शरीफ़े / अपनी रामरसोई / सुशोभित

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शरीफ़े
सुशोभित


सीताफल को उर्दू में शरीफ़ा कहते हैं और अंग्रेज़ी में कस्टर्ड एप्पल।

थोड़ा और खोजबीन की तो पता चला कि संस्कृत में इस फल को गण्डगात्र और कृष्णबीज कहकर पुकारा गया है। ‘निघंटु आदर्श’ में तो सीताफलादि वर्ग करके एक पूरा प्रकरण ही है। वैद्यराजगण इस बारे में अधिक बतला सकते हैं, क्योंकि, भारतभूमि के हर फल की तरह सीताफल फल भी है और वनौषधि भी।

सीताफल के वे सभी नाम किन्हीं पारिभाषिकताओं को इंगित करते हैं, और अगर इन सभी की उत्पत्ति की खोज-पड़ताल करें तो रोचक बातें सामने आ सकती हैं। किंतु वो तो व्याकरणविदों और समांतर कोशकारों का ज़िम्मा है।

अभी केवल बतरस।

लिहाज़ा, सबसे पहले तो यही कि शरीफ़ा खाने से भी पहले दिखने में भी एक बहुत ख़ूबसूरत फल है! कि उसका क़शीदा ही बहुत दिलख़ुश करने वाली चीज़ है।

फिर उसकी मिठास का लुत्फ़ भी सबसे जुदा है। शरीफ़ों के मौसम में ख़ूब पके हुए फल आपको मंडियों में इफ़रात से मिल जाएंगे।

जब शरीफ़ा ख़ूब पक जाता है, तो मोतीचूर के लड्डू की तरह हाथों में बिखर जाता है!

इधर मालूम हुआ कि दावतों में सीताफल की रबड़ी बहुत खाई जा रही है। शरीफ़े का गूदा भी अपनी रंगत और मुलायमियत में मलाइयों के लच्छे से कमतर नहीं होता। फिर उसकी मिठास भी नर्म मिजाज़ वाली मिठास है। लिहाज़ा, दस्तरख़्वान पर पेश की जाने वाली मिठाइयों में सीताफल की रबड़ी अपने लिए एक ख़ास मुक़ाम हासिल कर लेती है।

इधर सीताफल की आइस्क्रीम, बासुंदी, क्रीम, मुरब्बों आदि का भी चलन बढ़ा है। गोया कि शरीफ़े अब ऊंचे मेयार पर खाए जाने वाली चीज़ बन गए हैं।

यह देखकर अचरज हुआ कि शरीफ़े इन दिनों बक्सों में बेचे जाने लगे हैं!

भले ही रूखे सूखे गत्ते का बक्सा हो, लेकिन उसमें कुछ ऐसी बुलंदी होती है कि वो फ़ौरन से पेशतर किसी चीज़ को आम के बजाय ख़ास के दायरे में ले आता है।

जैसे कि, बक्सों में तो देवगढ़ वाले हापुस मिलते हैं, बक्सों में अंजीर और अखरोट मिलते हैं, बक्सों में कीवी और स्ट्रॉबेरी मिलते हैं और अगर सेब भी उम्दा क़िस्मों के हों तो वे हिमाचल से बक्सों में सवार होकर ही फलमंडियों में सिधारते हैं।

जबकि हमने तो हमेशा से सीताफल ठेलेवालों और फेरीवालों से ही सीधे ख़रीदकर खाए थे। हमने कभी ये नहीं सोचा था कि सीताफल अमीरों का फल है। समय-समय का फेर है।

जो भी हो, सीताफल के स्वाद को बयान करना मुश्क़िल है।

माना कि ईश्वर ने मिठास के बीसियों रूप रचे हैं, फिर भी बहुधा ऐसा हो जाता है कि चंद फलों की एक जात पाई जाती है, कि उनका ज़ायक़ा यक़सां मालूम होता है!

गरज ये कि : नाशपातियां ना मिलें तो बाबूगोशा खा लीजिए, आड़ू ना मिले तो आलूबुख़ारा खा लीजिए, फिरनियां ना मिलें तो चीकू खा लीजिए, अनानास ना मिले तो कटहल खा लीजिए, लीचियां ना मिलें तो झरबेरियां खा लीजिए।

लेकिन अगर सीताफल ना मिले तो कोई और चारा नहीं है। कि सीताफल का मंदहास से भरा, शीतल-वानस्पति‍क स्वाद अपने तरह की एक इकलौती ही शै है।

हर बार लंगड़ा आम को हम बहुत भारी दिल से विदा करते हैं। लेकिन आमों के बाद फलमंडी में आलूबुख़ारे और जामुन छा गए थे। फिर हरे सेब और बाबूगोशों की बहार आई। बीच में कुछ वक़्फ़े के लिए लीचियां भी आई थीं और नज़ला देकर चली गईं। अब शरीफ़े मैदान में उतरे हैं!

यों तो शरीफ़े हुजूर भी ठंडी सिफ़त के हैं और कंठ और छाती में शीत को प्रतिष्ठित करने में सक्षम हैं, लेकिन नज़ले से डरकर जीना भी क्या जीना! नज़ले के नेज़े वैसे भी ज़्यादा गहरे घाव नहीं करते- चंद छींकें ही तो आती हैं, ज़रा सा बुख़ार ही तो रहता है!

लिहाज़ा, हम फलमंडी से जाकर सीताफलों का एक बक्सा उठा लाते हैं। ज़्यादा महंगे फिर भी नहीं है। वैसे भी चूंकि इनका मौसम ज़्यादा वक़्त मेहरबां नहीं रहता, इसलिए सुभीता यही है कि अपनी सुविधानुसार ले आएं, भोग लगाएं और काले चकत्ते वाले सीताफल के हरे छिलकों में भीतर तक पैठी खुरदुरी मिठास को जीभ की नोक से देर तलक सहलाएं।