जामुनों का रंग / अपनी रामरसोई / सुशोभित
सुशोभित
बीते बरस की यह बात है। बीते बरस की बारिश की।
मंगल की मध्याह्न थी। इंदौर के महूनाके पर जामुनों का टोकरा लिए बैठी थी एक ग्रामबालिका और कैसा कौतुक कि सलवार तक जामुनरंगी थी।
कहीं ककड़ी, कहीं नीबू, कहीं इमली, कहीं जामुन की ढींग लिए ऐसी कितनी ही ग्रामबालिकाएं रास्ते में दिखाई देती हैं, दिन ख़त्म होते-होते सौ-पचास रुपए की आमदनी की आस मन में लिए। वैसी ही थी वह भी।
और जामुन पूछो तो कैसे? भाव मिश्र अपने ‘भावप्रकाश’ में जिसे ‘अथ राजजम्बू: तन्नामनि तत्फलगुणांश्चाह’ कहकर पुकारते, ठीक वैसे ही, बड़े-बड़े जामुन। राजजम्बू यानी जामुनों के राजा। वैसे ही राज-जम्बुओं के आधार पर किसी काल में भारतवर्ष या आर्यावर्त का नामकरण जम्बूद्वीप किया गया होगा।
मन ललचा गया।
आषाढ़ के पंद्रहवें मेघ की छांह में छतरी लिए सैर को निकले थे अपने राम। श्रावण की अमावस तक आमों के सिवा किसी और फल का भोग निषिद्ध मानने वाले आम्र के रसिक। केशरबाग से झोला भरकर दशहरी आम ले चले थे कि दिखी वह अनिच्छुक अन्यमनस्क। जामुनरंगी सलवार पहने जाम्बुल-वन की कन्या।
जामुनों से कोई विशेष प्रीति हो वैसा तो न था फिर भी ठहर गया। यूं ही पूछ लिया मोलभाव। उसने यंत्रवत रूप से बताया- बीस रुपए के पाव।
किंतु उसकी अंगुलियों पर जो ठहरी मेरी दृष्टि तो फिर डिगी नहीं।
इतना नील कि नीलांजनी हो गई थीं उसकी अंगुलियों के पोर तक।
अलसीफूल का अंतर्मन जिसने देखा हो वही कल्पना कर सकता है उस वर्ण की। या फिर नीलपाखी के कंठ का रंग। या धूम्रमेघ की रंगत। स्याह, बैंजनी, सुरमई, रंग तो रंग है, जिस नाम से पुकारो, गहरा गाढ़ा फ़ीरोज़ी।
मेहंदी लगाते-लगाते लाल हो जाते हैं हाथ। हल्दी पीसते-पीसते पीले।
कोयले के क़ारोबार में बरौनियों तक पर ठहर जाती है कालिमा।
और जो जामुन का सौदा करे, उसकी अंगुलियों के पोर तक ज्यूं विष से नील।
मैंने विनोद में पूछ लिया- ‘ओह कितनी तो नीली पड़ गई हैं अंगुलियां।’ उसने अब मंदस्मित से कहा- ‘हां भैया, सुबह से कितने तो जामुन बेचे, पलड़े पर चुन-चुनकर रखने भर से ही हाथों पर छूट जाता है जामुनों का रंग।’
और तब जाकर मैंने ध्यान दिया कि सम्भवत: जामुनों के रंग से अधिक मनोरम और कोई रंग नहीं। सरकारी महक़मों में सील-ठप्पा लगाने वाले जिन कारिंदों की अंगुलियों पर चढ़ जाता है गाढ़ी स्याही का रंग, वे कभी कल्पना नहीं कर सकेंगे वैसी नीलांजनी अंगुलियों की, जो जामुन का सौदा करने से उपहार में मिलती हैं।
ज्वर नहीं था उसको, ना ही मैंने गले में पहन रखा था शिव के विषधर जैसा कोई ‘डागदरी आला’ (साधुभाषा में इसे ही ‘स्टेथेस्कोप’ कहते हैं), वरना किंचित साहस के साथ कहता कि तनिक जीभ भी तो दिखाओ अपनी।
