मूंग हलवा / अपनी रामरसोई / सुशोभित

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मूंग हलवा
सुशोभित


इधर मुझे मूंग दाल का हलवा अति रुचिकर हो चला है। उससे अनुरक्ति हो गई। यत्किंचित उसका सेवन करता हूं। जाड़ों में यों भी यह उपहार ही है। जब मैं बालक था, तब मुझको गाजरों का हलवा अधिक सुहाता था। किंतु अब उसमें अधिक रस नहीं आता। तो प्रतिवाद के स्वर से ही पूछता हूं कि उसमें इतना खोया क्यूं पड़ता है, शर्करा की अनुभूति उसमें इतनी भास्वर क्यूं? तब मूंग हलवे की सादगी देखिये। यों वह गरिष्ठ है, किंतु सरलता के साथ। जैसे कोई विद्वत होकर भी सरलता से भरा हो। सरस-पंडित हो। तब मैं सोचने लगा, क्या यह सम्भव है कि आयु के साथ हमारी रुचियां भी परिष्कृत होती जावैं? किंतु यह तो प्रकारांतर से यही प्रवाद करना होगा कि मूंग दाल का हलवा गाजरों के हलवे से अधिक परिष्कृत है। वैसा कहने का तब कोई आधार प्रदान कीजिये।

उज्जैन में एक ढाबारोड है। यह सड़क सीधे शिप्रा नदी को जाती है। किंतु यहां ढाबे नहीं, यहां तो मिठाइयों की दुकानें हैं। ओटले पर कड़ाहों में गुलाब जामुन सजे दिखते हैं। ढाबारोड के गुलाब जामुन प्रसिद्ध हैं। सोमती-शनिश्चरी के नहान के बाद आस-पड़ोस के गांव-जवार से आए जन यहां गुलाब जामुनों का रस लेते हैं। इसी सड़क पर एक ज़माने में कोई मिठाई दुकान हुआ करती थी, जो गाजरों का उत्तम हलवा बनाती थी। मैंने तो वैसा देवद्रव्य फिर नहीं चखा। उसके हलवे में लवंग की कलियां पड़ती थीं। वो गाजरों के साथ यों खिलती थीं कि हलवे के स्वाद में एक नया आयाम जुड़ जाता। बहुतेरे हलवाई गाजरों के हलवे में इलायची को जितना महत्व देते हैं, उतना लवंग को नहीं देते। उन्हें इस पर चिंतन करना चाहिए। गाजरों के हलवे के प्रति मेरे अनुराग का आलम्बन वह वस्तु ही थी। किंतु अब तो मूंग का हलवा मुझको रुचिकर हो रहा है।

बचपन में मेरी नानी कहती थी- कचौड़ियां समोसों से श्रेष्ठ हैं! मुझको तो समोसों में अधिक रस आता था। मैं पूछता वैसा क्यूं? तो वो कहतीं कि अरे भाई, समोसों में आलू पड़ता है और कचौड़ियों में मूंग दाल पड़ती है। चवन्नी का समोसा और चवन्नी की कचौड़ी। किंतु बाज़ार में आलू और मूंग दाल का दाम आमने-सामने रखकर देख लो। तो कचौड़ी में अधिक लाभ है, उसमें हमें अधिक मूल्यवान वस्तु मिलती है। मैं सोचता, भला यह भी कोई बात हुई? किंतु बात केवल इतनी भर तो नहीं। किसी पदार्थ का सुस्वादु होना भी कोई कारण है। जिन्हें कचौड़ियों में रस आने लगे, उन्हें फिर वही रुचेगी। फिर मूंग दाल में आलुओं से अधिक गुण भी तो हैं।

ऐसा हुआ कि गांधी जी ने दक्षिण अफ्रीका में दालों का परित्याग कर दिया था। जबकि उन्हें दालें अत्यंत प्रिय थीं। कस्तूरबाई को कोई रोग हुआ। चिकित्सक ने पथ्य के रूप में दालें त्यागने का परामर्श दिया। गांधीजी इस परामर्श को पत्नी तक ले गए। पत्नी ने उलाहना दिया, आप तो दालों के रसिक, और मुझे त्यागने को कहते हैं। पर उपदेश कुशल बहुतेरे। गांधीजी को यह बात लग गई। उन्होंने तुरंत ही दालों को त्यागने का संकल्प ले लिया। फिर पति-पत्नी दोनों फलाहारी हो रहे।

