ईख का रस / अपनी रामरसोई / सुशोभित
सुशोभित
‘तैत्तिरीय उपनिषद’ में ब्रह्मस्वरूप की प्रतीति ‘रसो वै सः’ की तरह की गई है। भली बात है, तत्व-मीमांसा के साथ ही काव्योक्ति भी है, किंतु रस यानी क्या?
वास्तव में रस शब्द के हमारे यहां भांति-भांति के तात्पर्य निकलते हैं। रस का तत्व-स्वरूप तो हमने देख लिया। फिर काव्यालंकार में रस-परिपाक की महिमा गाई जाती है। श्रीरूपगोस्वामी ने विशेषकर मधुर रस का विस्तृत विवेचन करते हुए उसे रसराज की संज्ञा दे डाली है। जबकि अचरज की बात है कि भरतमुनि के नवरस में यह मधुर रस है ही नहीं।
गोस्वामीजी का तर्क भी अनुचित नहीं है। रस है तो मधुर ही होगा। रस की बात करें और माधुर्य की बात ना हो, वैसा कैसे सम्भव है।
किंतु ‘रस’ का लौकिक निरूपण करने काे जब आप उद्यत हों, तो मन जाने क्यों फाल्गुन और चैत्र के उन दिनों में चला जाता है, जब रस का व्यापार करने वाली मधुशालाएं यत्र-तत्र सहसा उगी हुई नज़र आने लगती हैं। यहां माधुर्य भी है, तरलता भी है, रस तो ख़ैर होगा ही। किंतु काव्यालंकार वाला रूखा रस नहीं, जो किसी सुजान नहीं तो जड़मति को ही किसी अन्यमनस्क अपराह्न शाला में जमुहाई लेने को विवश कर दे।
यह तो उस ईख का रस है, जिसका अगर जनवृन्द का बस चले तो गिलास छोड़कर लोटा और लोटा छोड़कर अंजुरी से अहर्निश पान करते रहें!
यहां मधुशाला में प्रयुक्त होने वाला शब्द भी बड़ा विचित्र है। साहित्य में हालावाद के प्रवर्तक बच्चन ने चालीस के दशक में मधु की ऐसी महिमा गाई थी कि कविता के पाठक और श्रोता मानो मदोन्मत्त होकर झूम उठे थे। किंतु बच्चन की मधुशाला जिस मधु की प्रस्तावना करती थी, ये वो मधु नहीं है, जो गर्मियां शुरू होते ही भारत देश के शहरों, क़स्बों की मधुशालाओं में रस की अविरल धारा की तरह बहने लगता है। बच्चन की मधु तो हाला थी, उसके लिए सुराही की आवश्यकता होती है, साक़ी की बात तो रहने ही दें।
जबकि हमारे वर्ण्य विषय की मधु तो निरे गन्ने का विनयी रस है, जो मोम-पप्पड़ की तिरपाल तानकर बनाए गए तम्बुओं में, रेत-गिट्टी की गीली बिसात पर, प्लास्टिक की मेज़-कुर्सियां बिछाकर, शीशे के गिलासों में नींबू और नमक के साथ परोसा जाता है। ग्रीष्म से व्याकुल लोक के लिए यह अमृत से कम नहीं, सुरा शब्द का प्रयोग ना करूंगा। ये अमृत मात्र दस रुपए छुट्टे में उपलब्ध हो आता है। बिना बर्फ़ का हो तो बारह रुपए।
ये बर्फ़ की बात भी ख़ूब कही। मार्केज़ के विश्वविख्यात नॉवल ‘एकांत के सौ वर्ष’ का आरम्भ ही इस वाक्य से होता है- ‘बहुत सालों के बाद जब कर्नल बुएन्दीया का तोपों से सामना हुआ तो उन्हें वो दूरस्थ दोपहर याद हो आना थी, जब उनके पिता उन्हें बर्फ़ दिखाने ले गए थे।’ ये बर्फ़ देखने जाने वाली बात को वो पीढ़ी नहीं समझ सकेगी, जिसने आंख खोलते ही घर में हमेशा रेफ्रिजरेटर की चौकी जमी देखी है। नहीं तो एक ज़माना था, जब ख़ासकर मध्यभारत के बच्चों को बर्फ़ देखने और खाने का बड़ा चाव हुआ करता था। तपते निदाघ में मटके से ठंडा पानी तो मिल जाता था, लेकिन बर्फ़ कहां से मिले। अगर झम्मक लड्डू वाला फेरा लगाना भूल जाए तो मधुशालाओं के सिवा ठौर कहां? तब इस तरह की सूचनाएं बड़े अचरज से भरती थीं कि बिना बर्फ़ के गन्ने के रस के दाम बर्फ़ वाले से अधिक होंगे! भला क्यूं? सामान्य बुद्धि तो यह कहती थी कि बर्फ़ वाला महंगा होना चाहिए, उसमें बर्फ़ जो पड़ी है।
यों, बात केवल गन्ने के रस की ही नहीं, शरबत में भी आइस क्यूब डालकर पीना एक ज़माने में लखपतियों का शौक़ माना जाता था। वैसे लखपती की भी अब क्या हैसियत रह गई? लेकिन नब्बे के दशक में लखपती होना अमीर होने का पर्याय था, और घर में रिफ्रिजरेटर होना रईसी की बड़ी नुमाइश।
उज्जैन ज़िले में देवास सड़क पर नरवर के आगे झाला ठाकुरों का एक गांव है- कचनारिया झाला! यहां कोई दहाई साल पहले कार्तिक मास में अपनी सवारी सिधारी थी! किंतु कचनारिया में कचनार के दरख़्त नहीं थे। वहां पर तो ग्रामसीमाओं पर बंधे थे ईख के खेत, जिनकी शिराओं तक में शर्करा!