जाने क्यों मन में कौतूहल चला आया था कि कितने सेर जामुन बेचे होंगे इसने भोर से अब तक, एकाध जामुन चखे भी होंगे या नहीं।
शबरी ने चख-चखकर बेर खिलाए थे प्रभु श्रीराम को।
शबरी के घर पर वो अतिथि बनकर सिधारे थे। सत्कार का भाव उसके मन में था। प्रभु को खट्टे-कच्चे-कसैले बेर कैसे खिला दें, इसीलिए चख-चखकर मीठे बेर ही खिला रही थी।
उसके आंगन में अमरूद होते तो ख़ुद नहीं चखना पड़ता, मिट्ठुओं के कुतरे अमरूद सबसे मीठे होते हैं, यह तथ्य तो सर्वज्ञात ही है।
शबरी के जूठे बेर राम ने मुस्कराते हुए खाए थे, उसके पीछे जो भावना थी, उसे बख़ूबी पहिचानते हुए।
किंतु ग्राहक भले देवता हो अतिथि की तरह, अतिथि तो नहीं ही होता। ग्राहक को जूठे जामुन खिलाने का कोई लाभ नहीं।
मैं चाहता था उस ग्रामबालिका की जीभ देखना, केवल यह जानने को कि पूरे महूनाके को जामुन खिला चुकी होगी सुबह से, ख़ुद भी कुछ खाए हैं या नहीं।
क्योंकि कुछ भी कहें, लेकिन जामुन खाकर कैसे तो उन्मन हो उठता है मन, जब आषाढ़ के मेघ घिरे हों!
कि जामुनों की चोरी छुपती नहीं, झट पकड़ी जाती है। बैंजनी पड़ जाते हैं जीभ के तंतु। जैसे स्याही वाली कलम को दांतों में दबाने से मसूड़ों तक चढ़ आता है स्याह रंग।
किसी पर अंदेशा हो जामुनों की चोरी का तो कुछ पूछने की आवश्यकता नहीं। बस इतना ही कहना होगा कि अपने हाथ दिखाओ, या फिर जीभ दिखाओ।
मैंने शिष्टाचारवश उससे कहा नहीं कि जीभ दिखाओ अपनी, किंतु सहसा मुझको याद हो आई ‘पथेर पांचाली’ की ग्रामबालिका दुर्गा। बरखा की वैसी ही संध्या थी। ग्राम-सीमांत पर वह देव पूजने गई थी तो भीग गई। ज्वर हो आया। उसी में तप रही थी, किंतु जब डाकसाब ने जीभ दिखाने को कहा, तो संकोच से मुस्करा गई।
जीभ भला कौन भलामानुष किसी को दिखाता है, जामुन ही चुराकर खाए हों चाहें? जबकि उस निर्दोष ग्रामबालिका ने तो चुराया था मोतियों वाला कंठहार।
डाकसाब ने कहा जीभ दिखाओ, उसने इनकार कर दिया और कनखियों से देखा अपने छोटे भैया अपु को। दिनभर में जाने कितनी बार मुंह चिढ़ाने के प्रयोजन से अपु को जीभ दिखाया करती थी दुर्गा। भैया को जीभ दिखाना ठीक है, लेकिन डाकसाब को भला कैसे जीभ दिखाएं। ज्वर का इलाज ही करना हो चाहे।
इतनी-इतनी बातें सोचने लगा था, फिर ‘भैया जामुन लेना है या नहीं’ सुनकर तंद्रा टूटी तो किंचित प्रकृतिस्थ होकर कहा- ‘तनिक तीन पाव तौल देना ये जामुन। देखकर ही बता सकता हूं शकरकंद से मीठे हैं, जीभ पर तीता-कसैला स्वाद छोड़ जाने के बावजूद।’
फिर आम नहीं खाए घर जाकर।
झोलाभर दशहरी जो लेकर चला था केशरबाग़ से, उनका बन गया आमरस। उसी का भोग लगाया गया फिर बीयों के साथ रात्रिभोज उपरान्त।
और दिवसपर्यंत जामुन के रंग से नीली पड़ी रहीं अंगुलियों की पोरें, नीली पड़ी रही जिह्वा, जैसे मोरपंखिया चांदनी।