दूर देश के सब्जबाग / अपनी रामरसोई / सुशोभित

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दूर देश के सब्जबाग
सुशोभित


दो तरह की सब्ज़ियाँ होती हैं- एक वे, जो मंडियों में, ठेलों पर, फेरीवालों के पास मिलती हैं। जिनसे अपने देश का किसान और जनता भलीभांति परिचित होते हैं। और दूसरी वे, जो रिटेल स्टोर्स में मिलती हैं, जो फ्रोज़न कमोडिटी होती हैं। उन्हें साधुभाषा में एग्ज़ॉटिक वेजिटेबल्स कहकर बुलाया जाता है यानी विलायती भाजियाँ। कह लीजिये कि ये दूर देश के सब्ज़बाग़ हैं। ऐसा नहीं कि उनमें कोई बुराई है- विधाता की समस्त कृतियों की तरह वे भी सुघड़ ही हैं- किंतु देशी सब्ज़ी-भाजी के आदी लोगों के मन में वे एक भिन्न प्रकार का कौतुक ज़रूर जगाती हैं।

वास्तव में, रिटेल स्टोर्स में फल और सब्ज़ियां किसी ‘स्कल्प्चर्स’ की तरह मालूम होती हैं। किसी शिल्पकृति की तरह सुंदर किंतु वैसी ही प्राणहीन भी। उन्हें देखना आंखों को सुहाता है। और अगर कोई इर्द-गिर्द ना हो तो छूना भी। बशर्ते वे इतनी ठंडी ना हों कि सुन्न हो जाएं आपकी अंगुलियों के पोर।

फलों और सब्ज़ियों की वानस्पतिकता में जो अदम्य आकर्षण है, उसकी बात ही क्या। आप उनकी मोहिनी से ग्रस्त हो सकते हैं। किंतु रिटेल स्टोर्स वाली यह वानस्पतिकता इधर के सालों में घटित एक नई शै है। वरना तो हम सबका बचपन आलू और टमाटर, भुट्‌टे और भटे, गिलकी और लौकी के साथ ही बीता है- ठेलों पर मिलें तो ठीक, सब्ज़ी मंडियों से धुले-धुले-से, ताज़े-तरीन मिल जाएं, तो कहना ही क्या। सब्ज़ी मंडियां यों भी किसी मंदिर, प्रार्थना-गृह, उपासनालय से कम नहीं होतीं, फिर चाहे बुधवार को लगें या इतवार को- या किसी एक ठीये पर जमी रहें हफ़्ते के सातों दिन!

हाँक से ही पहचान जाएँगे, कि भाजी-तरकारी वाले हमेशा एक ख़ास अंदाज़ में पुकार लगाते हैं। सड़क से सब्ज़ियों का ठेला गुज़र रहा है, खिड़की से आवाज़ लगाकर रोकिए और जाकर ले आइए। मंडी घर से तीन कोस दूर है, साइकिल और झोला उठाइए और दो दिन की सब्ज़ी-भाजी एकमुश्त ले आइए (ये फ्रिज के घर-घर प्रतिष्ठित होने से पहले के ज़माना वाली बात है, फ्रिज आने के बाद तो अब चार से पांच दिन की भाजी-तरकारी भी एकमुश्त लाई जा सकती है)। और अगर सोमवार या बुधवार का हाट घर के पास लगता हो, तो लूट के मक़सद से देर शाम ऐसे वक़्त जाइए, जब उठने के भाव तरकारियाँ मिलती हैं, ढेर के ढेर, ‘दस रुपय्ये में सब ले जाओ’ के मुहावरे में। भिंडी की ढीग, ककड़ी का गट्‌ठर, भटों का ढेर, लौकियों का पसारा। आप भुवन-भर की भाजी झोला भरकर ला सकते हैं, मन ही मन यह मानकर कि चौथाई भी इसमें से ख़राब निकल गई, तब भी कारू का ख़ज़ाना कौड़ियों के मोल ही हाथ लगा है।

किंतु रिटेल स्टोर्स की सब्ज़ियों का क्या करें- फ्रोज़न, स्टॉक्ड, पैकेज्ड और, जैसे कि, अपनी जगह से बाहर, वहाँ नहीं, जहाँ उन्हें होना चाहिए था?

ग़रज़ ये कि आप सुपर मार्केट्स से कपड़ा ख़रीद सकते हैं, जूता ख़रीद सकते हैं, खाने-पीने का ही सामान लेना हो तो प्रोसेस्ड फ़ूड भी ले सकते हैं, किंतु सब्ज़ियाँ? ये यहां पर कैसे और क्यूँ? देशी मन को लगता है कि इसमें कहीं कोई बहुत ही ज़रूरी कड़ी गुम है। तिस पर, तथाकथित- एग्ज़ॉटिक वेजिटेबल्स!

