पकवानों के नामबदल / अपनी रामरसोई / सुशोभित
सुशोभित
पकवान तो पकवान ही होते हैं, उनके नाम भी कम लज़ीज़ नहीं होते। एक देश-मुल्क की लोक-परम्परा बहुत सोचकर किसी पकवान का नाम रखती है। उसमें से देशी बोली-बानी की महक आती है। तब क्या हो, अगर विदेशी भाषा के असर से इनका नाम बदल दिया जाए? अनर्थ से लेकर सत्यानाश तक, सब कुछ इस विधि से सम्भव है।
बाजरे के खाकरे से भला किसका पेट भरता है? किंतु कुछ तो बात होगी, जो जब-तब भूख लगने पर मित्रगण उन्हें कुतरने लगते हैं। मन ही मन में कोई संतोष आता होगा कि कुछ खाया है। ऊपर से एक गिलास पानी पी लिया जाए तो तात्कालिक रूप से उदर-पोषण हो गया है, वैसा अनुभव होता है। वैसा ही प्रसंग था। सहसा भूख लगी। तो बाजरे के वे खाकरे खाने लगा। उन्हें कुतरते हुए पैकेजिंग देखने लगा। उस पर जो लिखा था, उसने ध्यान खींचा- ‘रोस्टेड मिलेट क्रिस्प्स’!
पढ़कर सोचने लगा, अगर कोई मुझसे कहेगा कि मैं ‘रोस्टेड मिलेट क्रिस्प्स’ खा रहा हूं तो क्या मैं कभी सात जन्म में कल्पना कर सकूंगा कि वह वास्तव में बाजरे के खाकरे खा रहा है? केवल नामबदल से कितना चमत्कार हो सकता है, तब मैं इस बारे में सोचने लगा। अन्न के उपादानों का चिंतन उग आया। गेहूं, जौ, जई, जुवार। अंग्रेज़ी में ये होल व्हीट, बार्ले, ओट्स, सोर्घम कहलाएंगे। रागी फ़िंगर मिलेट हो जाएगा। इसकी तुलना में मकई यानी कॉर्न और चावल यानी राइस तो ख़ैर फिर भी बहुज्ञात और बहुश्रुत हैं, संतोष की बात है।
अंग्रेज़ी नाम से अपनी देसी चीज़ में कैसा बांकपन आ जाता है, फिर यह सोचा। हापुस भी अल्फ़ांसो कहलाकर इतराता है। उसका एक कारण यह भी है कि विलायत भेजो तो रास्ते भर ख़राब न हो, वैसा एक हापुस ही है। दो दिन में गल जाने वाले लंगड़े को विलायत भेजकर देखो तो जानें।
बहरहाल, मैं अपनी खाकरा-कथा पर लौटूं। तो उसको कुतरते हुए क्या देखता हूं, उस पर विवरणों में फ़ेनुग्रीक लीव्ज़ भी लिखा था। खाकरे, थेपले और मठड़ियों में इधर कसूरी मेथी पड़ती ही है। किंतु कितने लोग जानते होंगे कि ये कसूरी मेथी आंग्लभाषा में फ़ेनुग्रीक लीव्ज़ कहलाती है। मनोहारी मेथी के लिए यह तो बड़ा ही श्रीहीन शीर्षक कहलाएगा।
अंग्रेज़ी में खाकरे को वो अमूमन ‘रोस्टेड ब्रेड्स’ कहते हैं, यह मुझे याद आया। गनीमत है कि विवरण लिखने वाले इस भाई ने ‘क्रिस्प्स’ शब्द का इस्तेमाल किया। विवरण में प्रिसीज़न ले आया। जाने कौन होगा, किंतु जो भी होगा, अंग्रेज़ी में चुस्त वाक्य लिखने में सिद्ध होगा। सुरुचि है साहब! कदाचित् इससे ‘रोस्टेड मिलेट क्रिस्प्स’ को दत्तचित्त होकर कुतरने का संतोष थोड़ा बढ़ा। मध्यरात्रि की सूक्ष्मश्रवा क्षुधा से विकल व्यक्ति यों भी और क्या चाहे जो उसको चबैना मिल जाए। चबैना को वो लोग अंग्रेज़ी में ‘स्नैक्स’ कहेंगे, ये तब जाने क्यों तुरंत ही याद आया।
कहवा पीते समय मेरा मनोबल सिनैमॅन, कार्डामॅम और क्लोव की निशानदेही ने बढ़ाया था। हिंदी में इन त्रिदेव को कहेंगे- दालचीनी, इलायची और लवंग। इससे भला कौन इनकार करेगा कि ज़हीन ब्योरे की एक बू-बास होती है। इसका उल्टा भी सच है। लचर ब्योरा बेज़ायक़ा भी करता है।