सांटे के वैसे बाड़ को देखना भी कोई कम कौतुक नहीं है। अनाज के खेतों में आदमक़द फ़सलें तक नहीं होतीं, उनकी बढ़त घुटनों तक ही रुक जाती है, लेकिन सांटे के बाड़ में मीनारक़द फ़सल लहलहाती है। दिनदहाड़े धूप भी यहां भीतर मुस्तैदी से घुस नहीं पाती, तब दरांती के बिना आदमज़ात कैसे घुसे?
ये जो गन्ना है, ये हिंदुस्तान की एक आलातरीन नगदी फ़सल है। जिसको कि कहते हैं- कैश क्रॉप। दुनिया में एक ब्राज़ील ही है, जो हिंदुस्तान से ज़्यादा गन्ने उपजाता है। गन्ने से मुख्यतया चीनी बनाई जाती है, जिनकी मिलों का अपना ही अर्थशास्त्र है। इसके रस से गुड़, राब, खांड भी बनाई जाती है। गंडेरियां चूसने का रिवाज़ अब रहा नहीं, भले चाक़ू से तराशकर तश्तरी में क्यों ना पेश की जाएं, और इसके लिए केवल आधुनिक मनुष्य की दंतपंक्ति की दुर्बलता ही इकलौता कारण नहीं है। वो वक़्त ही अब नहीं रहा, जब लोकप्रिय फ़िल्मों तक में देहाती युवती की भूमिका निभाने वाली नायिकाएं गन्ना लिए यों घूमती थीं, जैसे कि वो कोई बांसुरी हो और निहायत नज़ाक़त से दांतों से उन्हें छीलकर उनका रसपान करती रहती थीं।
भारत में गन्नों से रस प्राचीनकाल से निकाला जा रहा है। सिंधु सभ्यता के समय से। रायबहादुर गौरीशंकर ओझा ने अपनी पुस्तक में बतलाया है कि जोधपुर और मालानी के परगनों में बहुत-से गांवों की सीमा के अंदर गन्ना पेरने के पत्थर के कोल्हू पड़े मिलते हैं। कहा जाता है पहले यहां हाकड़ा नदी बहती थी, जिसके किनारे गन्ने की खेती होती थी। गन्ने को पेरकर गुड़ बनाया जाता था। उसे शीतलपेय की तरह पीया जाता था या नहीं, इसका विवरण नहीं मिलता। किंतु चरक और सुश्रुत को भी गन्ने के गुणों का ज्ञान था। संस्कृत में गन्ने को इक्षु कहा जाता है, जिसका तद्भव फिर बाद में ईख हो गया। आयुर्वेद के प्राचीन ग्रंथों में ‘इक्षुवर्ग:’ का पृथक से उल्लेख मिलता है। दीर्घच्छद, भूमिरस, गुड़मूल, असिपत्र, मधुतृण, आदि इसके भिन्न नाम हैं। लोक में सीधा-सरल सांटा शब्द चलन में है, जो दिखने में बांस जैसा होता है। किंतु बांस के उलट, उसका अंतर्मन रस से परिपूर्ण!
और ये ज़रूरी नहीं कि मधुशालाओं का तामझाम ही सांटे के रसपान के लिए अनिवार्य हो। ठेलों पर चरखियां लेकर भी अनेक परिश्रमी अब चिलचिलाती धूप में स्वेद बहाते निकलने लगे हैं। किफ़ायत की कला के महारथी। एक बार में सांटे का रस निकालकर वे उसे त्याग नहीं देते, दोबारा पेरने के लिए चरखी में घुसाते हैं, जब तक कि निरा भूसा ना शेष रह जाए। किंतु उससे प्राप्त होने वाला हरित आभा और धवल फेन वाला जो रस है, वो गर्मियों में अगणित नश्वर प्राणियों की तृषा का निदान है। नमक और नीबू की उचित मिकदार वाले वैसे किसी गन्ने के रस के एक गिलास का सेवन करने के उपरांत जब आप असीम संतोष से अधरोष्ठ के ऊपर बन गई फेन की लकीर को रूमाल से पोंछने का यत्न करें, और गद्गद् होकर इस अनुभूति को ‘रसो वै सः’ की संज्ञा देना चाहें, तो इस तत्व-मीमांसा के लिए आपको दोष तो नहीं दिया जा सकता है ना?