किसी रिटेल स्टोर में वेजिटेबल्स एंड फ्रूट्स एंड सैलेड्स सेक्शन में प्रवेश करते ही लगता है, आप किसी एग्ज़ीबिशन में चले आए हैं। प्लास्टिक की महीन पन्नियों में लिपटीं, रैक्स में रखीं, ठंडी, गली और यक़ीनन अनेक दिनों की बासी उन सब्ज़ियों को देखकर मंडी की ताज़ी सब्ज़ियों के आदी अगर विचलित हो जावें तो अचरज नहीं।

फूलगोभी ठीक है। अंग्रेज़ी में उसे क्रॉलिफ़्लॉर कहने से भी वह रहेगी फूलगोभी ही। किंतु ब्रॅकली का क्या करें? ये किस श्रेणी की गोभी है? गोभी है भी या नहीं? दिखती तो गोभी जैसी ही है।

खीरा ठीक है। अंग्रेज़ी में उसको कुकुम्बर कह लीजिए। ‘कूल एज़ कुकुम्बर’ कहकर किसी के शांतचित्त स्वभाव की सराहना भी कर लीजिए। किंतु ये ज़ुकिनी क्या बला है? दिखने में तो खीरे-ककड़ी जैसी ही दिखती है। यही कारण था कि जब मैंने सुना ज़ुकिनी को वो लोग पंजाब में 'जुगनी' कहकर बेचते हैं तो मन ही मन कहा, ठीक ही हुआ। यही उसकी सद्‌गति है।

किन्तु ये लैट्यूस क्या पत्तागोभी ही है? गेंद की तरह गोलमटोल नहीं, खुले पत्तों वाली ही सही, किंतु क्या गोभी ही है?

आप मंत्रमुग्ध से देखते रहिए। बौड़मों की तरह सूंघकर देखने का प्रयास करते रहिए। टोही ग्राहक बन जाइए। किंतु फ्रोज़न कमोडिटी में भला गंध कहाँ से हो? अमरकोश में जिसको गंधसार कहा गया है, वो जो भी हो इसके जैसा तो नहीं ही हो सकता था।

एवोकाडो की क्या चटनी बनाई जा सकती है? लीक्स क्या होती हैं? रेड कैबेज तो निश्चय ही पत्तागोभी है, किंतु उसके भीतर यह भटे जैसा वर्ण कहाँ से चला आया? एक बार रेड कैबेज की सब्ज़ी पकाई तो खाने को मन ही राज़ी ना हुआ। गोभी तो पीली-हरी रंगत की होती है, यह गोभी नहीं हो सकती।

रेड कैप्सिकम और यैलो कैप्सिकम : ये हमारी हरे रंग वाली शिमला मिर्च की तुलना में कितनी सुंदर दिखलाई देती हैं! किंतु उनका इतना चटख लाल और इतना दीप्त पीला रंग आक्रांत भी करता है। लगता है, ये क़ुदरती रंग नहीं। हो ना हो, किसी रंगरेज़ ने शिमला मिर्च को चटख रंगों से रंग दिया होगा।

एक बार फ्रोज़न स्वीट कॉर्न ले आए, पैकेजिंग खोली तो मालूम हुआ भीतर से गल चुका था। बेचारा भुट्‌टा। कहां अंगीठी पर सिंकता था, कहां अब बर्फ़ में गल रहा है! बुरी गत हुई बापड़े की।

भुट्‌टे से याद आया, मुम्बई में एक बार लंच करते हुए मैंने सबसे पहले बेबी कॉर्न खाया था। बेबी कॉर्न? इतना नन्हा-सा भुट्‌टा। इसे क्या पूरा खाया जाता है, यानी गुठली सहित? संकोच के मारे मैं किसी से पूछ नहीं पाया था। सोचा, आम के तो पता नहीं, इसकी गुठलियों के भी दाम होंगे। कॉर्न ही था, ज़हर थोड़े ना था। तो चबा लिया।

किन्तु, कुकुरमुत्ता नाम में ही तिरस्कार है। कुकुरमुत्ता कहकर गाली दी जा सकती है। कवि निराला ने तो उलाहने के स्वर में ही इस शब्द का जाप किया था कि क्यों रे कुकुरमुत्ते। अलबत्ता वे व्याजस्तुति गुलाब की करना चाह रहे थे। किंतु वही अब मशरूम बनकर कैसे शान से विराजा है, देखिए।

और भाजियाँ- मेथी-पालक-बथुआ नहीं- अमारैंथस की भाजी, सेलेरी की भाजी, बेसिल और लेमन ग्रास! तब मिंट को देखकर राहत मिली। ‘इसको हमारे यहां पुदीना बोलते हैं’, मैं फट्‌ट से बोल पड़ा, मानो विलायत में होऊँ, जबकि था वह अपना शहर ही। बाहर निकलो तो बोगदा पुल और ऐशबाग़ स्टेडियम नज़र आएं। किंतु रिटेल स्टोर्स का संसार ही अलग है।

