गणपति / सुनो बकुल / सुशोभित

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गणपति
सुशोभित


आज भारतवर्ष में "शैवों", "वैष्णवों", "शाक्तों" से कम संख्या में नहीं हैं "गाणपत्य"। संभवत: अधिक ही होंगे। क्योंकि इधर के वर्षों में महाराष्ट्र की सीमाओं को लांघकर समूचे मध्योत्तर भारत के लोकमानस में सर्वाधिक लोकप्रिय देवता के रूप में गणपति प्रतिष्ठ‍ित हो चुके हैं।

सिंधु घाटी से प्राप्त मुद्राओं में "पशुपति" की आकृति पाई गई है, "मातृका" और "इंद्र" के रूप भी मिले हैं, किंतु "गणपति" का नामोल्लेख सर्वप्रथम "ऋग्वेद" में ही मिलता है। ये और बात है कि "ऋग्वेद" की रचना सिंधु घाटी सभ्यता के कालखंड में ही हुई, या उससे भी पहले, इस संबंध में नाना विचार प्राप्त होते हैं।

गणपति शिव के पुत्र हैं।

शिवस्वरूप का वर्णन "शिवपुराण" में किया गया है।

गणपति कार्तिकेय के बंधु हैं।

कार्तिकेय के स्वरूप का वर्णन "स्कन्द पुराण" में है।

स्वयं गणपति के लिए पृथक से कोई पुराण नहीं है।

अलबत्ता "ब्रह्मवैवर्त" के "गणपति खंड" में अवश्य 46 अध्याय गणेशस्वरूप को समर्पित हैं, ये और बात है कि "ब्रह्मवैवर्त" को मूलत: वैष्णव पुराण माना जाता है।

जो एक ग्रंथ गणेशस्वरूप को पूर्णत: समर्पित माना जा सकता है, वह है "श्रीगणपत्यर्थर्वशीर्ष"। किंतु यह अत्यंत लघु है और इसमें केवल दस ऋचाएं हैं। यह "अथर्ववेद" का उपांग है।

किंतु चूंकि गणपति मराठों के ईष्ट हैं, इसलिए होलकर मराठों के ग्रंथ "अहल्याकामधेनु" में अवश्य गणेशपूजन की रीतियों का वर्णन है।


वैसा ही वर्णन लक्ष्मीधरविरचित "कृत्यकल्पतरु" में भी है।

किंतु कुल-मिलाकर "गाणपत्य" परंपरा का प्रसार लोक में जितना है, शास्त्र में उतना नहीं है।

और हर अर्थ में गणपति एक लोकप्रिय देवता हैं।

भाद्रपद के शुक्लपक्ष की चतुर्थी को इन्हीं गणपति के उद्भव का उत्सव मनाया जाता है और इक्कीस दूर्वाओं से उनका पूजन किया जाता है : एक "दूर्वानैवेद्य", दस दूर्वाएं विप्र के लिए और दस व्रती के लिए। वही कुशा, वही दूर्वा, जिसे विनय का रूप माना गया है। ग्रहण हो तो वृन्दा से पूजन होता है। और इस दिन चंद्रदर्शन निषिद्ध है।

जो "धर्मभीरु" होता है, वह स्नेहानुराग के बावजूद सर्वप्रथम आस्था के आलंबन पर अवस्थित होता है।

किंतु जो "अनीश्वरवादी" होता है, जैसे कि मैं, वह देवताओं के विग्रह में एक कौतूहलदृष्ट‍ि का समावेश करता है।

वह देवताओं को "ईष्ट" की तरह नहीं, बल्कि एक "रूपक", एक "व्यंजना", एक "मिथक", या "काव्य" के एक प्रसंग की तरह देखता है।