किंतु यह तो गांधी जी की कथा है। गांधी जी तपस्वी थे। इंद्रिय-दमन का ही चिंतन करते थे। उन्हें तो नित्यप्रति ही कोई न कोई संकल्प उठाने में सुख आता था। मैं अकिंचन तो इंद्रियों का दासानुदास हूं। साधुभाषा में इसको भोगी कहेंगे। मैं दालों का त्याग कैसे करूं? दालें भी तो कैसी बहुवर्णी हैं? उड़द की दाल से वड़े बनते हैं। चने की दाल बेसन की वस्तुओं का प्रयोजन है। अरहर की दाल भात के साथ सजती है। ये मुंह और मसूर की दाल वाली मिसाल यों ही किसी ने नहीं चला दी है। दाल में काला होता है तो काली दाल भी होती है। यह पंजाब-दिल्ली के क्षेत्र में दाल मखनी कहलाई है। हरी दाल की खिचड़ी सर्वांग सुंदर होती है। यह हरी दाल मूंग की ही छिलके वाली दाल है। छिलके के बिना यह मोगर हो जाती है। वह मूंग-मोगर की युति कहलाती है। तब मैं कहूं कि जिसको हम मूंग का हलवा कहते हैं, उसे मोगर का हलवा कहें तो अधिक उचित होगा। फिर खड़ा-मूंग है जो मोठ कहलाता है।

यह आरोप मैं कैसे लगाऊं कि गाजरों की तुलना में मूंग दाल श्रेयस्कर है? गाजरें तो ईश्वर की सजल संतानें हैं। उन्हें यों ही चबा लिया जाए तो सुंदर और सहज है। उनका हलवा भी अगर बनावैं तो कोई अपराध नहीं। आटे, सूजी, लौकी, कद्दू के हलवे वर्षभर बनते हैं। किंतु जाड़े के मौसम में बनाए जाने वाले दोनों हलवों- मूंग और गाजर- जो मिठाई की दुकानों में सहोदर की तरह संग-साथ में सुसज्जित पाए जाते हैं- में से किसी एक को चुनना हो तो मैं तो अब मूंग हलवा ही चुनूंगा। आयु के साथ मनुज की रुचियां परिष्कृत हो ही जाती हैं। मूंग हलवे का तत्व समुज्ज्वल है, इसमें तो मुझे संदेह नहीं।

किंतु इस घृतवन्त को पकाना इतना सहज कहां? दाल भला कब आसानी से गली है? उसमें पुरुषार्थ लगता है और धैर्य ही उसके परीक्षण की कोटि है। तो घंटों पूर्व से भिगो रखिये यह पीली दाल। फिर दरदरा पीस लीजिए। महीन पीसने से तो बात नहीं बनने वाली। कड़ाही में घृत चलाइये। घृत में ही इस दाल को सिंझाइये। भुनाई भी एक गुण है। अति और अल्प का चिंतन उसमें भी बराबर चलता है। शर्करा इसमें इतनी ही पड़ती है कि एक मुलायम-सी मिठास उसमें आ जाए। सेरभर कर शर्करा उड़ेलकर क्या करना है। सेंक उसका इतना सुंदर हो कि बड़ी झींसी महक आ जावै। जो रसिक होगा, वह इसे भला सूखे मेवों से क्यूं ना सजाने लगा? किंतु वह परिग्रह नहीं भी करें तो भी यह मिष्ठ अपने में सम्पूर्ण है। बादाम और अखरोट का हलवा तो धनिक के लिए है। जनसाधारण के लिए तो यह मूंग हलवा ही मेवा-मिष्ठान है।

यह वस्तु गरिष्ठ है, जैसे श्रीखण्ड गरिष्ठ होता है। संयमी के लिए पावभर भी बहुत है। यों भी हलवे भला कौन भकोसकर खाता है? किंतु चलते-फिरते एक दोना हलवा खा लिया जावै तो वह सर्दियों के दिनों का सुख है। मैं तो आंखें मूंदकर अवधान केंद्रित करके उसे उदरस्थ करता हूं। मूंग हलवे की समूची संरचना में ही वैसा खरापन है, सेंक है, एक प्रौढ़ क़िस्म की भावदशा है, कि वह मन-प्राण को पोषित करता है। भव्य होकर भी वह सौम्य है। गर्वीला होकर भी उदार है। इस वस्तु का रस लेने के लिए आपकी रुचियों का परिष्कृत होना आवश्यक है। उसे सिद्ध करने के लिए मैं किसी अन्य मिष्ठान से विवाद क्यूं करूं, किसी और का अनादर करने से भी क्या हेतु? किंतु यह कहने से स्वयं को कैसे रोकूं कि यह घृतवन्त पकवान तो कलावन्तों का ही कंठहार है। इसके आस्वाद के लिए भी तनिक सुरुचि चाहिए, बंधुवर।