सबसे ज़्यादा मेरा मनोरंजन तो पूरियों के तर्जुमे ने किया था। मैं जानकर चौंका कि वो लोग इसको ‘डीप फ्राइड होल व्हीट ब्रेड्स’ कहते हैं। अंग्रेज़ी भाषा इससे असहाय मुझे पहले कभी ना लगी थी। ऐसा लगा, जैसे अंग्रेज़ी किसी फंदे में फंसी छटपटा रही है, किंतु पूरियों की शान में एक अदद सटीक शब्द वह खोज नहीं पा रही। विश्वभाषा की वैसी बुरी गत देखना कठिन था।
रसगुल्ले को जब उन्होंने ‘कॉटेज चीज़ डम्पलिंग्स इन शुगर सीरप’ कहा तब तो मेरा दिल सिमटकर दिले-आशिक़ जैसा नुक़्तची हो गया। खीर का तब ये क्या सत्यानाश करेंगे? ‘कंडेस्ड मिल्क कुक्ड विद राइस, सैफ्रन एंड कैश्यूनट्स?’ गुलाब जामुन? ‘डीप फ्राइड मिल्क सॉलिड बॉल्स?’ केक कहे बिना पेड़े का बखान नहीं कर सकेंगे, निश्चय! मन ही मन मैंने कहा और घबड़ा गया। किंतु जलेबी का क्या कीजियेगा? और घेवर? और, और, हलुआ? अब रहने दीजिए। और कल्पना करना अपने और औरों पर अत्याचार करना होगा।
पर नामबदल करना ही क्यों? नामबदल तो कहते हैं कि बड़ी ग़ैरउदारवादी प्रवृत्ति है। पुराना नाम ही चलता रहे, इससे उदारवाद का इक़बाल बुलंद होता है। शहरों, क़स्बों, रेलवे स्टेशनों, सैनिक छावनियों के नाम बदल दिए, एक बार समझ आता है। किंतु रसगुल्लों और पूरियों पर क्यूं क़हर बरपाते हैं? जलेबी को जलेबी ही अगर रहने दें तो कोई हानि है? खाकरा भी एकबारगी क्रिस्प्स नहीं कहलाएगा तो कुछ कम खस्ता नहीं हो जाएगा, अलबत्ता ये क्रिस्प्स लफ़्ज़ ही इतना खस्ता मालूम होता है, कि अभी हाथ में लेते ही चूरा हो जाएगा।
कितना ही उम्दा तर्जुमा हो, उससे यों भी बेवक़्त की भूख नहीं मरती। फिर परदेस के तमाम पकवानों को हम लोग मौलिक नाम से ही पुकारते हैं। इसे सिद्धांत वाली बात समझ लीजिए। जैसा बर्ताव हमने आपके पकवान के साथ किया, वैसा हमारे पकवान के साथ कीजिए। हम तो कभी किसी विदेशी लज़्ज़त का नाम नहीं बदलते। उसका अनुवाद करने का धैर्य नहीं दिखाते। सम्भवतया ये हमारी कमी ही हो किंतु उससे अनर्थ होने से बच जाता है।
हम भारत के लोग पास्ते को भले लहसुन का छौंक लगाकर खा लेंगे, लेकिन कहेंगे पास्ता ही। तआरुफ़ यक़सां रक्खेंगे। भई, चटोरों के भी उसूल होते हैं। हम नूडल्स को नूडल्स ही कहते हैं, खारी सेवइयां नहीं कहते। एक भी चाइनीज़ आइटम का हमने नाम बदला हो तो बता दीजिए। हम लोगों को चाइनीज़ आती नहीं, चाहकर भी बदल नहीं सकेंगे, ये और बात है। यही बात आप इतालवी और मैक्सिकन खाने के बारे में भी कह लीजिए। पर अंग्रेज़ी दस्तरख़्वान को भी हमने हमेशा मान ही दिया है। सूप को सूप ही रहने दिया है, शोरबा नहीं कहा है। चिप्स चिप्स ही है, कतरन नहीं है। हमारी लोकप्रिय शब्दावली उठाकर देख लीजिए, हमारी वोकेबुलरी विदेशी शब्दों को दिए गए सम्मान से भरी पड़ी है।
तब विनती ही करूं कि गुलाब जामुनों को बख़्श दीजिए। हलुए ने आपका क्या बिगाड़ा है? और खीरमोहन-रोशोगुल्ला पर तो पहले ही उत्कल प्रदेश और बंगभूम वाले लड़ रहे हैं, ‘कॉटेज चीज़ डम्पलिंग्स इन शुगर सीरप’ बोलकर अब क्या तीसरी जंग करवाना है, बंधुओ?