इस आधार पर कहूं कि गणपति मुझे कम रुचते हैं।


इसका कारण मेरे इस पूर्वग्रह में निहित है कि शुभ के देवता को मैं कभी पूर्ण नहीं मान सकता। और गणपति अनिवार्यत: "लाभ" और "शुभ" के देवता हैं। उनके स्वरूप में ही "अभिधा" है। "प्रयोजनमूलकता" है। वे "विघ्‍नकारक" नहीं "विघ्‍नहर्ता" हैं। "सिद्ध‍िविनायक" हैं। "मंगलमूर्ति" हैं।और इन्हीं कारणों से वे "मध्यवर्ग" के प्रिय देवता है, "वणिकों" के लिए प्रथम पूज्य हैं।

जबकि मेरा पूर्वग्रह यह है कि जो ईश्वर हमें "आश्वस्त" करे, वह पूर्णतया अभीष्ट नहीं हो सकता।

कि ईश्वर को "लोकरंजक" से अधिक "लोकचेता" होना चाहिए।

जैसे कि "बुद्धावतार", जो हमें आसन्न सर्वनाश की सूचना देते हैं।

जैसे शिव, जो प्रलय के देवता हैं। उनके विग्रह में सृजन के साथ ही सर्वनाश का भी समावेश है। या महायोगी श्रीकृष्ण, जिनके चरित्र में इतने स्तर हैं, इतनी सरणियां हैं, इतने भेदाभेद हैं, कि उन्हें "अभिधा" की किसी भी एकरूपता में आप आबद्ध नहीं कर सकते। मेरे लिए शिव और श्रीकृष्ण एक "विग्रह" के रूप में अधिक पूर्ण हैं।


हिंदू स्त्र‍ियां मन ही मन अपने देवताओं के प्रति एक विग्रह बनाए रखती हैं, जिनके बारे में पुरुषों को बहुधा सूचना नहीं होती।

सामान्यीकरण का जोखिम उठाऊं तो कह सकता हूं कि हर हिंदू स्त्री चाहती है कि उसे--

सखा मिले तो गणपति जैसा.

प्रिय मिले तो कृष्ण जैसा.

और पति मिले तो शिव जैसा।

स्त्र‍ियों में गणपति के प्रति "सख्य-भाव" अद्भुत है। "मैत्री" की भावना गहरे तक जुड़ी होती है।

गणपति लाभ, शुभ और मंगल के देवता हैं. स्त्रियों को ये गुण बहुत रुचते हैं. यह उनके जीवन दर्शन का नवनीत है-- लाभ, शुभ और मंगल. जनसामान्य के कल्याण का जननी भाव.

प्रेमी वे कृष्ण जैसा चाहती हैं।

और पुत्र भी।

यह भलीभांति जानते हुए कि कृष्ण निर्लिप्त हैं, मन को अंततः कष्ट ही देंगे, विप्रलम्भ का दंश देंगे।

किंतु यह स्त्री का हृदय ही बता सकता है कि उसके लिए बहुधा प्रेमी और पुत्र में भेद नहीं रह जाता। उसके अंतर्मन तक सबसे गहरी पहुंच उसके "प्रियम्वद" और "पुत्र" की ही होती है।

कान्हा प्रिय भी है, कान्हा पुत्र भी है!

और पति वे शिव जैसा चाहती हैं, यह जानते हुए कि हिंदू देवों में पौरुष से भरा वैसा कोई और नहीं, जैसे कि शिव हैं।

शिव प्रलय के देवता हैं। सर्वनाश का सौंदर्यशास्त्र रचते हैं। कि वे अवढरदानी हैं। सुलालित्य उन्हें छू भी नहीं गया है और उनके प्रेम में भी एक प्रकार की कठोरता है।

किंतु श्रावण सोमवार का व्रत करने वाली हर कन्या शिव जैसा वर चाहती है। वे उसी स्मरहर की अपर्णा होना चाहती हैं!

और मेरा ऐसा मत है कि "मर्यादा पुरुषोत्तम" एक ईष्ट के रूप में स्त्र‍ियों के बीच इतने लोकप्रिय नहीं हैं।

कहना ना होगा कि इस वर्गीकरण में भी स्त्री-मन के अनेकानेक रहस्य छुपे हैं।

किंतु अभी इतना ही।

इति नमस्कारान्ते।