पाणिनि के पकवान / अपनी रामरसोई / सुशोभित

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पाणिनि के पकवान
सुशोभित


पाणिनि ने तक्षशिला और कंधार से लेकर कामरूप और इधर विन्ध्याचल से ऊपर के भारत का पैदल भ्रमण करके उस समय प्रचलित शब्दों को एकत्रित किया था। बाद में इनका वर्गीकरण किया और एक मानक कोश की रचना की। यही कारण है कि पाणिनि का "अष्‍टाध्‍यायी" केवल एक व्याकरण ग्रंथ ही नहीं है, उसमें तत्कालीन भारतीय समाज के लोकाचार के अनेक वर्णन मिलते हैं।

किंतु मेरे जैसे "भोजन-भट" के लिए विशेष रुचि का विषय है पाणि‍नि द्वारा "अष्‍टाध्‍यायी" में किया गया विभिन्‍न पकवानों का वर्णन। आज से ढाई हज़ार साल पहले भारतभूमि पर क्या पकवान पकाए जाते थे, भोजन-प्रबंध की क्या रीति थी, पर्व, उत्सव, सत्कार के क्या व्यंजन थे, इस सबका रसवंत विवरण उसमें प्राप्त होता है।

उदाहरण के तौर पर, पाणि‍नि ने लिखा है कि उत्‍तरी राजस्‍थान के साल्‍व जनपद में "यवागू" (जौ की लपसी) खाने की प्रथा थी। जौ को ओखल में कूटकर पानी में उबाला जाता और फिर दूध-शकर मिलाकर "यावक" नामक व्‍यंजन बनाया जाता। सत्‍तू को पानी में घोलकर नमक डालकर सेंका जाता, तो "पिष्‍टक" बनकर तैयार हो जाता। आज इसे ही "पीठा" कहते हैं।

पाणि‍नि के काल में हलवे को "संयाव" कहा जाता था। मालपुए "अपूप" कहलाते थे। सनद रहे कि "अपूप'" हमारे देश की सबसे प्राचीन मिठाई है और ऋग्‍वेद में भी घृतवंत अपूपों का वर्णन है। पाणिनी के युग में पूरन भरे अपूप ब्‍याह-बारात, तीज-त्‍योहार पर ख़ूब बनाए जाते थे।

पाणि‍नि के काल में उन सभी खाद्य पदार्थों को "दाधिक" कहा जाता था, जिनमें या तो दही का उपयोग हुआ है या जो दही से बने हैं, लेकिन पाणिनी ने इन "दाधिकों" को अलग-अलग विश्‍लेषित किया है। मिसाल के तौर पर यदि दही के साथ पूरियां खाई जाएं तो वे उसे "दध्‍ना संसृष्‍टं" कहते थे, यदि दही में पकौड़ी भिगो दी जाए तो वह "दध्‍ना उपसिक्‍तम्" कहलाती थी। इसे ही आज "दहीबड़ा" कहा जाता है। और यदि दही के साथ आलू पकाए जाएं तो उस व्‍यंजन का नामकरण पाणि‍नि ने "दध्‍ना संस्‍कृतं" किया है।

पाणि‍नि के काल में पच्‍चीस मन का बोझ "आचित" कहलाता था और जो रसोइया इतने अन्‍न का प्रबंध संभाल सके, उसे "आचितक" कहते थे। पाणिनी ने छह प्रकार के धान का भी उल्‍लेख किया है : "ब्रीहि", "शालि", "महाब्रीहि", "हायन", "षष्टिका" और "नीवार"। साथ ही "मैरेय", "कापिशायन", "अवदातिका कषाय", "कालिका" नामक मादक पदार्थों का भी "अष्‍टाध्‍यायी" में उल्‍लेख है।

दलित चिंतक कांचा एलैया ने कटाक्ष करते हुए कहा था कि किसान की भाषा में तकनीकी शब्दों की भरमार होती है और पंडित के लोक में खाने पीने की चीज़ों की। क्यूंकि पंडित पेटू होता है जबकि किसान श्रमजीवी होता है। एलैया जी को यह जानकर संतोष होना चाहिए कि अगर आचार्य विद्यानिवास मिश्र की "हिंदी की शब्द संपदा" में पूरे ग्यारह अध्याय खेती-किसानी से जुड़े परंपरागत और पारिभाषिक शब्दों पर एकाग्र हैं तो महापंडित पाणि‍नि ने भी खेती-किसानी से जुड़े लोक-व्यवहार के शब्दों का "अष्‍टाध्‍यायी" में दत्तचित्त होकर संकलन किया है।

अस्तु, पाणि‍नि ने किसानों का वर्गीकरण उनके द्वारा प्रयुक्‍त हलों के आधार पर किया है। "अहलि", जिसके पास अपना कोई हल न हो। "दुर्हलि", जिसका हल पुराना हो गया हो। और "सुहल", जिसके पास बढ़ि‍या हल हो। ऐसे ही "सुहल" किसानों के लिए कात्‍यायन ने आशीर्वादपरक वाक्‍य लिखा है : "स्‍वस्ति भवते सहलाय।"

पाणि‍नि के यहां हलों के भी तीन भाग वर्णित हैं : "ईषा", "पौत्र" और "कुशी"। हल खींचने वाले बैल "हालिक" या "सैरिक" कहे जाते थे। बैलों के गले में डाली जाने वाली जोत की रस्‍सी "यौत्र" कहलाती थी। खेती के कुछ प्रमुख औज़ारों में शामिल थे : "खनित्र" यानी कुदाल, "आखन" यानी खुरपा, "दात्र" यानी हंसिया, "तोत्र" यानी चाबुक इत्‍यादि।

उस काल में खेतों के नाम उसमें बोई जाने वाली फ़सल के नाम पर रखे जाते थे : जैसे "ब्रेहेय" यानी धान का खेत। "शालेय" यानी जड़हन का खेत। "यव्‍य" यानी जौ का खेत। "तिल्‍य" यानी तिल का खेत। "माष्‍य" यानी उड़द का खेत। "उम्‍य" यानी अलसी का खेत। खेतों का नामकरण बीज की तौल के आधार पर किया गया है, जैसे "प्रास्थिक" यानी ढाई पाव बीज बोने लायक़ खेत, "द्रौणिक" यानी दस सेर बीज बोने लायक़ खेत इत्‍यादि।

और आज जो फ़सलें रबी-खरीफ़ कहलाती हैं, पाणि‍नि के काल में "ग्रैष्‍मक" और "वासंतक" कहलाती थी। वहीं हरी फ़सल को "शस्‍य" और पकी फ़सल को "मुष्टि" कहा जाता था।

पाणि‍नि के विषय में कहा जाता है : "महती सूक्ष्मेक्षिका वर्तते सूत्रकारस्य" यानी वैयाकरण पाणि‍नि की दृष्ट‍ि अत्यंत पैनी है। पाणि‍नि के वर्गीकरणों का इतना महत्व है कि कालांतर में भाषा के जो प्रयोग "अष्‍टाध्‍यायी" के निकष पर खरे नहीं उतरे हैं, उन्हें "अपाणिनिय" कहकर अशुद्ध घोषित कर दिया जाने लगा। कहा जाता है कि पाणिनि के सूत्र में एक भी शब्द अनर्थक नहीं है।

यह अकारण नहीं है कि सहसा इधर पाणि‍नि पश्च‍िमी भाषाशास्त्र‍ियों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हो गए हैं, एक हम भारतीयों को ही आज उनके बारे में बात करने में भी लज्जा आती है।