स्मरहर / सुनो बकुल / सुशोभित

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स्मरहर
सुशोभित


शिव का एक नाम "स्मरहर" है.

पार्वती का एक नाम है "अपर्णा".

महाप्राण निराला के एक गीत में यह दोनों नाम आए हैं, किंतु वह गीत वसंत के बारे में है.

"रूखी री यह डाल / वसन वासंती लेगी!"

पतझड़ की रूखी डाल देखकर महाप्राण कहते हैं कि एक दिन वह वासंती वसन पहनेगी, पल्लव वसना बनेगी, यह सदैव ही यों रूखी नहीं रहेगी.

डाल पर्णहीन है.

उसे देख महाप्राण को तपस्विनी अपर्णा की याद आती है. वह रूखी डाल तब उनके मन में पार्वती के तप का एक सजल रूपक बन जाती है.

"शैलसुता अपर्ण अशना."

तपस्विनियां अनेक प्रकार की होती हैं -

निर्जला

शाकम्भरी

फलाहारी

करपात्रिणी

किंतु जो पर्ण का भी परित्याग कर दे, वह "अपर्ण अशना" है. शिव के लिए वैसे अनशन का तप करने वाली शैलसुता!

गोस्वामी जी ने उसी तपश्चारिणी के लिए कहा था --

"पुनि परिहरेउ सुखानेउ परना।

उमा नाम तब भयउ अपरना।"


इसी रीति से उमा-गौरी अपर्णा कहलाईं.

"देख खड़ी करती तप अपलक ,

हीरक-सी समीर माला जप

शैल-सुता अपर्ण-अशना ,

पल्लव-वसना बनेगी-

वसन वासंती लेगी!"


और फिर यह -

"हार गले पहना फूलों का,

ऋतुपति सकल सुकृत-कूलों का,

स्नेह, सरस भर देगा उर-सर,

स्मर हर को वरेगी

वसन वासन्ती लेगी!"

"स्मरहर" को वरेगी.

"स्मरहर" यानी शिव. स्मरहर यानी "स्मर" का दहन करने वाले. तब "स्मर" यानी कौन?

परम्परा में ऋतुपति के देवता कामदेव को जितने सुंदर पर्याय मिले हैं, उतने किसी और को नहीं मिले हैं -

कन्दर्प

मन्मथ

अनंग

मदन

पुष्पधन्वा

रतिपति

प्रद्युम्न

स्मर.

इतने सुंदर नाम! ये सभी कामदेव के पर्याय हैं!

"स्मर" कामदेव का एक नाम है.

यौन प्रतीकों का नामकरण स्मरकूप, स्मरस्तम्भ, स्मरप्रिया, स्मरवती उसी के आधार पर किया गया है.

शिव ने स्मर का दहन किया था, वह कथा सुश्रुत है. इसके बाद कन्दर्प अनंग कहलाया और शिव स्मरहर कहलाए.

प्रो. आनंद कुमार सिंह ने कायाकल्प की अवधारणा पर बात करते हुए एक बार कहा था --

"यदि स्मरण को समझा जा सके तो मरण को भी समझा जा सकता है. "स्मर" जीवन की रचना का मूल है. यही प्रेम का भी कारक है! जो स्मरहर है, वही मृत्युंजय भी है. देवता अमर हैं. हमारी संस्कृति में आठ प्रमुख अमर हैं. कल्पविनाश में भी इनका अंत नहीं होता."

उसी स्मरहर के वरण के लिए अपर्णा तप करती हैं. अमरत्व के पुंज के लिए देह की नश्वरता की परीक्षा लेती हैं. पूर्व-वसंत की रूखी डाल को देख कवि को उसी की याद आती है.

तप से काम्य तक,

अपर्ण से पल्लव तक,

स्मर से स्मरण तक

और स्मरण से मरण तक--

कितनी लम्बी यह यात्रा है!

वैसी कोई कविता कहीं किसी नवांकुर की दिखे, तो मुझको बतलाना. जो मुझे इतनी दूर लेकर जाए, और वह भी वैसे अप्रतिहत छंदविधान में --

"मधु-व्रत में रत वधू मधुर फल

देगी जग की स्वाद-तोष-दल ,

गरलामृत शिव आशुतोष-बल

      विश्व सकल नेगी!
      रूखी री यह डाल 
      वसन वासंती लेगी!"

यह कविता मंत्र की तरह उच्चार के लिए है, श्लोक की तरह श्रुति के लिए, गीत की तरह हृदय के लिए, ऋचा की तरह चित्त के लिए, पाथेय की तरह यात्रिक के लिए.

सुकवि ही लिख सकता है, सहृदय ही परख सकता है.

वसंत के अग्रदूत का यह मंगलाचरण है.

महाप्राण की उस काव्यचेतना को भाषा की भावतंत्री से निर्मित इस पार्थिव पिंड का नतशिर नमन!