सप्ताहांत में छुट्‌टी के दिन मैं रिटेल स्टोर्स में ऐसे जाता हूं, जैसे कोई किसी अजायबघर में जाता है, कौतुक से मुदित मन लिए। सच कह रहा हूँ। और मन में कोई दुर्भावना लेकर भी नहीं बोल रहा, कि विलायती सब्ज़ियाँ बुरी होती हैं और देसी भाजियाँ भली। मैं बस अपने आश्चर्यभाव का बयान कर रहा हूं, जो ये सब्ज़ियाँ मेरे भीतर जगा देती हैं।

‘एग्ज़ॉटिक फ्रूट्स’ का बखान करने की तो मुझमें वक़अत ही नहीं। इनकी दुनिया ही निराली है।

एक फल का नाम है- बुद्धाज़ हैंड्स यानी बुद्ध के हाथ। हाथ इसलिए कि इस फल में दर्जनभर अंगुलियां निकली होती हैं। किंतु बुद्ध का हाथ ही क्यों, ये तो राम जाने।

एक फल है- स्टार फ्रूट, जो देखने में सितारे जैसा मालूम होता है। खाने में कौन जाने कैसा होगा।

एक ट्रॉपिकल फ्रूट होता है- मैंगस्टीन- बैंगनी गूदे और सफ़ेद बीज वाला। दिखने में जितना आकर्षक होता है, खाने में भी होगा क्या?

इसी मुग़ालते में एक बार ड्रैगन फ्रूट ले आया और खाया। वह निरा बेस्वाद था। नाहक़ ही पैसा ख़र्चा। इससे तो अमरूद ही ले आता। या बड़ी अमीरी सूझ रही थी तो हापुस की पेटी क्या बुरी थी- लखपतियों का भोगपर्व।

कई दिनों तक आपमें से कितने लोग कीवीज़ को चीकू और प्लम्स को आलूबुख़ारा ही समझते रहे थे, बतलाइए तो? ये कहानी यहीं ख़त्म नहीं होती। पेरसिम्मोन को टमाटर मत बूझ लीजिएगा। ये केवल दिखता भर वैसा है। आम बोलचाल में इसको इधर जापानी फल कहते हैं।

एप्पल सबने सुना है, पाइनेप्पल भी सुना है (अलबत्ता अनानास भी एग्ज़ॉटिक ही है, उसका अनानास नाम भी विदेशी है, पर उससे अब इतनी जान-पहिचान हो गई कि ये अपना ही लगता है), लेकिन ये एलीफ़ैंट एप्पल क्या बला है? दरअस्ल ये चैल्टा नामक फल है, जिसको उसके कटहल सरीखे आकार के कारण सेबों में गजराज कहा गया है।

कटहल से याद आया, एक बड़ा चर्चित फल है डुरियन। यह दिखने में हूबहू कटहल जैसा दिखता है, इसका फल भी कटहल जैसा ही लगता है, लेकिन इसकी बदबू बड़ी बदनाम है। तब भी लोगबाग़ इसके दीवाने हैं। नाक पर हाथ रखकर तो इसे खाया जा सकता है ना, स्वाद तो भला ही है। ये दक्षिण पूर्व एशिया का फल है, किंतु एग्ज़ॉटिक फ्रूट के नाम पर हिंदुस्तान के लोग भी अब इसमें दिलचस्पी ले रहे हैं।

ग़रज़ ये कि आम, सेब, केला, संतरा से अब जी नहीं भरने वाला। जैसे रेस्तराँ में मैक्सिकन, कॉन्टिनेंटल, चाइनीज़, इटैलियन खाना मिलता है, वैसे ही अब रिटेल स्टोर्स में विलायती फल और सब्ज़ियाँ हैं। लेनदेन का धंधा है, क्योंकि हमारे यहां का हापुस भी तो पेटियों में पैक होकर कोंकण से सीधे कैलिफ़ोर्निया पहुंच जाता है। वहां के लोग हापुस को एग्ज़ॉटिक अल्फ़ांसो बोलते होंगे। खानपान का भूमंडलीकरण ऐसे ही होता है।

देशी लोगों की जीभ और जेब के लिए ये विलायती फल-सब्ज़ियाँ भले अभी मुफ़ीद ना हों, देखने का टिकट थोड़े ही लगता है। रिटेल स्टोर्स में कभी-कभी जाकर इन्हें देख आना भी कम मज़ेदार तो नहीं- जैसे मैं देख आता हूँ मनोविनोद के लिए।