग बन पड़ता है। ये तो बात में मालूम हुआ कि इधर सीताफल की आइसक्रीम, बासुंदी, क्रीम, मुरब्बों आिद का भी चलन बढ़ गया है।

जलेबियों की ही तरह रबड़ी भी निहायत हिंदुस्तानी पकवान है। यानी इस जैसे व्यंजन की कल्पना पश्चिम में भूले से भी नहीं की जा सकती थी। हमारी पौराणिक कल्पनाओं में जिन छप्पन पकवानों का उल्लेख आता है, उनमें रबड़ी हमेशा से अग्रपंक्ति में सम्मिलित रही है। यह बहुत गरिष्ठ मिठाई है। बिना दूध की चाय पीने वालों और बिना क्रीम की पुडिंग खाने वालों के लिए भले ही नकार की वर्तनी में रचा छंद हो, भारतीय रसना के लिए तो रबड़ी सदियों से अनिवार्य पदार्थ है।

रबड़ी बनाने की विधि में घनिष्ठता का रूपक अनुस्यूत है। कहते हैं, चाह गाढ़ी हो तो प्रीत बन जाती है और दूध गाढ़ा हो तो खीर बन जाती है। यहां पर हम खीर के बजाय रबड़ी शब्द का इस्तेमाल कर सकते हैं, वैसे भी वे दोनों एक ही सिफ़त के पदार्थ हैं। गाढ़ा, गझिन, घनिष्ठ और गरिष्ठ, ये रबड़ी-तत्व के चार याम हैं। भारी तले और चौड़े मुंह वाले कढ़ाह में रबड़ी बनाई जाती है। ऐसे ही कढ़ाहों में ओटाया हुआ गर्म केसरिया दूध उत्तर-भारत के क़स्बों में सदियों से गुणगाहकों को सांझ-सकारे पिलाया जाता रहा है। भारी तल्ला इसलिए कि दूध जलकर चिपके नहीं और चौड़ा मुंह इसलिए कि उसके हाशिए पर दूध की मलाई का संग्रहण किया जा सके। मद्धम आंच पर देर तलक पकने वाला मिष्ठान है यह। संगीत की भाषा में इसे चैनदारी कहेंगे। मोहब्बत की ज़बान में यह तसल्ली कहलाएगी। मिठाइयों के लोक में इसका नाम रबड़ी है।