घाट घाट का पानी / अपनी रामरसोई / सुशोभित

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घाट घाट का पानी
सुशोभित


एक मिसाल है, राम तेरे कितने नाम! यानी राम तो एक हैं, नाम अनेक हैं. फिर एक और मिसाल है, पानी रे पानी तेरा रंग कैसा? वही बात है कि पानी बहुरुपिया है पर है पानी ही. चाहें तो पानी को जल या नीर पुकार लीजै, कोई विवाद नहीं. घाट घाट का पानी होता है, बाट बाट के राम होते हैं.

भारत देश बहुत बड़ा है. भाँति भाँति की वस्तुओं के भिन्न नाम है. प्याज़ भी कहते हैं, कांदा भी कहते हैं. पर कोई अड़ जाय कि कांदा ग़लत कहते हो, वह तो प्याज़ है, तब कलह क्लेश की नौबत है. बाबाजी लोग तो कांदा को रामलड्डू बोलते हैं, ऐसा फनीस्सरनाथ जी बतला गए हैं. साधुजन नमक को रामरस बोलते हैं. नून तेल लकड़ी में फिर यही लवण भिन्न नाम से प्रस्तुत है, किस किससे झगड़ा कीजियेगा कि ग़लत कहते हो?

धनिया को इधर कोथमीर कहते हैं. कदाचित् सेमफली ही इधर बरबटी कहलाई है. परसों मुझे पता चला कि कुछ लोग कद्दू को सीताफल कहते हैं. मैं सीताफल की खीर खोजने गया तो कद्दू की खीर मिली. जबकि हमने तो शरीफे को ही हमेशा सीताफल कहा. कद्दू काशीफल भी कहलाया है, कोहड़ा भी और भोपला भी. कौंढ़ा और कुम्हणा भी कद्दू के नाम हैं। गोया कि कद्दू कटता है तो सबमें बंटता है-- कभी कभी भिन्न नामों से भी! परवल भाजी भी है और चबैना भी. बंगाल में फिर वही मूड़ी कहलाई है। झाबुआ में मैंने सुना है शकर की चिरौंजी को मखाना कहते हैं. चना-चिरौंजी की प्रसादी प्रसिद्ध है. पर उस अंचल में वैद्य ने किसी को कहा कि घी में मखाना भूंजकर खाइये तो वह भलामानुष चिरौंजी समझकर घृत-शर्करा के घालमेल का सेवन करता रहा. क्या कीजियेगा?

मूंग मोगर मोठ में साम्य और वैषम्य है. बनारस में जो लंगड़ा है, वो बंगाल में मालदा है. जो तोतापुरी है, वही कलमी है. कोई अड़ जाए कि कलमी ग़लत कहते हो, तो झमेला है. अब पपीते को ही अरण ककड़ी कहने वाले बहुतेरे हैं। वह तो रण-खरबूजा भी कहलाया है। लौकी को घिया, दूधी और आल भी कहते हैं। मालवा में पूछो, आज भोजन में क्या बनाया, तो वो कहेंगे- आल चने की दाल। अमरूद को जामफल कहने वाले कम नहीं। नर्मदांचल में तो वह बिही कहलाया है। पेरु, संतालु, सफरी, लताम : ये सब अमरूद के नाम हैं। बैंगन भटा भी है, बिंताक भी है, बेगुन तो है ही। वास्तव में हज़ार वस्तुओं के हज़ार अलग अलग नाम हैं. पुरबिया अंचल में जिसे वो खीरा कहते हैं, मध्यप्रांत में वही ककड़ी कहलाई है. सैलाना, रतलाम, बांसवाड़ा में उसे कोई खीरा नहीं कहेगा. ककड़ी के लिए खीरा शब्द उनके लिए लिए उतना ही पराया है जितना क्युक्युम्बर. पानी बाबा आता है तो ककड़ी भुट्टा लाता है, खीरा नहीं लाता.

जो गंगा उत्तराखंड में मंदाकिनी है, वही पूर्वबंग में मेघना है, पर है गंगा ही! आख़िर घाट बदलने से पानी तो नहीं बदल जाता, बोन्धु!