घरबंदी में आम / अपनी रामरसोई / सुशोभित
सुशोभित
वो सत्रहवीं मार्च थी। हम अपनी रोज़ शाम की सैर पर थे। उस दिन थोड़ा लम्बे निकल गए। जिन्सी चौराहे तक चले गए। देखते क्या हैं, पुल बोगदा की तरफ़ कटने वाले रस्ते से आगे एक तखत पर लालबाग आम सजे हैं।
तो क्या आमों का मौसम आन पहुंचा? हमने ख़ुद से कहा। अरे हां, ये तो मार्च का महीना आधा निकल गया। बाज़ दफ़े तो आम-मोहतरम फ़ैब्रुएरी के आख़िर तक ही नमूदार हो जाते हैं। लालबाग जो है, वो मौसम में आने वाला पहला आम होता है। ये सिंदूरी और लालपट्टा भी कहलाता है। इसके छिलके पर बड़ी चित्ताकर्षक सुर्ख़-लाल चकत्तियां होती हैं और स्वाद में तनिक तुर्शी रहती है।
हम आम वाले के पास पहुंचे और बोले- भाईजान, ये आम मीठे तो हैं। भाईजान पक्के भोपाली थे। आंख में सुरमा, सिर पर टोपी, गले में रूमाल। बोले- मीठे? क्या बात कर रिये हो मियां? अजी, मिश्री का लड्डू है लड्डू। गुलबहार है। आम नहीं है, ये तो नखलऊ का मेवा है, काकोरी का पेड़ा है, डाल का पक्का है, शहद का छत्ता है! आप पेशतर इसको चखो, फिर लेके जाओ। मीठा नहीं निकले तो आपकी जूती और मेरा सिर। मूंछ मुंडवा लूंगा। नाम बदल लूंगा। नदीम से क़दीम कर दूंगा। क्या बात कर दी आपने ख़ां?
हम हँस दिए। कहा, हां भाई चखाओ। वो सत्रहवीं मार्च थी। उस ज़माने में हम लोगों को ये इल्म नहीं था कि हाथ धोए बिना बाज़ार का फल खाते नहीं है। कि फल को भी धोकर खाते हैं। जाने कितनी बार हुआ कि रस्ते चलते चीकू दिखा तो आधा किलो ले लिया और खाते-खाते मुक़ाम पर पहुंचे। कभी अमरूद ले लिया, कभी संतरा। ये कहां होता है कि अभी फल ले लो और आधी रात को जब घर पहुंचो, तब धो-पोंछकर खाओ। वो मार्च का महीना था, वो दौर ही दूसरा था।
हमने लालबाग की एक फांक ली और चखा। वाक़ई बहुत मीठा था। मन ही मन भाईजान के हौसले की दाद दी, वग़रना उनने तो आज मूंछें दांव पर लगा दी थीं। हमने एक सेर आम लिया। संतरा भी लिया। चीकू भी लिया। सारा असबाब लादकर चले। रस्ते चलते सोच रहे थे, मौसम का पहला आम ही मीठाचट निकला, यानी महूरत बढ़िया हुआ है। इस साल आमों की भली दावत रहेगी।
तब हमको क्या ख़बर थी?
वो सत्रहवीं मार्च थी। हफ़्ता बीतते ना बीतते घरबंदी हो गई। हमने अपनों को ताले में क़ैद पाया। कब, कैसे, क्या हुआ, समझ ही नहीं पड़ा। तालाबंदी के अव्वल इक्कीस दिन तो बहुत दुश्वार थे। शाक-पात के लाले थे। साग-भाजी मुश्किल से नसीब होती थी। दाल-रोटी से काम चलता था। फिर फल कहां से मिलेगा और तिस में आम कहां से आएगा। एप्रिल का पहला पखवाड़ा चल रहा था और ज़िंदगी में आमों का कोई दख़ल ना था। ऐसा भी होगा, ये भला किसने सोचा था। हम छत पर लेटे-लेटे तारे गिनते रहते और सोचते- जवाहर बाग़ में इस बार कैसी पैदावार हुई होगी? उतने आमों का क्या बना होगा? क्या आम पककर झड़ गए होंगे, मिट्टी में गल गए होंगे, कोई खा ना सका होगा। रूख़ पर होंगे तो सुग्गों ने जुठाकर छोड़ दिया होगा, धरती पर होंगे तो चींटियां चट करेंगी, लेकिन कितना खाएंगी। हर साल इसी वक़्त पर मंडी में भर-भरकर आम उतरते थे, वो इस बार कहां जा रहेंगे। हापुस का क्या बनेगा? हापुस तो इस साल विलायत जाने से रहा। तो क्या देशी मंडी में तबीयत से तुलेगा? पर पहले मंडियां तो खुलें।
इसी उधेड़बुन में दिन गुज़रे। तालाबंदी के पहले दौर के बाद थोड़ी ढील दिखी। दुकानें खुलने लगीं। हांक लगाने वाले गली में आने लगे। ऐसे ही किसी दिन कोई एक फेरीवाला बादाम आम ले आया।
अब आप बादाम आमों का क़िस्सा सुनिए। बाक़ी जगहों का मालूम नहीं, पर हमारे यहां मालवे में ये बादाम आम ही आमों का तआर्रुफ़ हैं। के आम यानी बादाम आम। यही सबसे ज़्यादा इधर चलता है। इसी का रस बनता है, जो बीयों के साथ खाया जाता है। इसी की फांके तश्तरियों में सजती हैं। ये आम मीठा होता है, पर इसके ज़ायके़ में वो किरदार नहीं होता, जो दीगर आमों में होता है। लिहाज़ा, हम साहब, जो ख़ुद को सूरमा-भोपाली समझते हैं, बादामों को हिक़ारत की नज़र से देखते थे। जो सब खाते हैं, वो हम खाएंगे क्या? हम आम थोड़े ना हैं, हम तो ख़्वास हैं, हमको सुरख़ाब के पर लगे हैं। हम तो मल्लिका खाएंगे, हम मालदा खाएंगे, हम केसर खाएंगे, हम गुलाबख़ास खाएंगे। बादाम तो ग़रीब-ग़ुरबों की मिठाई है। वो हम क्यूं खाएंगे?
चार्ल्स डिकेन्स के एक नॉवल में ऐसा होता है कि क़स्बे में एक बौड़म आदमी होता है, जिसका सब मखौल उड़ाते हैं। पूरे नॉवल में वो लतियाया जाता है। आख़िर के मंज़र में हीरो पर कोई गहरा वार करता है, वो अंधेरे में पड़ा तड़पता रहता है। तभी कोई आता है और उसे अपने कंधों पर लादकर हस्पताल ले जाता है। नीमबेहोशी में हीरो उस आदमी का चेहरा देखता है। उसके अचरज का ठिकाना नहीं रहता। ये तो वही बौड़म है, जिस पर सब हंसते थे। देखो, आज वो ही इकलौता जान बचाने आगे बढ़ा है।
कुछ वही हालत बादाम आम के सामने हमारी हो गई। हमने ताज़िंदगी उसको हिक़ारत से देखा। अब आमों की हड़ताल के इस दौर में एक वो ही हमारा आसरा था। माजरा ये है कि आमों की हमको हाजत है। हम पूरे साल आमों के मौसम को इंतेख़ाब करते हैं। के कब गर्मियां आएंगी और मंडियां आमों से लदेंगी। उससे हमारा ख़ून का रिश्ता मालूम होता है।
हस्बेमामूल, हमने दो सेर बादाम आम लिए। रात को बैठकर फ़ुरसत में खाए। इतनी मिठास उनमें थी कि ख़ुशी से आंखें मुंद गईं। मालूम हुआ, इस साल क़ुदरत ने बादाम आमों में दुनिया-जहान की कैफ़ियत और लुत्फ़ भर दिया था। आज हमारे लिए वही हापुस था, वही जर्दालू था, वही रसमंजरी था, वही किशनभोग। उसके किरदार के ये नुक़ूश, ये नुक़्ते, हम आइंदा भांप नहीं पाए थे। हम उस पर फ़िदा हुए। उसको दिल से दुआ दी। ये गर्मियां आख़िर बैरंग नहीं रह पाई थीं, ये इन ग़रीबपरवर आमों का ही करम था। हम उनके शुक्रगुज़ार थे।
जब तालाबंदी ने अपना नाम बदलकर खुल जा सिमसिम रख लिया, तो एक दिन हमने अपनी मोटरसाइकिल उठाई और सैर पर निकले। चेहरे पर नक़ाब पहन रखा था, हाथों में दस्ताने थे। जवाहर बाग़ का फेरा लगाकर आए, लेकिन वहां ना आम था, ना आम के दाम थे। गुठली छिलका कुछ नहीं। पता नहीं, इस बार आमबाग़ के आमों का क्या बना? कुछ कोस हम तफ़री करते रहे। लौटे तो रास्ते में तोतापुरी की एक ढेरी दिखलाई दी। तोतापुरी तीखे नयन-नक़्श वाला आम होता है- नोंकदार और चोंचदार। अलबत्ता उसमें इफ़रात मिठास नहीं होती पर गूदा उसका ठोस होता है, और उसके लुत्फ़ का अपना ही एक आलम है। दो सेर तोतापुरी भी तब लेकर आए।
और फिर, आज शाम सैर पर निकले तो क्या देखता हूं- लंगड़ा महाराज सामने से चले आ रहे हैं। क्या जलवा है उनका, क्या ही तो जमाल है। ये आमों में ज़िल्लेइलाही हैं। पहला पानी पड़ने के बाद ही अकसर ये नमूदार होते हैं। इस साल इनके दीदार होंगे, हमने उम्मीद नहीं की थी। उनके साथ उनके जोड़ीदार दशहरी मियां भी थे। हमने लंगड़ा महाराज और दशहरी मियां को धन्यभाव से तुलवाया और घर ले आए। वो आकर रसोईघर की सजावट बन गए। एक बे-बहर कोने का सिंगार बने। उनके आने से चौके में चार चांद लगे।
चौबीस मार्च को जब तालाबंदी हुई, तब हमने सोचा नहीं था कि जिन्सी पर भाईजान से जो लालबाग लिए थे, उसके बाद इस साल हमें फिर आम खाने को मिलेंगे। पर ये हमारी ख़ुशनसीबी थी कि एक आम से चली बात पांच आमों तक पहुंची। ना सही बीस क़िस्म के ज़ायक़े और अहसास, ना सही हापुस और सुवर्णलताओं के परिष्कृत अनुभव, जिस दौरे-वहशत में दो बेर की रोटी मिल जाना ही अच्छे करमों का फल था, तब आम जैसे फल की रसोई तो दुआओं से कम नहीं। फिर भी अगर्चे लंगड़ा ना मिलता तो बात अधूरी रह जाती, अलबत्ता हम किसी से शिक़वा नहीं करते, मन ही मन में इस अहसासे-कमतरी को संजो लेते। पर लंगड़ा मिल गया है, तो अब और क्या चाहिए। साल दो हज़ार बीस में लंगड़ा आम खा सकना किसी ऐय्याशी से कम नहीं है, हम इस ज़ेहनसीबी के सामने सिर झुकाते हैं।
वो किसी शाइर ने क्या ख़ूब कहा है- इंसान के हाथों की बनाई नहीं खाता, मैं आमों के मौसम में मिठाई नहीं खाता। इतने हादिसों से भरी ज़िंदगी में एक साल ये मिठाई ना मिलती तो हम गिला ना करते, पर जब मिली है तो हम शुकराना अदा करने से ख़ुद को रोकेंगे नहीं, ज़ब्त ना करेंगे। लिहाज़ा कहते हैं-बहोत बहोत शुक्रिया, मेरे मोहतरम भाई, सच में ही तुम मिट्टी से पैदा होने वाली तमाम चीज़ों में सरताज हो। मेरा सलाम और ऐहतेराम तुमको इस बेमुरौव्वत साल में भी मुबारिक!